ग्रन्थ:चारित्रपाहुड़ गाथा 5
From जैनकोष
जिणणाणदिट्ठिसुद्धं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ।
बिदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि ॥५॥
जिनज्ञानदृष्टिशुद्धं प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम् ।
द्वितीयं संयमचरणं जिनज्ञानसन्देशितं तदपि ॥५॥
आगे दो प्रकार का कहा सो कहते हैं -
अर्थ - प्रथम तो सम्यक्त्व का आचरणस्वरूप चारित्र है, वह जिनदेव के ज्ञान दर्शन श्रद्धान से किया हुआ शुद्ध है । दूसरा संयम का आचरणस्वरूप चारित्र है, वह भी जिनदेव के ज्ञान से दिखाया हुआ शुद्ध है ।
भावार्थ - चारित्र दो प्रकार का कहा है । प्रथम तो सम्यक्त्व का आचरण कहा वह जो सर्वज्ञ के आगम में तत्त्वार्थ का स्वरूप कहा उसको यथार्थ जानकर श्रद्धान करना और उसके शंकादि अतिचार मल दोष कहे, उनका परिहार करके शुद्ध करना तथा उसके नि:शंकितादि गुणों का प्रगट होना वह सम्यक्त्वचरण चारित्र है और जो महाव्रत आदि अंगीकार करके सर्वज्ञ के आगम में कहा वैसे संयम का आचरण करना और उसके अतिचार आदि दोषों को दूर करना संयमचरण चारित्र है, इसप्रकार संक्षेप से स्वरूप कहा ॥५॥