ग्रन्थ:लिंगपाहुड़ गाथा 21
From जैनकोष
पुंच्छलिघरि जो भुञ्जइ णिच्चं संथुणदि पोसए पिंडं ।
पावदि बालसहावं भावविणट्ठो ण सो सवणो ॥२१॥
पुंश्चलीगृहे य: भुङ्क्ते नित्यं संस्तौति पुष्णाति पिण्डं ।
प्राप्नोति बालस्वभावं भावविनष्ट: न स: श्रमण: ॥२१॥
आगे फिर कहते हैं -
अर्थ - जो लिंगधारी पुंश्चली अर्थात् व्यभिचारिणी स्त्री के घर पर भोजन लेता है, आहार करता है और नित्य उसकी स्तुति करता है कि यह बड़ी धर्मात्मा है इसके साधुओं की बड़ी भक्ति है इसप्रकार से नित्य उसकी प्रशंसा करता है इसप्रकार पिंड को (शरीर को) पालता है वह ऐसा लिंगी बालस्वभाव को प्राप्त होता है, अज्ञानी है, भाव से विनष्ट है, वह श्रमण नहीं है ।
भावार्थ - जो लिंग धारण करके व्यभिचारिणी का आहार खाकर पिंड पालता है, उसकी नित्य प्रशंसा करता है, तब जानो कि यह भी व्यभिचारी है, अज्ञानी है, उसको लज्ज भी नहीं आती है, इसप्रकार वह भाव से विनष्ट है, मुनित्व के भाव नहीं हैं, तब मुनि कैसे ? ॥२१॥