ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 28
From जैनकोष
णामे ठवणे हि संदव्वे भावे हि सगुणपज्जाया ।
चउणागदि संपदिमे१ भावा भावंति अरहंतं ॥२८॥
नान्मि संस्थापनायां हि च सन्द्रव्ये भावे च सगुणपर्याया:२ ।
च्यवनमागति: सम्पत् इमे भावा भावयन्ति अर्हन्तम् ॥२८॥
(१०) आगे अरहंत का स्वरूप कहते हैं -
अर्थ - नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव - ये चार भाव अर्थात् पदार्थ हैं, ये अरहंत को बतलाते हैं और सगुणपर्याया: अर्थात् अरहंत के गुण पर्यायोंसहित तथा चउणा अर्थात् च्यवन और आगति व सम्पदा - ऐसे ये भाव अरहंत को बतलाते हैं ।
भावार्थ - अरहंत शब्द से यद्यपि सामान्य अपेक्षा केवलज्ञानी हों वे सब ही अरहंत हैं तो भी यहाँ तीर्थंकर पद की प्रधानता से कथन करते हैं, इसलिए नामादिक से बतलाना कहा है । लोकव्यवहार में नाम आदि की प्रवृत्ति इसप्रकार है कि जो जिस वस्तु का नाम हो वैसा गुण न हो उसको नामनिक्षेप कहते हैं । जिस वस्तु को जैसा आकार हो उस आकार की काष्ठ-पाषाणादिक की मूर्ति बनाकर उसका संकल्प करे उसको स्थापना कहते हैं । जिस वस्तु की पहली अवस्था हो उस ही को आगे की अवस्था प्रधान करके कहे उसको द्रव्य कहते हैं । वर्तमान में जो अवस्था हो उसको भाव कहते हैं । ऐसे चार निक्षेप की प्रवृत्ति है । उसका कथन शास्त्र में भी लोगों को समझाने के लिए किया है । जो निक्षेप विधान द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्य को भाव न समझे, नाम को नाम समझे, स्थापना को स्थापना समझे, द्रव्य को द्रव्य समझे, भाव को भाव समझे, अन्य को अन्य समझे, अन्यथा तो ‘व्यभिचार’ नाम का दोष आता है । उसे दूर करने के लिए लोगों को यथार्थ समझाने के लिए शास्त्र में कथन है, किन्तु यहाँ वैसा निक्षेप का कथन नहीं समझना । यहाँ तो निश्चयनय की प्रधानता से कथन है सो जैसा अरहंत का नाम है वैसा ही गुण सहित नाम जानना, स्थापना जैसी उसकी देह सहित मूर्ति है वही स्थापना जानना, जैसा उसका द्रव्य है, वैसा द्रव्य जानना और जैसा उसका भाव है वैसा ही भाव जानना ॥२८॥