संहनन
From जैनकोष
1. संहनन सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/390/5 यस्योदयादस्थिबंधनविशेषो भवति तत्संहनननाम। =जिसके उदय से अस्थियों का बंधन विशेष होता है वह संहनन नामकर्म है। ( राजवार्तिक/8/11/9/577/5 ), ( धवला 6/1,9-1,28/54/8 ), ( धवला 13/5,5,107/364/5 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/29/6 )।
2. संहनन के भेद
षट्खंडागम 6/1,9-1/ सू.36/73 जं तं सरीरसंघडणणामकम्मं तं छव्विहं, वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणणामं वज्जणारायणसरीरसंघडणणामं णारायणसरीरसंघडणणामं अद्धणारायणसरीरसंघडणणामं खीलियसरीरसंघडणणामं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामं चेदि।36। =जो शरीर संहनन नामकर्म है वह छह प्रकार का है - वज्रऋषभनाराचशरीरसंहनन नामकर्म, वज्रनाराचशरीर संहनन नामकर्म, नाराचशरीरसंहनन नामकर्म, अर्धनाराच शरीर संहनन नामकर्म, कीलकशरीरसंहनन नामकर्म, और असंप्राप्त सृपाटिकाशरीरसंहनन नामकर्म। ( षट्खंडागम 13/5,5/ सू.109/369), ( सर्वार्थसिद्धि/8/11/390/6 ), ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/4/ की टी.), ( राजवार्तिक/8/11/9/577/6 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/29/6 )।
3. संहनन के भेदों के लक्षण
राजवार्तिक/8/11/9/577/7 तत्र वज्राकारोभयास्थिसंधि प्रत्येकं मध्ये वलयबंधनंसनाराचं सुसंहतं वज्रऋषभनाराचसंहननम् । तदेव वलयबंधनविरहितं वज्रनाराचसंहननम् । तदेवोभयं वज्राकारबंधनव्यपेतमवलयबंधनं सनाराचं नाराचसंहननम् । तदेवैकपार्श्वे सनाराचम् इतरत्रानाराचम् अर्धनाराचसंहननम् । तदुभयमंते सकीलं कीलिकासंहननम् । अंतरसंप्राप्तपरस्परास्थिसंधि बहि: सिरास्नायुमांसवटितम् असंप्राप्तसृपाटिकासंहननम् । = दोनों हड्डियों की संधियाँ वज्राकार हों। प्रत्येक मे वलयबंधन और नाराच हों ऐसा सुसंहत बंधन वज्रर्षभनाराचसंहनन है। वलय बंधन से रहित वही वज्रनाराच संहनन है। वही वज्राकार बंधन और वलय बंधन से रहित पर नाराच युक्त होने पर नाराच संहनन है। वही एक तरफ नाराच युक्त तथा दूसरी तरफ नाराच रहित अवस्था में अर्ध नाराच है। जब दोनों हड्डियों के छोरों में कील लगी हों तब वह कीलक संहनन है। जिसमें भीतर हड्डियों का परस्पर बंध न हो मात्र बाहिर से वे सिरा स्नायु मांस आदि लपेट कर संघटित की गयी हों वह असंप्राप्तसृपाटिका संहनन है। ( धवला 13/5,5,109/369/11 )।
धवला 6/1,9-1,36/73/8 संहननमस्थिसंचय:, ऋषभो वेष्टनम्, वज्रवदभेद्यत्वाद्वज्रऋषभ:। वज्रवन्नाराच: वज्रनाराच:, तौ द्वावपि यस्मिन् वज्रशरीरसंहनने तद्वज्रऋषभवज्रनाराचशरीरसंहननम् । जस्स कम्मस्स उदएण वज्जहड्डाइं वज्जवेट्ठेण वेट्ठियाइं वज्जणाराएण खीलियाइं च होंति तं वज्जरिसहवरणारायणसरीर संघडणमिदि उत्तं होदि। एसो चेव हड्डबंधो वज्जरिसहवज्जिओ जस्स कम्मस्स उदएण होदि तं कम्मं वज्जणारायणसरीरसंघडणमिदि भण्णदे। जस्स कम्मस्स उदएण वज्जविसेसणरहिदणारायणखीलियाओ हड्डसंधिओ हवंति तं णारायणसरीरसंघडणं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण हड्डसंधीओ णाराएण अद्धविद्धाओ हवंति तं अद्धणारायणसरीरसंघडणं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण अवज्जहड्डाइं खीलियाइं हवंति तं खीलियसरीरसंघडणं णाम। जस्स कम्मस्स् उदएण अण्णोण्णमसंपत्ताइं सरिसिवहड्डाइं व छिरावद्धाइं हड्डाइं हवंति तं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणं णाम। = हड्डियों के संचय को संहनन कहते हैं। वेष्टन को ऋषभ कहते हैं। वज्र के समान अभेद होने से 'वज्रऋषभ' कहलाता है। वज्र के समान जो नाराच है वह वज्रनाराच कहलाता है। ये दोनों अर्थात् वज्रऋषभ और वज्रनाराच, जिस वज्र संहनन में होते हैं, वह वज्रऋषभ वज्रनाराच शरीर संहनन है। जिस कर्म के उदय से वज्रमय हड्डियाँ वज्रमय वेष्टन से वेष्टित और वज्रमय नाराच से कीलित होती हैं, वह वज्रऋषभनाराच शरीर संहनन है। ऐसा अर्थ कहा गया है। यह उपर्युक्त अस्थिबंध ही जिस कर्म के उदय से वज्र ऋषभ से रहित होता है, वह कर्म वज्रनाराचशरीर संहनन इस नाम से कहा जाता है। जिस कर्म के उदय से वज्र विशेषण से रहित नाराच कीलें और हड्डियों की संधियाँ होती हैं वह नाराच शरीर संहनन नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से हाड़ों की संधियाँ नाराच से आधी बिंधी हुई होती हैं, वह अर्धनाराच शरीर संहनन नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से वज्र-रहित हड्डियाँ और कीलें होती हैं वह कीलक शरीर संहनन नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से सरीसृप अर्थात् सर्प की हड्डियों के समान परस्पर में असंप्राप्त और शिराबद्ध हड्डियाँ होती हैं, वह असंप्राप्तासृपाटिका शरीर संहनन नामकर्म है।
4. उत्तम संहनन का तात्पर्य प्रथम तीन संहनन
राजवार्तिक/9/27/1/625/19 आद्यं संहननत्रयमुत्तमम् ।1। वज्रवृषभनाराचसंहननं वज्रनाराचसंहननं नाराचसंहननसित्येतत्त्रितयं संहननमुत्तमम् । कुत:। ध्यानादिवृत्तिविशेषहेतुत्वात् । = आदि के तीन उत्तम संहनन हैं अर्थात् वज्रऋषभनाराचसंहनन, वज्रनाराचसंहनन, नाराचसंहनन ये तीनों ध्यान की वृत्ति विशेष का कारण होने से उत्तम संहनन कहे गये हैं। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1699/1521/14 )।
5. ध्यान के लिए उत्तम संहनन की आवश्यकता
राजवार्तिक/9/27/1,11/625-626/20 तत्र मोक्षस्य कारणमाद्यमेकमेव। ध्यानस्य त्रितयमपि (1/625) उत्तमसंहननाभिधानम् अन्यस्येयत्कालाध्यवसायधारणासामर्थ्यात् ।11/626। =उपरोक्त तीनों उत्तम संहनन में से मोक्ष का कारण प्रथम संहनन होता है और ध्यान के कारण तो तीनों हैं।1। क्योंकि उत्तम संहनन वाला ही इतने समय तक ध्यान धारण कर सकता है अन्य संहनन वाला नहीं। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1699/1521/14 )।
धवला 13/5,4,26/79/12 सुक्कलेस्सिओ...वज्जरिसहवरणारायणसरीरसंघडणो...खविदासेसकसायवग्गो..। =जिसके शुक्ल लेश्या है... (जो) वज्रऋषभ नाराच संहनन का स्वामी है..ऐसा क्षीणकषाय जीव ही एकत्व वितर्क अविचार ध्यान का स्वामी है।
ज्ञानार्णव/41/6-7 न स्वामित्वमत: शुक्ले विद्यतेऽत्यल्पचेतसाम् । आद्यसंहननस्यैव तत्प्रणीतं पुरातनै:।6। छिन्ने भिन्ने हते दग्धे देहे स्वमिव दूरगम् । प्रपश्यन् वर्षवातादिदु:खैरपि न कंपते।7। =पहले संहनन वाले के ही शुक्लध्यान कहा है क्योंकि इस संहनन वाले का ही चित्त ऐसा होता है कि शरीर को छेदने, भेदने, मारने और जलाने पर भी अपने आत्म को अत्यंत भिन्न देखता हुआ चलायमान नहीं होता, न वर्षाकाल आदि के दु:खों से कंपायमान होता है।6-7।
तत्त्वानुशासन/84 यत्पुनर्वज्रकायस्य ध्यानमित्यागमे वच:। श्रेण्योर्ध्यानं प्रतीत्योक्तं तन्नाधस्तन्निषेधकम् ।84। ='वज्रकायस्य ध्यानं ऐसा जो वचन निर्देश है वह दोनों श्रेणियों को लक्ष्य करके कहा गया है इसलिए वह नीचे के गुणस्थानवर्तियों के लिए ध्यान का निषेधक नहीं है ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/126/212/14 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/57/232/4 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/57/232/6 उपशमक्षपकश्रेण्यो: शुक्लध्यानं भवति, तच्चोत्तमसंहननेनैव, अपूर्वगुणस्थानादधस्तनेषु गुणस्थानेषु धर्मध्यानं, तच्चादिमत्रिकोत्तमसंहननाभावेऽप्यंतिमत्रिकसंहननेनापि भवति। =उपशम श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी में जो ध्यान होता है वह उत्तम संहनन से ही होता है, किंतु अपूर्वकरण गुणस्थान से नीचे के गुणस्थान में जो धर्मध्यान होता है वह पहले तीन उत्तर संहनन के अभाव होने पर भी अंतिम के तीन संहनन से भी होता है।
6. स्त्री को उत्तम संहनन नहीं होती
मो.क./मू./32 अंतिमतियसंहणणस्सुदओ पुण कम्मभूमिमहिलाणं। आदिमतिगसंहडणं णत्थित्ति जिणेहिं णिद्दिष्टं। =कर्म भूमि की स्त्रियों के अंत के तीन अर्द्धनाराच आदि संहनन का ही उदय होता है, आदि के तीन वज्रऋषभनाराचादि संहनन का उदय नहीं होता। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/ प्रक्षेपक/225-8/304 पर उद्धृत)।
7. अन्य संबंधित विषय -
- किस संहनन वाला जीव मरकर कहाँ उत्पन्न हो तथा कौन-सा गुण उत्पन्न करने को समर्थ हो। - देखें जन्म - 6।
- संहनन नाम कर्म की बंध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ तथा तत्संबंधी शंका समाधान। - देखें वह वह नाम ।
- सल्लेखना में संहनन निर्देश। - देखें सल्लेखना - 3।