ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 26
From जैनकोष
वयसम्मत्तविसुद्धे पंचेंदियसंजदे णिरावेक्खे ।
ण्हाएउ मुणी तित्थे, दिक्खासिक्खासुण्हाणेण ॥२६॥
व्रतसम्यक्त्वविशुद्धे पञ्चेन्द्रियसंयते निरपेक्षे ।
स्नातु मुनि: तीर्थे दीक्षाशिक्षासुस्नानेन ॥२६॥
(९) आगे तीर्थ का स्वरूप कहते हैं -
हरिगीत
सम्यक्त्वव्रत से शुद्ध संवर सहित अर इन्द्रियजयी ।
निरपेक्ष आतमतीर्थ में स्नान कर परिशुद्ध हों ॥२६॥
तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण-सहित, पाँच महाव्रत से शुद्ध और पाँच इन्द्रियों के विषयों से विरक्त, इस लोक-परलोक में विषयभोगों की वांछा से रहित ऐसे निर्मल आत्मा के स्वभावरूप तीर्थ में स्नान करने से पवित्र होते हैं, ऐसी प्रेरणा करते हैं ॥२६॥