ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 7
From जैनकोष
सिद्धं जस्स सदत्थं विसुद्धझाणस्स णाणजुत्तस्स ।
सिद्धायदणं सिद्धं मुणिवरवसहस्स मुणिदत्थं ॥७॥
सिद्धं यस्य सन्दर्थं विसुद्धध्यानस्य ज्ञानयुक्तस्य ।
सिद्धायतनं सिद्धं मुनिवृषभस्य मुनितार्थम् ॥७॥
आगे फिर कहते हैं -
हरिगीत
जो शुक्लध्यानी और केवलज्ञान से संयुक्त हैं ।
अर जिन्हें आतम सिद्ध है वे मुनिवृषभ सिद्धायतन ॥७॥
इसप्रकार तीन गाथा में ‘आयतन’ का स्वरूप कहा । पहिली गाथा में तो संयमी सामान्य का बाह्यरूप प्रधानता से कहा । दूसरी में अंतरंग-बाह्य दोनों की शुद्धतारूप ऋद्धिधारी मुनि ऋषीश्वर कहा और इस तीसरी गाथा में केवलज्ञानी को जो मुनियों में प्रधान है सिद्धायतन कहा है । यहाँ इसप्रकार जानना जो ‘आयतन’ अर्थात् जिसमें बसे, निवास करे उसको आयतन कहा है, इसलिए धर्मपद्धति में जो धर्मात्मा पुरुष के आश्रय करने योग्य हो वह ‘धर्मायतन’ है । इसप्रकार मुनि ही धर्म के आयतन हैं, अन्य कोई भेषधारी, पाखंडी (ढोंगी) विषय-कषायों में आसक्त, परिग्रहधारी धर्म के आयतन नहीं हैं तथा जैनमत में भी जो सूत्रविरुद्ध प्रवर्तते हैं, वे भी आयतन नहीं, वे सब ‘अनायतन’ हैं ।
बौद्धमत में पाँच इन्द्रिय, उनके पाँच विषय, एक मन, एक धर्मायतन शरीर ऐसे बारह आयतन कहे हैं वे भी कल्पित हैं, इसलिए जैसा यहाँ आयतन कहा वैसा ही जानना, धर्मात्मा को उसी का आश्रय करना, अन्य की स्तुति, प्रशंसा, विनयादिक न करना, यह बोधपाहुड ग्रन्थ करने का आशय है । जिसमें इसप्रकार के निर्ग्रन्थ मुनि रहते हैं, इसप्रकार के क्षेत्र को भी ‘आयतन’ कहते हैं, जो व्यवहार है ॥७॥