ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 27
From जैनकोष
सव्वे कसाय मोत्तुं गारवमयरायदोसवामोहं ।
लोयववहारविरदो अप्पा झाएह झाणत्थो ॥२७॥
सर्वान् कषायान् मुक्त्वा गारवमदरागदोषव्यामोहम् ।
लोकव्यवहारविरत: आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थ: ॥२७॥
आगे आत्मा का ध्यान करने की विधि बताते हैं -
अर्थ - मुनि सब कषायों को छोड़कर तथा गारव, मद, राग, द्वेष तथा मोह इनको छोड़कर और लोकव्यवहार से विरक्त होकर ध्यान में स्थित हुआ आत्मा का ध्यान करता है ॥२७॥
भावार्थ - मुनि आत्मा का ध्यान ऐसा होकर करे - प्रथम तो क्रोध, मान, माया, लोभ इन सब कषायों को छोड़े, गारव को छोड़े, मद जाति आदि के भेद से आठ प्रकार का है, उसको छोड़े, राग-द्वेष छोड़े और लोकव्यवहार जो संघ में रहने में परस्पर विनयाचार, वैयावृत्त्य, धर्मोपदेश पढ़ना-पढ़ाना है, उसको भी छोड़े, ध्यान में स्थित हो जावे - इसप्रकार आत्मा का ध्यान करे ।
यदि कोई पूछे कि सब कषायों को छोड़ना कहा है उसमें तो सब गारव मदादिक आ गये फिर इनको भिन्न-भिन्न क्यों कहे ? उसका समाधान इसप्रकार है कि ये सब कषायों में तो गर्भित हैं, किन्तु विशेषरूप से बतलाने के लिए भिन्न-भिन्न कहे हैं । कषाय की प्रवृत्ति इसप्रकार है - जो अपने लिए अनिष्ट हो उससे क्रोध करे, अन्य को नीचा मानकर मान करे, किसी कार्य निमित्त कपट करे, आहारादिक में लोभ करे । यह गारव है वह रस, ऋद्धि और सात ऐसे तीन प्रकार का है ये यद्यपि मानकषाय में गर्भित हैं तो भी प्रमाद की बहुलता इनमें है इसलिए भिन्नरूप से कहे हैं ।
मद-जाति, लाभ, कुल, रूप, तप, बल, विद्या, ऐश्वर्य - इनका होता है, वह न करे । राग-द्वेष प्रीति-अप्रीति को कहते हैं, किसी से प्रीति करना किसी से अप्रीति करना - इसप्रकार लक्षण के भेद से भेद करके कहा । मोह नाम पर से ममत्वभाव का है, संसार का ममत्व तो मुनि के है ही नहीं, परन्तु धर्मानुराग से शिष्य आदि में ममत्व का व्यवहार है, वह भी छोड़े । इसप्रकार भेद विवक्षा से भिन्न-भिन्न कहे हैं, ये ध्यान के घातक भाव हैं इनको छोड़े बिना ध्यान होता नहीं है, इसलिए जैसे ध्यान हो वैसे करे ॥२७॥