वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 10
From जैनकोष
विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रह: ।
ज्ञानध्यानतापोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।।10।।
तपस्वियों की अनिवार्यरूप से विषयवशातीतता―इस ग्रंथ में सबसे पहले यह बताया था कि मैं उस सही धर्मकावर्णन करुंगा जिस धर्म के धारण करने से जीव संसार के दुःखों से छूटकर उत्तम सुख में पहुंचता है । वह धर्म क्या है? सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । उसमें सम्यग्दर्शन के स्वरूप में कहा था कि परमार्थभूत आप्त,आगम और तपस्वी का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । यद्यपि सम्यग्दर्शन के लक्षण अनेक किए हैं मगर सूक्ष्मता से विचार करें तो सब एक जगह ही बात है । तो आप्त और आगम का वर्णन तो किया जा चुका है,आज तपस्वी का वर्णन किया जा रहा है । तपस्वी किसे कहते हैं? जो विषयों की आशा के अधीन न हो वह होता है तपस्वी । और भी लक्षण बताये जायेंगे,पर यहाँ पहले ही विचार करें कि जो गुरु स्वयं विषयों की आशा के आधीन हैं,खाने के लालची हैं,अनेक स्वाद के वशीभूत है । कर्णेंद्रिय के वशीभूत हैं जो यश कीर्ति सुनना चाहते जो अभिमानी होते,अन्य-अन्य विषयों में जिनके राग जाता हो वे विषयों के छोड़ने का कैसे सही उपदेश कर सकते हैं? इससे पहली बात गुरु में यह होनी चाहिए कि वह विषयों के अधीन न हो । महिलायें लोग एक भजन गाती हैं ना―‘‘हम तो हैं उन चरनन में दास जिन्होंने मन मार लिया ।’’ जिन्होंने इंद्रिय और मन को काबू किया,वे पुरुष गुरु कहलाने योग्य हैं,क्योंकि विषयों का लंपटी दूसरों को विषयों से छुटाकर वीतराग मार्ग में नहीं लगा सकता ।
विषयाशावशातीत पुरूष के सत्संग से अन्य के विषयनिवृत्ति की संभवता―एक छोटासा दृष्टांत है कि किसी बुढ़िया मां का छोटा बेटा गुड़ बहुत खाता था । उस गुड़ के खाने से उसके शरीर में कोई मर्ज भी बन गया था,सो बुढ़िया मां किसी संन्यासी के पास पहुंची और बोली―महाराज आप मेरे बेटे का गुड खाना छुटवा दीजिए । अब वह संन्यासी स्वयं गुड़ खाता था सो दूसरे से कैसे गुड़ छुटवा सके,सो बोला―अच्छा तुम आज से 15 दिन बाद मेरे पास लाना,तब छुटवा दूंगा । इधर उस संन्यासी ने पहले स्वयं गुड़ खाना छोड़ा और बराबर 15 दिन तक गुड़ न खानें का अभ्यास किया । 15 दिनबाद जब बुढ़िया अपने बेटे को लेकर आयी संन्यासी के पास गुड छुड़वाने को कहा तो सन्यासी बोला उस बालक से बेटे गुड खाना छोड़ दो,यह बड़ा हानिकारक है । वहाँ उस बुढ़िया ने संन्यासी से पूछा―अरे यही बात तो आप आज से 15 दिन पहले भी कह सकते थे,15 दिन बाद क्यों कहा? तो सन्यासी बोला―बुढ़िया मां जब मैं स्वयं गुड़ खाता था तो दूसरे को गुड़ न खाने का उपदेश कैसे दे सकता था? जब मैंने 15 दिन तक गुड़ न खाने का अभ्यास कर लिया तब इस बालक को गुड़ नखाने का उपदेश दिया । तो इससे यह है समझना कि जो स्वयं रागी, द्वेषी, मोही है, मलिन है, संसारी प्राणी है वह गुरु कैसे कहा जा सकता? जो विषयों का अनुरागी है उसे प्रथम तो आत्मज्ञान ही नहीं है, बहिरात्मा है,मिथ्यादृष्टि है,वह गुरु कैसे कहा जा सकता। कोई पदवी तो गुरु की ले-ले, भेष तो गुरु का धारण करले और स्वयं विषयों का लंपटी हो तो उसको आत्मज्ञान नहीं है। गृहस्थी में कोई रह रहा है और कभी विषयों को भोग भी करता है उसके तो सम्यक्त्व भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसको बहुत तीव्र राग लगा है तब ही तो वह विषयों की लालसा रखता हो तो उसको सम्यक्त्व ही नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसको बहुत तीव्र राग लगा है तब ही तो वह विषयों में आसक्त बना। तो जो स्वयं आत्मज्ञान से रहित है बहिरात्मा है वह गुरु कैसे हो सकता है? पहली बात कह रहे हैं कि तपस्वी गुरु वही है जो विषयों के आधीन न हो।
तपस्वी की अनिवार्य निरारंभता―दूसरा विशेषण है तपस्वी का आरंभरहित होना । त्रस स्थावर जीवों के घात का अगर आरंभ है तो उसके पाप का ही बंध होगा । सो जो पापी पुरुष है आरंभ करने वाला है वह गुरु कैसे हो सकता है? जैसे अनेक संन्यासी जन अपना बगीचा रखते हैं,खेती-बाड़ी देखते हैं और भेष, रख लेते हैं कोई लंगोट पहनने का,भस्म रमाने का और सारा आरंभ कर रहे हैं तो आरंभ का पाप उनको बराबर लग रहा है । वहाँ गुरुपना थोड़ा बहुत लौकिक हिसाब से भी कैसे संभव है? फिर जो निर्ग्रंथ दिगंबर भेष धारण करले और किसी बाह्य आरंभ में लग जाय तो वह तपस्वी नहीं,गुरु नहीं । तो जो निरारंभ है वह ही तपस्वी हो सकता है । निरारंभ पुरुष को न पहले चिंता न बाद में चिंता,न किसी तरह का उस कार्य का विकल्प है,अतएव वह आत्मध्यान में भली भांति लग सकता है । तो तपस्वी निरारंभ होता है ।
तपस्वी की अनिवार्य निष्परिग्रहता―तीसरा विशेषण है तपस्वी का कि वह अपरिग्रही हो,याने परिग्रहरहित हो । परिग्रह अंतरंग तो 14 प्रकार के हैं और बहिरंग 10 प्रकार के हैं । सोइन परिग्रही से जो सहित हो वह गुरु कैसे हो सकता है? जो स्वयं परिग्रही है वह आप ही संसार में फंस रहा है,वह अन्य पुरुषों का उद्धारक गुरु,तपस्वी कैसे हो सकता है? अंतरंग परिग्रह कौन से होते है? जो जीव के भावरूप हैं,विकार हैं,विभाव हैं उनको जो लपेटता है उनसे लगाव रखता है,उनको आत्मस्वरूप मानता है वह भी तो परिग्रह हुआ । अंतरंग परिग्रह, हुआ । अंतरंग परिग्रह 14 प्रकार के हैं―(1) मिथ्यात्व (2) वेद (3) राग (4) द्वेष (5) हास्य (6) भय(7) रति (8) अरति (1) जुगुप्सा (11) क्रोध (12) मान (13) माया (14) लोभ । ये परिग्रह कैसे हैं सो सुनो।
मिथ्यात्व परिग्रह की स्वभावविघातकता―(1) मिथ्यात्वपरिग्रह―इस समय जो प्राणियों की स्थिति है,शरीर सहित है तो शरीर तो एक पिंडरूप है,अचेतन है,पौद्गलिक है,वह जाननहार नहीं है,और जो जाननहार तत्त्व है वह अमूर्त है,इस शरीर से बिल्कुल निराला है । वहाँ इस शरीर को अपनाना कि यह मैं हूँ और इस शरीर के पुष्ट रखने का ही ध्यान रखना ऐसे विकल्पों का नाम मिथ्यात्व परिग्रह है । कभी-कभी यह जीव इन बातों को सुन लेता है,कह लेता है कि शरीर का यह रूप है पौद्गलिक है,इस शरीर के आधार ही तो अनेक प्रकार की घटनायें होती है । जाति कुल मानना,किस पद में रह रहे,क्या पोजीशन है,राज्य,धन वैभव,इज्जत,प्रतिष्ठा आदि की सारी बातें इस शरीर के आधार से ही तो बन रही हैं । ऐसी ये सब शरीर की रचनायें है जोकि कर्मों के उदय से प्राप्त हैं । इस जीव के मिथ्यात्वकर्म का ऐसा उदय चल रहा है कि शरीर के नाश को अपना नाश मानता है । देखो धीरता स्थिरता की यह बात है कि इसके मिथ्यात्व है तो इसको शरीर के छूटते समय एक सूझा पहुंचता है,साथ ही शरीर के नष्ट होने पर बताओ अपना नाश मानता कि नहीं? जब कोई विपत्ति आती है,शारीरिक रोग आता है या कोई मरण की बात उपस्थित होती है तो बताओ यह मिथ्यादृष्टि जीव घबड़ाता है कि नहीं? घबड़ाता है मगर सम्यग्दृष्टि जीव न घबड़ायगा । उस सम्यग्दृष्टि जीव को अपने आत्मा पर श्रद्धान है कि यह मैं पूरा का पूरा हूँ,। यहाँ हूँ तो पूरा हूँ शरीर को छोड़कर जाऊंगा तो पूरा ही रहूंगा । मैं सर्वत्र पूरा हूँ मेरा कुछ गिरता नहीं है । मरण के मायने शरीर का वियोग होना,इतना ही तो अर्थ है,पर मैं आत्मा गुणों में परिपूर्ण हूँ । जो मेरा स्वरूप है वह अधूरा नहीं है । जाऊंगा तो पूरा का पूरा रहूंगा तो पूरा का पूरा । तो शरीर के नाश होने से अपना नाश मानना यह शरीर में आपा मानने का ही तो परिचय है । शरीर निर्बल हो जाय तो अपने आत्मा को निर्बल समझा यह शरीर में आत्मीयता की बुद्धि रखने के संस्कार लगे है इसके सम्यक्त्व कहां से होगा? वह तो ज्ञानी भी नहीं है फिर वह गुरु कैसे हो सकता है? शरीर अगर पुष्ट हो गया तो यह मानना कि मैं आत्मा पुष्ट हो गया हूँ,या इस शरीर को ही निरखकर अपने को उच्च अथवा नीच माननाये सब देहात्मबुद्धि की बातें हैं । जो खुद नहीं है,पररूप है,उसको अपना मानना यह मिथ्यात्व है कितने ही पुरुष तो ऐसे भी होते कि जो वचनों से तो कह देंगे कि ये सब परपदार्थ हैं,परवस्तु हैं लेकिन भीतर से ऐसा लगाव रखे रहते हैं कि उन पर पदार्थों के संयोग एवं वियोग में भारी हर्ष विषाद मानते है । तो भीतर में जिसके इस प्रकार का आशय पड़ा है उसके मिथ्यात्व नाम का परिग्रह है,और जिसके मिथ्यात्वपरिग्रह लगा है वह गुरु नहीं हो सकता ।
वेद रागद्वेष परिग्रह की स्वभावविघातकता―(2) दूसरा परिग्रह है वेद । स्त्रीवेद,पुरुषवेद और नपुंसकवेद,इनमें कामवासना का भाव रखना यह वेद परिग्रह है । वेदरसानुभव में आत्मस्वभाव की सुध नहीं रहती । (3) तीसरा अंतरंग परिग्रह है राग । पर द्रव्य शरीर,धन,स्त्री पुत्रादिक संबंधी समस्त परपदार्थों में अनुरक्त होना,उससे अपना महत्व मानना यह राग परिग्रह कहलाता है । जिसके परपदार्थों में राग लगा है वह गुरु कैसे हो सकता है? (4) चौथा परिग्रह है द्वेष । दूसरों का ऐश्वर्य देखकर उससे द्वेष हो जाना । हालांकि उससे अपना बिगाड़ क्या होता,क्यों अपना अपमान महसूस कर रहा?तो बात यह है कि वह अपने ऐश्वर्य का बड़ा रागी है । वह अपना बड़ा ऐश्वर्य चाहता है पर मिला न हो,मिल गया हो वह ऐश्वर्य किसी दूसरे को तो उस दूसरे से इसे द्वेष बन जाता । इसी तरह दूसरे की जवानी तथा धन संपत्ति देखकर उससे बैर रखना द्वेष है । जैसे कोई धनिक वृद्ध हो गया,रोगी भी है तो वह दूसरों को खूब मौज से खाते पीते रहते देखकर उनसे ईर्ष्या करता है तो यह उसका द्वेषपरिग्रह है । ऐसे ही किसी का भारी यश बढ़ रहा हो उसके प्रति द्वेष हो जाना यह द्वेष परिग्रह है । जिसके द्वेषपरिग्रह लगा है वह गुरु कैसे कहला सकेगा?
हास्य भय-रति अरति परिग्रह की स्वभावविघातकता―(5) पांचवां अंतरंग परिग्रह है हास्य । हंसने का परिणाम बनाना,विनोद की प्रकृति बनाना,किसी भी घटना में हंसना,ऐसा परिणाम जिसके हो रहा हो तो उसका उपयोग किस तरफ है? परद्रव्यों की ओर । स्वयं के आत्मस्वरूप की ओर नहीं । तो जिसके ऐसा हास्य परिग्रह लग रहा वह गुरु कैसे? (6) छठा अंतरंग परिग्रह है भय । अपना मरण होने का भय होना वियोग का भय लगा है,मैं मर जाऊंगा...,मरण के समय में जो वेदना होती है उसका डर लगना यह सब भय परिग्रह है । भयपरिग्रह में उपयोग अंतस्तत्त्व की ओर नहीं रहा । (7) सातवां अंतरंग परिग्रह है रतिपरिग्रह जो पदार्थ अपने राग के कारणभूत हों याने राग कराने वाले पदार्थ उनमें आसक्ति से लीन होना,रत हो जाना यह रति परिग्रह है । जिनके ऐसा रतिभाव है पर पदार्थोंमे उनमें गुरुपना कैसे संभव है? (8) आठवां अंतरंग परिग्रह है अरति परिग्रह यह परिग्रह भी आत्मविमुख कर देता है जो वस्तु अपने को अनिष्ट लगती हो,उसमें परिणाम न लगता हो,चित न लगता है और उसके प्रति ग्लानि बन जाय तो वह अरति परिग्रह है।
शोक जुगुप्सा परिग्रह की स्वभावविघातकता―(9) नवमा परिग्रह है शोक परिग्रह । किसी इष्ट पुरुष या इष्ट वस्तु का वियोग हो जाय तो वह शोक परिग्रह है । देखिये जीवन में सबको कुछ न कुछ वियोग की घटनायें आती हैं,कहीं कोई गुजर गया,कहीं कोई चीज गुम गई,कहीं कुछ से कुछ घटना घट गई,ये बातें सब पर आती हैं तो फिर संसार में सुख की बात रही क्या? इन दुःखों से घबड़ाना नहीं इसके लिए चाहिए प्रभु की आराधना,आत्माराधना । अपने में ऐसा भाव बने कि हे प्रभो मेरे में वह बल प्रकट हो जिससे सर्व व्याधियों को मैं समता से सह सकूं । यदि कोई ऐसा मांगे या सोचे कि हे भगवान मुझ को कोई कष्ट न आये तो यह बात बन नहीं सकती,क्योंकि संसार तो कष्ट रूप ही है,किसी को कुछ कष्ट है किसी को कुछ । तो मेरे को कोई कष्ट न आये,मैं सुख में रहूं ऐसी अभिलाषा करना बिल्कुल बेकार है,क्योंकि ये अपने अधीन नहीं है,ये सब बातें आयेंगी । अपनी ऐसी भावना रहे कि हे प्रभो मुझ में ऐसा ज्ञान प्रकाश रहे कि मैं अपने ज्ञान को बड़ी सावधानी से सम्हाले रहूं । कितनी ही व्याधियां आयें पर मैं उन्हें समता से सहलूं । क्या है वे सब बाह्यपरिणतियां है । तो मैं सब स्थितियों में धीर रह सकूं यह अभिलाषा करना तो ठीक है पर यह अभिलाषा करना ठीक नहीं कि मेरे को कष्ट न आये । अरे यह संसार तो कष्टों से ही भरा हुआ है । सबको ये कष्ट भोगने पड़ते हैं । हां यह बात है कि जो ज्ञानीजन हैं वे इन कष्टों को समता से झेलते है और जो अज्ञानीजन है वे उन दुःखों से घबड़ाकर निरंतर बेचैन रहा करते है ऐसी उनकी स्थिति होती है । तो यह शोक नाम का परिग्रह जहाँ लगा है वो तपस्वी नहीं कहला सकते । (10) दसवां परिग्रह है जुगुप्सा―बाह्य पदार्थों को देखकर उनके प्रति ग्लानि होना,बुरा लगना यह जुगुप्सा परिग्रह है । इसमें यह भी बात शामिल है कि दूसरों का पुण्योदय है सो वे भली प्रकार रह रहे हैं,अब उनको सुखी देखकर खुद को सुहाये नहीं तो यह जुगुप्सा परिग्रह कहलाता है । जिसके जुगुप्सा है उसके गुरुपना कैसे संभव हो सकता है ।
क्रोध मान माया लोभ परिग्रह की स्वभावविघातकता―(11) ग्यारहवां अंतरंग परिग्रह है क्रोध । रोष का परिणाम होना,गुस्सा का परिणाम होना यह क्रोध परिग्रह हैं कितने ही लोग तो इस क्रोध भाव को अपनाये रहते हैं । मानलो किसी प्रतिकूल घटना को देखकर क्रोध आ गया तो उस क्रोध को कम नहीं करना चाहते बल्कि कम होने लगे तो और भी क्रोध की बढ़ाना चाहते,इसलिए कि कहीं क्रोध कम हो गया तो फिर मैं इससे बदला कैसे चुका सकूंगा? तो भला बताओ जो क्रोध में लीन हैं वे तपश्चरण कैसे कर सकते हैं? (12) बारहवां अंतरंग परिग्रह है मानपरिग्रह याने घमंड होना । घमंड का जीतना बड़ा कठिन है और खासकर मनुष्यों में मानकषाय की प्रधानता है । यद्यपि घमंड चारों गतियों के जीवों में होता किंतु विशिष्ट घमंड मनुष्यगति में कहा गया है । नरकगति में क्रोध मुख्य है,तिर्यंच गति में माया मुख्य है,देवगति में लोभ मुख्य है और मनुष्यगति में मान मुख्य है । देखिये कैसी विचित्र बात है कि इन देवों को जरूरत कुछ नहीं है धन की,क्योंकि उन्हें खाने पीने आदि के कोई रोग नहीं सताते,फिर भी तृष्णावश वे निरंतर धन वैभव के पीछे दुःखी रहा करते हैं,ऐसे ही मनुष्यभव में देख लो मान कषाय की आदत बनी रहती है । कोई अच्छी जाति का है,कुल अच्छा मिला है तो उसका ही घमंड हो जाता कि मैं अच्छे कुल का हूँ,बाकी ये सब लोग तो नीच कुल के हैं । अरे कल्याण चाहने वाले पुरुषों की तो सभी जीवों के अंदर ज्ञानस्वभाव को निरखना चाहिए । और पर्याय में जो कुछ उसकी त्रुटि हो रही है वह गौण हो जाती है,मुख्यता रहती है चैतन्य स्वभाव की दृष्टि रखने में । मैं उच्च कुल का हूँ,ये नीच कुल के ऐसी प्रधानता ज्ञानी पुरुष नहीं रखता,बल्कि कोई नीच कुल में जन्मा हो तो उस आत्मा के स्वभावपर दृष्टि रखकर यह विचारता कि यह तो है बेचारा स्वरूपदृष्टि से भगवत स्वरूप मगर कर्मोदय की विचित्रता देखिये कि आज यह इतनी नीच स्थिति में है अब भला बताओ जहाँ मान परिग्रह है वहाँ तपश्चरण कैसे किया जा सकता? किसी को मान लो बड़ा सुंदर रूप मिल गया तो वह अपनी सुंदरता का बड़ा अहंकार करता? अरे क्या है यह सुंदरता? जरा इस पतली चाम के अंदर की चीजों का तो ध्यान करो,खून,मांस,मज्जा आदि महा अपवित्र चीजें हैं,इस रूप सौंदर्य का क्या घमंड करना? ऐसी हीं बात सब प्रकार के घमंडों के प्रति समझो । तो जहाँ मान कषाय है वह तपस्वी कैसे? (13) तेरहवां अंतरंग परिग्रह है माया परिग्रह । जरा-जरासी बात में मायाचारी करना यह माया परिग्रह है । मायाचारी पुरुष तपस्वी कैसे कहा जा सकता? उसका तो चित्त ठिकाने ही न रहेगा । (14) चौदहवां अंतरंग परिग्रह है लोभ परिग्रह । लोभ लालच तृष्णा का होना तो इस जीव के महा पतन का कारण है,निरंतर बाह्यदृष्टि रहा करती है । ऐसी बाह्यदृष्टि रहने पर तपश्चरण कैसे किया जा सकता । अत: जहाँ लोभ परिग्रह लगा है उसे तपस्वी नहीं कहा जा सकता । जो स्वयं रागीद्वेषी है मोही है मलिन है वह गुरु कैसे हो सकता?
गुरु की विषयातीतता निरारंभता व अपरिग्रहता का पुन: स्मरण―गुरु का स्वरूप कहा जा रहा है जिसका अपर नाम है तपस्वी । जिनके अंतरंग और बहिरंग तप हो उन्हें तपस्वी कहते हैं । गुरु विषयों के वश नहीं रहते । जो विषयों के वश रहे वे दूसरों को विषय त्यागने का उपदेश कैसे दे सकते हैं,उनके उपदेश में प्रभाव न रहेगा । गुरु तपस्वी आरंभरहित होते हैं । जो भोजन पानी आजीविका आदिक किसी भी प्रकार का आरंभ करे तो वह खुद बुरे कार्यों में लग रहा,फिर वह दूसरों को पापकार्य छोड़ने का क्या उपदेश कर सकेगा? तो गुरु अपरिग्रही होते हैं । परिग्रह 24 प्रकार के कहे गए थे जिनमें अंतरंग परिग्रह तो 14 हैं और बहिरंग परिग्रह 10 हैं । इन परिग्रहों में पहले क्या छोड़ना चाहिए,पीछे क्या छोड़ा जायगा इसका कोई नियम नहीं है । अथवा प्राय: नियम है तो बाह्य परिग्रह के छोड़ने का पहले नियम है,अंतरंग परिग्रह उसकेछूटता है जिसके बाह्य परिग्रह न रहा हो । फिर भी अंतरंग परिग्रह में जिसकी हीनता होगी तथा भावना में अंतरंग परिग्रह से विविक्त अंतस्तत्त्व को प्राप्त कर लिया है । वह बाह्य परिग्रह को छोड़ सकेगा । जैसे चावल में दो मैल होते हैं―एक तो ऊपर का धान का छिलका और दूसरा―चावल पर स्वयं जो प्राकृतिक पालिस सी रहती है वह तो अब बतलाओ कि चावल का अंतरंग मल तो है पालिस और बहिरंगमल है छिलका । तो पहले उसका बहिरंग छिलका छुटाते हैं बहिरंगमल? बहिरंग छिलका । तो जिनका बहिरंगमल याने बाह्य परिग्रह नहीं छूटा उसका अंतरंग परिग्रह नहीं छूट सकता ।
निष्परिग्रह होने के उपायप्रक्रम का क्रम―जिनको बाहरी परिग्रह नहीं छोड़ता है वे इस तरह की बात को प्रधानता से कहेंगे कि क्या है,अपना अंतरंग भाव शुद्ध होना चाहिए बाहर की बात अपने आप हो जायगी । अरे ऐसा कहते-कहते सारी जिंदगी गुजर जाती पर बहिरंग मल नहीं छूट पाता तो फिर वैसा कहने का क्या अर्थ रहा? जो विधि है जैन सिद्धांत में वह इस प्रकार है कि पहले यह जीव तत्त्वज्ञान करे । तत्त्वज्ञान का अभ्यास करने से इसका अंतरंग परिग्रह मंद होगा । अंतरंग परिग्रह मंद होने पर इसकी भावना बनेगी बहिरंग परिग्रह के त्याग की । और उसी समय या उसके बाद अंतरंग परिग्रह छूट जाता है । बाह्य परिग्रह रखे रहें और कहें कि मेरा अंतरंग परिग्रह तो छूटा हुआ ही है तो उनकी यह बात मानने योग्य नहीं है । इसी सिद्धांत पर सवस्त्र मुनियों का निर्माण हुआ है,वस्त्र भी पहने रहें और अपने को मुनि भी कहते रहें । जिन संप्रदायों में वस्त्र धारियों को मुनि कहते हैं उनका यह ही तो तर्क था कि हमारे अंतरंग परिग्रह नहीं है यह बहिरंग परिग्रह ऊपर पड़ा हुआ है । अरे पड़ा हुआ क्या है? जब वस्त्र रखते तो उनके धरने उठाने खरीदने आदि के अनेक विकल्प चलते तो बताओ कहां छूटा अंतरंग परिग्रह? सो अंतरंग परिग्रह मंद हुए बिना बाह्य परिग्रह नहीं छूटता और बाह्य परिग्रह छोड़े बिना अंतरंग परिग्रह का मूल से सफाया नहीं होता । और अंतरंग परिग्रह का वर्णन हो चुका है,अब बाह्यपरिग्रह बतलाते हैं ।
तपस्वी की बाह्यपरिग्रहरहितता―बाह्य परिग्रह 10 प्रकार के हैं―खेत,मकान,चाँदी,सोना,धन,धान्य,दासी,दास,कपड़े और बर्तन । जो भी परिग्रह के नाम छूटे हों उनकी समानता जानकर इन ही में गर्भित कर लेना । कोई संन्यासी खेत रख रहा है और कहता है कि यह दूसरों के उपकार के लिए खेत रख रहे हैं,इसमें वृक्ष तैयार करते हैं,सींचते हैं,दूसरे लोग खाते है । उनको सुख पहुंचता है ऐसी दलील दिया करते हैं मगर खुद की बात तो देखो कि मोक्ष चाहिए या संसार में रहना चाहिए? यदि मोक्ष चाहिए तो वीतराग भाव का आदर होना चाहिए ।
वीतराग भाव के आदर में दूसरे जीवोंपर दया होगी तो उसके स्वरूप को निरखकर कि इस स्वरूप का विकास हो इस विधि वाली दया होगी । जो साधु मार्ग में चल रहे हैं उनकी दया की विधि और हैं,जो संसारमार्ग में लग रहे हैं उनकी दया की विधि और है । तो जिसके पास खेतादिक का परिग्रह है उसके सन्यास न कहलायेगा । ऐसे ही यह मकान परिग्रह,मकान बनता हो,रहता हो किसी रूप में,यह मेरा है ऐसा स्वीकार करते हो तो इस भाव के रहते हुए वह अपरिग्रह नहीं कहला सकता । ऐसे ही सोना,चाँदी,रकम,गाय,भैंस,अनाज,नौकर,नौकरानी,वस्त्र और बर्तन आदि सभी की बात समझ लेना चाहिए । अनेक संप्रदायों में साधु समाज में वस्त्र और बर्तन रखने वाले बहुत मिलेंगे । भले ही दूसरों पर छाप रखने के लिए उसमें भी भेष बना रखा,सफेद-सफेद ही वस्त्र पहनेंगे,एक मुद्रा बना रखी कि दूसरों पर थोड़ा असर तो रहे,जो गृहस्थों जैसे कोई धारीदार पहने,कोई किनारीदार,कोई लाल,कोई पीले,कोई किस ही तरह के,यों नाना तरह की बात होने से प्रजाजनों पर उनका पूरा प्रभाव नहीं पड़ता सो उन्होंने तय कर रखा है कि सफेद-सफेद ही वस्त्र पहनेंगे,किसीने तय कर लिया कि लाल-लाल ही वस्त्र पहनेंगे,किसने तय किया कि पीले-पीले ही वस्त्र पहनेंगे किसीने तय किया कि गेरुवे रंग के ही वस्त्र पहनेंगे । भोली-भाली जनता इस बाहरी भेष को देखकर समझ लेगी कि अरे ये तो साधु महाराज हैं । पर यहाँ कह रहे कि ऐसा वस्त्र परिग्रह जिसके हो वह साधु मुनि मोक्षमार्गी नहीं कहला सकता । मुनि वह है जिसका ध्यान आत्मा के प्रति रहा करे,और बाह्य वातावरण भी ऐसा हो कि जिसमें ध्यान से विचलित न हो सके । ऐसे ही बर्तन परिग्रह रखने वाले साधु अनेकों संप्रदायों में मिलेंगे । सो उसकी भी पोल ढाकने के लिए उनका नाम उपकरण रख लिया है । और लोगोंपर कैसे प्रभाव पड़े तो किसीने काठ काठ के ही बर्तन रखे,किसीने किस ही प्रकार के रखे । तो बर्तनों का और वस्त्रों का रखना बहुत से संप्रदायों के साधुवों में मिलता है,मगर वस्त्र क्या,बर्तन क्या,अन्न क्या,इन परिग्रहों से जो युक्त है उसके साधुता नहीं कहला सकती ।
सर्वसाधारण साधुवों का सर्वसाधारण एक चिन्ह―साधु का एक मुख्य चिन्ह तो यह होगा उसके पैर में जूते न होंगे,यह एक मुख्य चिन्ह समझिये जिसे देखकर आजकल के लोग झट समझ लेते कि यह साधु है । यह एक साधारणरूप की बात कह रहे हैं । इस संबंध में कि कदाचित मानलो कि वस्त्र भी पहने हों किसी संप्रदाय के साधुने तो उन्हें साधु मान लिया पर जो जूते पहिनकर चलते हों उनके तो जरा भी साधुपना नहीं है । उसका कारण क्या है सो आपके अनुभव बतायेंगे । जूते पहिनकर चलने वाले की करतूत बतायेगी एक तो जमीन देखकर चलने का काम वहाँ नहीं रहता,क्योंकि पैर में कुछ लगने का डर ही नहीं है । दूसरी बात वहाँ कुछ न कुछ अहंकार का ढंग बन जायगा । वहाँ जीव दया पालने का रंच भी भाव नहीं रहता,यदि जीव दया का भाव होता तो जूते ही क्यों पहनते,जमीन में नीचे देखकर चलते,नंगे पैर चलते । तो एक मुख्य चिन्ह है बाहर से एक जनरल साधुवों में भी यह जानने के लिए कि इनका हृदय विरक्त है अथवा नहीं,तो उसकी यह मोटी निशानी है कि उसके पैरमें जूते न मिलेंगे । तो यहाँ समीचीन पद्धति से कह रहे हैं कि किसी भी प्रकार का बाह्य परिग्रह गुरुजनों के नहीं होता । यदि कोई तपस्वी साधु बड़ी तपस्या करके भी,बाह्य संयम की प्रवृत्ति रखकर भी उसका चित्त अगर अंतरंग बहिरंग परिग्रह से मलिन है तो उसका अकेलापन नहीं कहला सकता ।
सुगुरु की ज्ञानध्यानतपोरक्तता―चौथा विशेषण गुरु का इसमें दिया है कि वह ज्ञान,ध्यान और तप में लीन रहता है यही उनका रात दिन का व्यवसाय है । ज्ञान में लीन होने के मायने स्वाध्याय आदिक करना,पढ़ना धर्मवार्ता करना और ध्यान में लीन होने के मायने जो ज्ञान किया,जिस अंतस्तत्त्व का बोध किया उसका मनन करना,एक ही जगह उपयोग रमाना और तपश्चरण का मतलब अंतरंग और बहिरंग तप का करना,अब दूसरी विधि से अर्थ देखिये―ज्ञान का अर्थ है केवल ज्ञाताद्रष्टा रहना,ज्ञान में कोई तरंग लहर विकार मल न आने देना,ऐसा केवल ज्ञाता मात्र रहना सो उनका है ज्ञान,वह है ज्ञान में लीन और ध्यान और तप का वही अर्थ है जो पहली विधि में कहा । अब इस द्वितीय विधि में यह क्रम बनेगा कि गुरु को,साधु को मुख्यतया ज्ञान में लीन रहना चाहिए अर्थात् ज्ञाता मात्र रहना चाहिए । विकार,तरंग,विचार,तर्क,इष्ट,अनिष्ट इन विकृतियों से हटकर केवल जाननहार रहना इसे कहते हैं ज्ञानलीनता । तो सबसे ऊंचा काम है ज्ञानलीनता । अब यदि इस ज्ञान में लीन न रह सके,ज्ञानमात्र वृत्ति बना सके तब दूसरा काम है ध्यान करना अर्थात् ज्ञान उत्कृष्ट है ध्यान उससे नीचा है ध्यान से ऊंची चीज ज्ञान है यह दूसरी विधि में बतला रहे हैं और इस ज्ञान का अर्थ केवल जानकारी भर नहीं,किंतु रागद्वेष न होकर केवल शुद्ध जाननहार रहना,ऐसे ज्ञान में लीन न हो सके तो ध्यान में लीन हो । ध्यान में लीन होने का अर्थ है कि किसी भी एक विषयपर,अंतस्तत्त्वपर,द्रव्य गुण आदिक पर उपयोग लगाया,मनन किया तो उस ही ओर एकाग्रमनन चलना ध्यान कहलाता है । ध्यान भी एकसा नहीं चल सकता है,उसकी बदल होती है मगर उस विषय की बदल न करें जिस विषय को ध्यान में लिया है तो कुछ बदल भी होती रहे तो भी वह ध्यान कहलाता है । तो देखिये मुख्य बात है ज्ञान में लीन रहना । ज्ञान में लीन न रह सके तो ध्यान में लीन रहना और ध्यान में भी लीन न रह सके तो तपश्चरण करना,देखिये अंतरंग वृत्ति का क्रम । तपश्चरण में तो नानाविधता है अनेक प्रकार की बात है । ज्ञान ध्यान में जिसकी लीनता नहीं है तो वह तपश्चरण करके अपने को पापभाव से बचाता है । तो यों जो पुरुष ज्ञानध्यान तप में लीन हो वह गुरु कहलाता है । ऐसा तपस्वी प्रशंसनीय है । यहाँ प्रकरण चल रहा था कि देव,आगम और गुरु इनका श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है । इसी से ही संबंधित है आत्मस्वरूप सो आत्मस्वरूप का श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है । तो उस सम्यग्दर्शन में क्या-क्या विशेषतायें होती हैं अर्थात् जिनजीवों के सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है उनमें मौलिक बात क्या आ जाती है उसका वर्णन करेंगे और वे 8 प्रकारों में बतायेंगे जिन्हें कहेंगे 8 अंग । उन 8 अंगों में से प्रथम अंग का वर्णन करते हैं ।