ज्ञानी
From जैनकोष
- <a name="1" id="1"></a>लक्षण
स.सा./मू/७५ कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं। ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी।= जो आत्मा इस कर्म के परिणाम को तथा नोकर्म के परिणाम को नहीं करता किन्तु जानता है, वह ज्ञानी है।
आ.अनु/२१०-२११ "रसादिराद्यो भाग: स्याज्ज्ञानावृत्त्यादिरन्वत:। ज्ञानादयस्तृतोयस्तु संसार्येवं त्रयात्मक:।२१०। भागत्रयमयं नित्यमात्मानं बन्धवर्तिनम् । भागद्वयात्पृथक्कर्तुं यो जानाति स तत्त्ववित् ।२११।=संसारी प्राणी के तीन भाग हैं–सप्तधातुमय शरीर, ज्ञानावरणादि कर्म और ज्ञान।२१०। इन तीन भागों में से जो ज्ञान को अन्य दो भागों से करने का विधान जानता है वह तत्त्वज्ञानी है।२११। स.सा./पं.जयचन्द/१७७-१७८ ज्ञानी शब्द मुख्यतया तीन अपेक्षाओं को लेकर प्रवृत्त होता है–- <a name="1.1" id="1.1"></a> प्रथम तो जिसे ज्ञान हो वह ज्ञानी कहलाता है, इस प्रकार सामान्य ज्ञान की अपेक्षा से सभी जीव ज्ञानी हैं।
- <a name="1.2" id="1.2"></a> यदि सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान की अपेक्षा से विचार किया जाय तो सम्यग्दृष्टि को सम्यग्ज्ञान होता है, इसलिए उस अपेक्षा से वह ज्ञानी है, और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है।
- <a name="1.3" id="1.3"></a>सम्पूर्ण ज्ञान और अपूर्णज्ञान की अपेक्षा से विचार किया जाय तो केवली भगवान् ज्ञानी हैं और छद्मस्थ अज्ञानी हैं।
- जीव को ज्ञानी कहने की विवक्षा– देखें - जीव / १ / २ ,३।
- ज्ञानी का विषय–देखें - सम्यग्दृष्टि।
- श्रुतज्ञानी–देखें - श्रुतकेवली।
- ज्ञानी की धार्मिक क्रियाए̐– देखें - मिथ्यादृष्टि / ४ ।
Previous Page | Next Page |