क्षमा
From जैनकोष
- उत्तम क्षमा का व्यवहार लक्षण
वा.अनु./७१ कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंगं जदि हवेदि सक्खादं। ण कुणदि किंचिवि कोहं तस्स खमा होदि धम्मोत्ति।७१।=क्रोध के उत्पन्न होने के साक्षात् बाहिरी कारण मिलने पर भी जो थोड़ा भी क्रोध नहीं करता है, उसके (व्यवहार) उत्तम क्षमा धर्म होता है। (भा.पा./मू./१०७). (का.आ./मू./३९४); (चा.सा./५९/२)
नि.सा./ता.वृ./११५ अकारणादप्रियवादिनी मिथ्यादृष्टेरकारणेन मां त्रासयितुमुद्योगो विद्यते, अयमपगतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा। अकारणेन संत्रासकरस्य ताडनबधादिपरिणामोऽस्ति, अयं चापगतो मत्सुकृतेनेति द्वितीया क्षमा।=बिना कारण अप्रिय बोलनेवाले मिथ्यादृष्टि को बिना कारण मुझे त्रास देने का उद्योग वर्तता है, वह मेरे पुण्य से दूर हुआ—ऐसा विचारकर क्षमा करना वह प्रथम क्षमा है। मुझे बिना कारण त्रास देने वाले को ताड़न और वध का परिणाम वर्तता है, वह मेरे सुकृत से दूर हुआ, ऐसा विचारकर क्षमा करना वह द्वितीय क्षमा है।
- उत्तम क्षमा का निश्चय लक्षण
स.सि./९/६/४१२/४ शरीरस्थितिहेतुमार्गणार्थ परकुलान्युपगच्छतो भिक्षोर्दुष्टजनाक्रोशप्रहसनावज्ञाताडनशरीरव्यापादनादीनां संनिधाने कालुष्यानुत्पत्ति: क्षमा।=शरीर की स्थिति के कारण की खोज करने के लिए परकुलों में जाते हुए भिक्षु को दुष्टजन गाली-गलौज करते हैं, उपहास करते हैं, तिरस्कार करते हैं, मारते-पीटते हैं और शरीर को तोड़ते-मरोड़ते हैं तो भी उनके कलुषता का उत्पन्न न होना क्षमा है। (रा.वा./९/६/२/५९५/२१); (भ.आ./वि./४६/१५४/१२); (चा.सा./५९/१); (पं.वि./१/८२)
नि.सा./ता.वृ./११५ वधे सत्यमूर्तस्य परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति परमसमरसी भावस्थितिरुत्तमा क्षमा।= (मिथ्यादृष्टियों के द्वारा बिना कारण मेरा) बध होने से अमूर्त परमब्रह्मरूप ऐसे मुझे हानि नहीं होती—ऐसा समझकर परमसमरसी भाव में स्थित रहना वह उत्तम क्षमा है।
- उत्तम क्षमा की महिमा
कुरल.का./१६/२,१० तस्मै देहि क्षमादानं यस्ते कार्यविघातक:। विस्मृति: कार्यहानीनां यद्यहो स्यात् तदुत्तमा।२। महान्त: सन्ति सर्वेऽपि क्षीणकायास्तपस्विन:। क्षमावन्तमनुख्याता: किन्तु विश्वे हि तापसा:।१०।=दूसरे लोग तुम्हें हानि पहुचायें उसके लिए तुम उन्हें क्षमा कर दो, और यदि तुम उसे भुला सको तो यह और भी अच्छा है।२। उपवास करके तपश्चर्या करने वाले निस्सन्देह महान् हैं, पर उनका स्थान उन लोगों के पश्चात् ही है जो अपनी निन्दा करने वालों को क्षमा कर देते हैं।
भा.पा./मू./१०८ पावं खवइ असेसं खमायपडिमंडिओ य मुणिपवरो। खेयरअमरणराणं पसंसणीओ धुवं होइ।१०८।=जो मुनिप्रवर क्रोध के अभावरूप क्षमा करि मंडित है सो मुनि समस्त पापकूं क्षय करै है, बहुरि विद्याधर देव मनुष्यकरि प्रशंसा करने योग्य निश्चयकरि होय है।
अन.ध./६/५ य: क्षाम्यति क्षमोऽप्याशु प्रतिकतु कृतागस:। कृतागसं तमिच्छन्ति क्षान्तिपीयूषसंजुष:।५।=अपना अपराध करने वालों का शीघ्र ही प्रतिकार करने में समर्थ रहते हुए भी जो पुरुष अपने उन अपराधियों के प्रति उत्तम क्षमा धारण करता है उसको क्षमारूपी अमृत का समीचीनतया सेवन करने वाले साधुजन पापों को नष्ट कर देने वाला समझते हैं।
- उत्तम क्षमा के पालनार्थ विशेष भावनाएँ
भ.आ./मू./१४२०-१४२६ जदिदा सवति असंतेण परो तं णत्थि मेत्ति खमिदव्वं। अणुकंपा वा कुज्जा पावइ पावं वरावोत्ति।१।=सत्तो वि ण चेव हदो हदो वि ण य मारिदो ति य खमेज्ज। मारिज्जंतो विसहेज्ज चेव धम्मो ण णट्ठोत्ति।१४२२। पुव्वं सयभुवभुत्तं काले णाएण तेत्तियं दव्वं। को धारणीओ धणियस्स दिंतओ दुक्खिओ होज्ज।१४२५।=मैंने इसका अपराध किया नहीं तो भी यह पुरुष मेरे पर क्रोध कर रहा है, गाली दे रहा है, मैं तो निरपराधी हूँ ऐसा विचार कर उसके ऊपर क्षमा करनी चाहिए। इसने मेरे असद्दोष का कथन किया तो मेरी इसमें कुछ हानि नहीं है, अथवा क्रोध करने पर दया करनी चाहिए, क्योंकि यह दीन पुरुष असत्य दोषों का कथन करके व्यर्थ ही पाप का अर्जन कर रहा है। यह पाप उसको अनेक दुःखों को देने वाला होगा।१४२०। इसने मेरे को गाली ही दी है, इसने मेरे को पीटा तो नहीं है, अर्थात् न मारना यह इसमें महान् गुण है। इसने गाली दी है परन्तु गाली देने से मेरा तो कुछ भी नुकसान नहीं हुआ अत: इसके ऊपर क्षमा करना ही मेरे लिए उचित है ऐसा विचार कर क्षमा करनी चाहिए। इसने मेरे को केवल ताड़न ही किया है, मेरा वध तो नहीं किया है। वध करने पर इसने मेरा धर्म तो नष्ट नहीं किया है, यह इसने मेरा उपकार किया ऐसा मानकर क्षमा ही करना योग्य है।१४२२। ऋण चुकाने के समय जिस प्रकार अवश्य साहूकार का धन वापस देना चाहिए उसी प्रकार मैंने पूर्व जन्म में पापोपार्जन किया था अब यह मेरे को दुःख दे रहा है यह योग्य ही है। यदि मैं इसे शान्त भाव से सहन करूँगा तो पाप ऋण से रहित होकर सुखी होऊँगा। ऐसा विचार कर रोष नहीं करना चाहिए। (रा.वा./९/६/२७/५९९/१); (चा.सा./५९/३); (पं.वि./१/८४); (ज्ञा./१९/१६); (अन.ध./६/७-८); (रा.वा.हिं./९/६/६६५-६६६)
- दश धर्मों की विशेषताएँ—( देखें - धर्म / ८ )।
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