वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 12
From जैनकोष
एएहिं लक्खणेहिं य लक्खिंजइ अज्जवेहि भावेहिं ।
जीवो आराहंतो जिणसम्मत्तं अमोहेण ।।12।।
(39) सम्यग्दृष्टि का परिचय कराने वाले चिह्नों का वर्णन―जिन जीवों को वीतराग देव की श्रद्धा है और उसके अनुसार जिसको सम्यक्त्व की आराधना है सो ऐसे मिथ्यात्वरहित सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे लक्षण वाले हैं, किन चिन्हों से यह समझाया जाये कि ये सम्यग्दृष्टि जीव हैं, उसका कुछ वर्णन किया जा रहा है । यद्यपि सम्यक्त्व की साक्षात् सही पहिचान होना छद्मस्थों को कठिन है या जिसके परमावधि ज्ञान है, सर्वावधि ज्ञान है, वह अनुमानत सही ज्ञान कर लेता है । जैसे सम्यक्त्वघातक 7 प्रकृतियां नहीं हैं तो यह बात अवधिज्ञान में झलक जाती है । मगर परमावधि सर्वावधि ज्ञान में ही झलकता है देशावधि ज्ञान में नहीं । तो उन 7 प्रकृतियों के अभाव को समझकर उसके सम्यक्त्व हैं, यह ज्ञान होता है वे भी सम्यक्त्व का सीधा ज्ञान नहीं कर पाते । जैसे धुवां देखकर कोई अग्नि का ज्ञान करे तो कोई अग्नि का साक्षात् ज्ञान नहीं किया, किंतु साधन से साध्य का अनुमान किया । ऐसे ही विशिष्ट अवधि ज्ञानी जीव 7 प्रकृतियों के उपशम क्षय क्षयोपशम जैसी दशा देखकर अनुमान करता है कि हो सम्यक्त्व है बाकी और जीव जो छद्मस्थ हैं, चिह्नों से पहिचान तो गए हैं, पर वहाँ पूरा नियमरूप पहिचान नहीं हो पायी, क्योंकि ढली कपटी भी इस पहिचान को अपनी प्रवृत्ति में ला सकते हैं, मगर उसमें भी यदि सूक्ष्मता से अगर निरख बनायी जाये तो यह समझ में आता है कि यह वास्तविक बात है और यहाँ कृत्रिम बात हैं तो वे लक्षण कौन-कौन है, उनका वर्णन इसमें है ।
(40) सम्यग्दृष्टि का परिचायक चिन्ह वात्सल्य, विनयभाव और अनुकंपा―सम्यग्दृष्टि की पहली पहिचान है वात्सल्यभाव । यदि वह सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है तो उसका धर्मात्मा के प्रति वात्सल्य अवश्य होगा । जिसे धर्मात्मा के प्रति वात्सल्य नहीं है वह चाहे ज्ञान की कितना ही बातें करे । लेकिन वहाँ सम्यक्त्व नहीं है । सम्यक्त्व का और अवात्सल्य का विरोध है । जैसे तत्काल की प्रसूत गाय बछड़े से प्रीति करती है उस गाय को बछड़े से क्या मतलब उससे कोई गाय का पेट नहीं भरता, गाय को कोई आराम नहीं मिलता मगर गाय को निष्कपट अपने बछड़े से प्रीति होती है ऐसे ही धर्मात्मा पुरुषों से निष्कपट प्रीति हो तो यह वात्सल्य चिन्ह है । तो इस वात्सल्य को देख करके सम्यग्दृष्टिपने का परिचय मिलता है । दूसरा लक्षण है विनय जो सम्यक्त्वादिक गुणा से सहित है उसके नस परिणाम होते हैं । जो भी गुणों से अधिक हो, गुणी पुरुष हो उसका विनय सत्कार सम्यग्दृष्टि पुरुष करता है । तो गुणियों का साधुवों का, वृत्तियों का, ज्ञानियों का सत्कार जो हृदय से करता है उससे यह परिचय होता कि इसके चित्त में धर्मवासना है और यह ज्ञानी पुरुष है । तीसरा लक्षण है अनुकंपा । दुःखी पुरुषों को देखकर करुणाभावरूप अनुकंपा जीव में है वह अनुकंपा कैसे समझी जाये? तो उस पुरुष में जो सामर्थ्य है उस सामर्थ्य से दान में दक्ष होता है । दुखियों को देखकर कोई मुख से जीभ हिलाकर पछतावा करे और समर्थ होकर भी उसके लिए कुछ खर्च न कर सके तो वहाँ दया कहां कहलायी? जिसमें जो सामर्थ्य है वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार तन, मन, धन वचन से सेवा करता है और उससे पहिचान होती है कि इसके दयाभाव है और जिस को दुःखी प्राणियों को देखकर दयाभाव उमड़े उससे अनुमान होता है कि इसकी दृष्टि सही है, यह ज्ञानी पुरुष है ।
(41) सम्यग्दृष्टि का परिचायक चिह्न मार्ग गुणप्रशंसा, उपगूहन व स्थितिकरण―चौथा लक्षण है कि मोक्षमार्ग की प्रशंसा करने वाला हो, सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव के जो भी वचन निकलते हैं वे मोक्षमार्ग, आत्मतत्त्व परमात्मस्वरूप, संयमाचरण अदिक मोक्षमार्ग की प्रशंसा करने बाले ही शब्द निकलते हैं । जो मोक्षमार्ग की प्रशंसा न करता हो तो समझिये कि उसको मोक्षमार्ग की श्रद्धा दृढ़ नहीं है । जिसको मोक्षमार्ग की श्रद्धा दृढ़ है वह उसके गुण गाता है, लोगों को भी बताता है कि संभार के संकटों से छूटना हे तो इस मोक्षमार्ग को ग्रहण करो । इसके बिना जन्म मरण के संकट छूट नहीं सकते । 5 वां चिन्ह है सम्यदृष्टि जीव का कि उसमें उपगूहनभाव रहे । उपगूहन कहते हैं कर्मोदयवश किसी धर्मात्मा पुरुष के कोई दोष लगे तो उस दोष को जनता में सूचित न करना और धर्म की अवज्ञा न होने देना ग्रह उपगूहन अंग है । ज्ञानी विवेकी पुरुषों की क्रियायें अलौकिक होती हैं, उनका भाव उदार होता है । वे कषाय के वशीभूत नहीं होते, इस कारण उनका चारित्र ऊँचा हीं होता है । ता उपगूहन की वृत्ति देखकर सम्यक्त्व का परिचय होता है कि इसके सम्यक्त्व है । यह जानी हे । छठा चिन्ह है स्थितिकरण । कोई धर्मात्मा पुरुष मार्ग से चिग जाये तो उसको धर्ममार्ग में स्थित करने का प्रयास करना स्थितिकरण है । ज्ञानी सम्यग्दृष्टि अपने आपके धर्मस्वभाव में स्थित रहना चाहता है और ऐसा ही दूसरे धर्मात्मा पुरुषों के प्रति चाहता है । कदाचित स्वयं धर्म से चिग जाये तो ऐसी भावना रखेगा कि जिससे फिर धर्म में स्थिरता हो । दूसरा भी अगर धर्म से चिगे तो उसका कारण जानेगा कि कौनसा कारण है कि जो इसका भाव कुछ शिथिल हुआ है । उन कारणों को दूर कराता हुआ और वचनों से सही धर्म की याद दिलाता हआ दूसरों को धर्म में स्थिर करता है । ये सब चिन्ह सम्यग्दृष्टि के परिचय के बताये जा रहे हैं, ऐसे और भी चिन्ह हो सकते हैं ।
(42) सम्यग्दृष्टि के लक्षणों की यथार्थता का मूल आर्जवभाव―यह चिन्ह सही है, इसका साधन आर्जवभाव है । कोई पुरुष अगर निष्कपट है और ये चिन्ह पाये जाते हैं तो उसका परिचय होता है । और निष्कपट पुरुष के ही वास्तविक ये चिन्ह होते हैं । तो जो निष्कपट हैं उनके इन लक्षणों के द्वारा सम्यक्त्व का परिचय होता है । सो ऐसे जीव मोहरहित होकर इस सम्यक्त्व की आराधना करते हैं । सम्यक्त्व की आराधना का अर्थ है कि अपने अविकारस्वरूप चैतन्यप्रकाश को अपना सर्वस्व मानता है और उस ही में रत होकर तृप्त रहना चाहता है, सो ऐसा जीव सम्यक्त्व की आराधना करता है । सम्यक्त्वभाव मिथ्यात्वकर्म के भाव से प्रकट होता है । सो यह सम्यक्त्वभाव सूक्ष्म भाव है, छद्मस्थ के ज्ञानगोचर नहीं है । जो सम्यक्त्वाकार में साक्षात् जान सके, पर सम्यग्दृष्टि के ये बाह्य चिन्ह हैं जिनसे सम्यग्दृष्टि का परिचय होता है, और परिचय का एक कारण यह भी है कि एक सम्यग्दृष्टि के यह भाव जगे तो ऐसा ही भाव जब दूसरे में दिखता है तो सम्यक्त्व का परिचय हो जाता है । जैसे किसी ने कोई वस्तु खाना हो और उसका स्वाद वह भली प्रकार जानता हो तो दूसरे के लिए भी अनुमान बनता है कि इसको इसका ऐसा-ऐसा ही स्वाद आता है । ज्ञानी पुरुष ने स्वयं अविकार चैतन्य स्वरूप का अनुभव किया है, उसका अलौकिक आनंद पाया है तो दूसरे सम्यग्दृष्टि जीव में भी इस धर्मविकास का अनुमान बन जाता है । अज्ञानी पुरुष ज्ञानी के भावों का परिचय नहीं पा सकता । ज्ञानी पुरुष ज्ञानभाव का परिचय पाता है, क्योंकि जिसके भी ज्ञान जगता है उसके सम्यक्त्वघातक प्रकृतियाँ दूर होती हैं, उन सबके एक ही समान स्वच्छता का आगम उदित होता है । ऐसे स्वच्छ अभिप्राय वाले ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वाचरण करते हैं और उसके प्रताप से, उसके अभ्यास से वे संयमाचरण में प्रवेश करते हैं ।