ग्रन्थ:लिंगपाहुड़ गाथा 15
From जैनकोष
उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण ।
इरियावहं धारंतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥१५॥
उत्पतति पतति धावति पृथिवीं खनति लिङ्गरूपेण ।
ईर्यापथं धारयन् तिर्यग्योनि: न स: श्रमण: ॥१५॥
आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके ऐसे प्रवर्तते हैं, वे श्रमण नहीं हैं -
अर्थ - जो लिंग धारण करके ईर्यापथ सोधकर चलना था उसमें सोधकर नहीं चले, दौड़कर चलता हुआ उछले, गिर पड़े, फिर उठकर दौड़े और पृथ्वी को खोदे, चलते हुए ऐसे पैर पटके जो उससे पृथ्वी खुद जाय इसप्रकार से चले सो तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, मनुष्य नहीं है ॥१५॥