वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 26
From जैनकोष
सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं ।
तइपं च अतिहिपुंजं चउत्थ सल्लेहणा अंते ।।26।।
सागार संयमाचरण में 12 व्रत बताये गए है जिनमें 5 अणुव्रत और 3 गुणव्रतों का वर्णन हो चुका । अब इस गाथा में 4 शिक्षाव्रतों का वर्णन किया जा रहा है । शिक्षाव्रत 4 हैं―(1) सामायिक, (2) प्रोषध (3) अतिथिपूजा और अंत में (4) सल्लेखना । शिक्षाव्रत का अर्थ है कि ऐसा व्रत जिसमें मुनिधर्म धारण करने की शिक्षा मिले । कुछ प्रयोग करके ऐसा समझे कि मुनि अवस्था में यह करना होता है, ऐसे व्रतों का नाम है शिक्षाव्रत । सामायिक का अर्थ है रागद्वेष का त्याग करना, गृहस्थारंभ का त्याग करना, एकांत स्थान में बैठकर दोपहर और शाम कुछ काल की मर्यादा लेकर अपने स्वरूप का चिंतवन करना, पंच परमेष्ठी की भक्ति करना, कोई स्तवन पाठ आदिक पढ़ना, बारह भावनायें भाना और परमविश्राम का पौरुष करना, जिससे आत्मा अपने आपके स्वरूप में ठहर सके, यह सब सामायिक है ।
प्रोषध का अर्थ है अष्टमी और चतुर्दशी के दिन कुछ प्रतिज्ञा लेकर उपवास की, अनुपवास की, धर्मकार्यों में प्रवृत्ति करते रहना इसका नाम है प्रोषध । मुनि अवस्था में रागद्वेष का त्याग कर समता पूर्वक रहना होता है सो जो श्रावक है, उपासक है वह मुनिधर्म की उपासना करता है कि मेरे मुनिव्रत होवे, संयमरूप प्रवृत्ति होवे ता वह इस सामायिक शिक्षाव्रत से मुनि व्रत की शिक्षा ग्रहण कर रहा । इसी तरह मुनिव्रत में एक बार भोजन करके रहना होता है । उपवास भी करना होता तो एक बार ही भोजन करके रहते और उपवास कर लेते, ऐसी शिक्षा पाने के लिए यह प्रोषध शिक्षाव्रत है, जिसमें उत्कृष्ट विधि है यह कि सप्तमी नवमी को केवल एक बार भोजन करना दूसरी बार कुछ भी न लेना और अष्टमी को उपवास रखना और मध्यम प्रोषध यह है कि सप्तमी और नवमी को एक बार आहार लेना, शाम को कुछ न लेना, किंतु अष्टमी को गर्म जल ने लेना और जघन्न प्रोषध में सप्तमी और नवमी को शाम को कुछ भी न लेना पर अष्टमी को एक बार कुछ रस परित्याग करके ले लेना । तो इसमें मुनि व्रत की शिक्षा मिली कि मुनिव्रत में एक बार ही आहार सदैव रहता है और बीच में उपवास भी रहता है । तीसरा शिक्षाव्रत है अतिथिपूजा । अतिथि नाम है साधुवों का जिनकी कोई तिथि निश्चित नहीं है कि कब दर्शन हो, कब आ जायें । पहले समय में उन साधुवों के आने के प्रोग्राम निश्चित नहीं हुआ करते थे और न पंपलेट में खबर आती थी कि अमुक दिन आ रहे और अमुक समय में अमुक जगह मिलेंगे ऐसा कुछ न था, तब ही उनका नाम अतिथि सार्थक है । और अगर आजकल की भाँति पंपलेट में अपना सारा प्रोग्राम देकर आयें तो उन्हें अतिथि न कहेंगे, वे तो सतिथि हो गए । मुनि होते हैं विरक्त परिणामी, जिनका कोई वायदा नहीं होता लौकिक कार्यों के लिए, वायदा भी कैसे करें ? वायदा किया और अप्रमत्त दशा हुई, अपने आपके ध्यान में लग गए, वायदा भूल गए । उनका तो केवल आत्मा का वायदा रहता है । वे अपने आत्मस्वरूप को नहीं भूलते बाकी बाहरी बातों का वायदा इस कारण नहीं करते कि लौकिक बात मन से निकल जायेगी । तो वे हैं अतिथि साधु । उनका सरकार, पूजा भक्ति, आहारदान, सेवा ये सब अतिथिसेवा कहलाती है । सो व्रतप्रतिमा धारियों का यह प्रतिदिन का कर्तव्य हैं कि कोई अतिथि मिले तो उनकी हर प्रकार से सत्कार, सेवा, वैयावृत्ति आदिक करना ।
चौथा शिक्षाव्रत है अंत में सल्लेखना धारण करना । बारह व्रतों का या इन 11 व्रतों का पालन निर्दोष किया और जब अंत समय आया तो वहाँ मृत्युमहोत्सव मनाना, खेद न करना और काय कषाय को कृष करते हुए अपने आत्मा के स्वभाव की आराधना रखते हुए इस शरीर को छोड़कर जाना, यह कहलाता है अंत समय में सल्लेखना का धारण करना । इन दोनों व्रतों से भी मुनिपद में रहने को कुछ शिक्षा मिलती है । अतिथिपूजा से तो यह जानना है कि इम तरह से आहार लिया जाता है, आहार देकर आहार लेना समझे । यद्यपि केवल इस प्रयोजन के लिए ही अतिथिपूजा नहीं है यह तो स्वभाव के अनुराग का फल है, पर उसके साथ-साथ मुनिव्रत के लिए भी शिक्षा मिल जाती है और सल्लेखनाव्रत से अंतिम सल्लेखना के भाव में यह ध्यान में रहता है कि यह सल्लेखना अर्थात् कषायों को मिटाकर रहना और आत्मा के स्व भाव में दृष्टि होना यह तो सदा होना चाहिए । एक आहार आदिक का त्याग तो अंत में किया जाता है । कषायों का कृष करने का कार्य तो सदा करना चाहिए । ये 4 शिक्षाव्रत बताये गए । अब यहाँं एक बात समझने की है कि अनेक ग्रंथों में शिक्षाव्रत में सल्लेखना नहीं दी है । किंतु सल्लेखना अलग से बतायी गई है । कर्तव्य तो वह भी है, मगर बारह व्रतों से अलग उसका निर्देश किया है । और इसके बजाये भोगोपभोग परिमाणव्रत कहा है । जिसको कि इस ग्रंथ में गुणव्रत में गर्भित किया है । तो ऐसा दो प्रकार का लेख होने से कोई विरुद्ध बात नहीं आती । बात तो वही करने की सब है जो अन्य जगह भी बताया है । बारह व्रत और सल्लेखना, सो ये 13 बातें यहाँ भी बतायी गई हैं । यहाँ इस क्रम से बताया है कि देशव्रत को दिग्व्रत में ही गर्भित कर दिया, सिर्फ काल का फर्क है, दिग्व्रत तो आजीवन है और देशव्रत कुछ समय की अवधिपूर्वक है, पर आने-आने का परिमाण दोनों में है । तो देशव्रत के तो दिग्व्रत में गर्भित किया और बजाये उसके भोगोपभोग परिमाण दिग्व्रत में ले लिया । तो यहाँ शिक्षाव्रत में अंत काल में सल्लेखना ग्रहण कर लिया । तो इस प्रकार ये चार शिक्षाव्रत बताये गए हैं सो ये बारह व्रत श्रावक के संयमाचरण में बताये गए ।