बलदेव
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- पुन्नाट संघ की गुर्वावली के अनुसार आप मित्रवीर के शिष्य तथा मित्र के गुरु थे । समय (ई.श. 1क पूर्व) (देखें इति - 7.8);
- श्रवण बेलगोला के शिलालेख नं. 15 के आधार पर कनकसेन के गुरु थे । समय - वि. 707 (ई. 650) ( भगवती आराधना/ प्र. 19/प्रेमी)
- श्रवणबेल-गोला के शिलालेख नं. 7 के आधार पर आप धर्मसेन के गुरु थे । समय -वि. 757 (ई. 700) ( भगवती आराधना/ प्र.19/प्रेमी जी)
- हरिवंशपुराण/ सर्ग/श्लोक नं. वसुदेव का पुत्र था (32/10) कृष्णको जन्मते ही नंद गोप के घर पहुँचाया (35/12) वहाँ जाकर उसको शिक्षित किया (35/64) द्वारका की रक्षा के लिए द्वैपायन मुनि से प्रार्थना करने पर केवल प्राण-भिक्षा मिली (61/48-89) जंगल में जरतकुमार द्वारा कृष्ण के मारे जाने पर (63/7) 6 माह तक कृष्ण के शव को लिये फिरे (63/11-60) । फिर देव के (जो पहले सिद्धार्थ नामक सारथि था) संबोधे जाने पर (63/61-71) दीक्षा धारण कर (63/72) घोर तप किया (75/114) सौ वर्ष तपश्चरण करने के पश्चात् स्वर्ग में देव होकर (65/33) नरक में जाकर कृष्ण को संबोधा (65/42-54) - विशेष देखें शलाका पुरुष - 3 ।
पुराणकोष से
(1) आगामी सत्रहवें तीर्थंकर निर्मल का जीव-वासुदेव । महापुराण76. 473
(2) लोहाचार्य के पश्चात् हुए आचार्यों में एक आचार्य । हरिवंशपुराण 66. 24-26
(3) वसुदेव और रोहिणी के पुत्र । ये नवम बलभद्र थे । महापुराण में इन्हें पद्म भी कहा है । ये वसुदेव की दूसरी रानी देवकी के पुत्र थे । देवकी के सातवें पुत्र कृष्ण को जन्मते ही ये और वसुदेव दोनों गोकुल में नंदगोप को दे आये । ये गोकुल, मथुरा और द्वारिका में कृष्ण के साथ ही रहे । जब द्वैपायन मुनि द्वारिका आये तो शंब आदि कुमारों ने मदोन्मत्त अवस्था में मुनि का तिरस्कार किया । मुनि ने क्रुद्ध होकर यादवों समेत द्वारिका के नष्ट होने का शाप दिया । इन्होंने अनुनय विनय के साथ मुनि से शाप को निरस्त करने की प्रार्थना की । मुनि ने संकेत से बताया कि बलराम और कृष्ण को छोड़कर शेष नष्ट हो जायेंगे । द्वारिका नष्ट हुई । कुछ समय पश्चात् मृग समझकर छोड़े हुए जरत्कुमार के बाण से कृष्ण की मृत्यु हो गयी । ये शोकाकुल होकर कृष्ण को लिये हुए छ: मास तक इधर-उधर घूमते रहे । जब सारथी सिद्धार्थ के जीव एक देव ने इन्हें संबोधा तो इन्होंने शव का दाह-संस्कार किया । इसके पश्चात् इन्होंने जरत्कुमार को राज्य देकर तीर्थंकर नेमिनाथ से परोक्ष में और पिहितास्रव मुनि से साक्षात् दीक्षा ली । तुंगीगिरि पर सौ वर्ष तक कठिन तप करके ये ब्रह्मलोक में इंद्र हुए । ये पूर्वजन्म में हस्तिनापुर में शंख नाम के मुनि थे । वहाँ से ये महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए । वहाँ से चयकर ये रोहिणी पुत्र बलराम हुए । पद्मपुराण 70. 318-319, 71. 125-138, हरिवंशपुराण 61. 48, 61-66, 63. 12-66, 74, 65.26-56, पांडवपुराण 22. 99 इनके रत्नमाला, गदा, हल और मूसल ये चार महारत्न थे । इनकी आठ हजार रानियाँ थीं और इनके निषध, प्रकृतिद्युति, चारुदत्त आदि अनेक पुत्र थे । महापुराण 71. 125-128, हरिवंशपुराण 48. 64-68, 53 41-56