ग्रन्थ:दर्शनपाहुड़ गाथा 26
From जैनकोष
अस्संजदं ण वन्दे वत्थविहीणोवि तो ण वंदिज्ज ।
दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि ॥२६॥
असंयतं न वन्देत वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्द्येत ।
द्वौ अपि भवत: समानौ एक: अपि न संयत: भवति ॥२६॥
अब कहते हैं कि असंयमी वंदने योग्य नहीं है -
असंयमी ना वन्द्य है दृगहीन वस्त्रविहीन भी ।
दोनों ही एक समान हैं दोनों ही संयत हैं नहीं ॥२६॥
भावार्थ - जिसने गृहस्थ का भेष धारण किया है, वह तो असंयमी है ही, परन्तु जिसने बाह्य में नग्नरूप धारण किया है और अंतरंग में भावसंयम नहीं है तो वह भी असंयमी ही है, इसलिए यह दोनों ही असंयमी हैं, अत: दोनों ही वंदने योग्य नहीं हैं अर्थात् ऐसा आशय नहीं जानना चाहिए कि जो आचार्य यथाजातरूप को दर्शन कहते आये हैं, वह केवल नग्नरूप ही यथाजातरूप होगा, क्योंकि आचार्य तो बाह्य-अभ्यंतर सब परिग्रह से रहित हो उसको यथाजातरूप कहते हैं । अभ्यंतर भावसंयम बिना बाह्य नग्न होने से तो कुछ संयमी होता नहीं है - ऐसा जानना ।
यहाँ कोई पूछे - बाह्य भेष शुद्ध हो, आचार निर्दोष पालन करनेवाले के अभ्यंतर भाव में कपट हो उसका निश्चय कैसे हो तथा सूक्ष्मभाव केवलीगम्य हैं, मिथ्याभाव हो उसका निश्चय कैसे हो, निश्चय बिना वंदने की क्या रीति ?
उसका समाधान - ऐसे कपट का जबतक निश्चय नहीं हो तबतक आचार शुद्ध देखकर वंदना करे उसमे दोष नहीं है और कपट का किसी कारण से निश्चय हो जाय तब वंदना नहीं करे, केवलीगम्य मिथ्यात्व की व्यवहार में चर्चा नहीं है, छद्मस्थ के ज्ञानगम्य की चर्चा है । जो अपने ज्ञान का विषय ही नहीं, उसका बाधनिर्बाध करने का व्यवहार नहीं है, सर्वज्ञ भगवान की भी यही आज्ञा है । व्यवहारी जीव को व्यवहार का ही शरण है ॥२६॥