ग्रन्थ:चारित्रपाहुड़ गाथा 43
From जैनकोष
चारित्तसमारूढो अप्पासु परं ण ईहए णाणी ।
पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो ॥४३॥
चारित्रसमारूढ आत्मनि१ परं न ईहते ज्ञानी ।
प्राप्नोति अचिरेण सुखं अनुपमं जानीहि निश्चयत: ॥४३॥
आगे कहते हैं कि जो सम्यग्ज्ञान सहित चारित्र धारण करता है, वह थोड़े ही काल में अनुपम सुख को पाता है -
अर्थ - जो पुरुष ज्ञानी है और चारित्र सहित है, वह अपनी आत्मा में परद्रव्य की इच्छा नहीं करता है, परद्रव्य में राग-द्वेष-मोह नहीं करता है । वह ज्ञानी जिसकी उपमा नहीं है, इसप्रकार अविनाशी मुक्ति के सुख को पाता है । हे भव्य ! तू निश्चय से इसप्रकार जान । यहाँ ज्ञानी होकर हेय उपादेय को जानकर, संयमी बनकर परद्रव्य को अपने में नहीं मिलाता है, वह परम सुख पाता है, इसप्रकार बताया है ॥४३॥