वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 8
From जैनकोष
तं चेव गुणविसुद्धं जिण सम्मत्त मुमुक्खठाणाय ।
जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ।।8।।
(36) सम्यक्त्वाचरणचारित्र का परिचय―चारित्र के भेष का विस्तार बताते हुए यह बात कही गई थी कि चारित्र मूल में दो प्रकार का है―(1) सम्यक्त्वाचरण और (2) संयमाचरण । सर्वप्रथम सम्यक्त्वाचरण होता हे । कभी किसी बिरले जीव के संयमाचरण और सम्यक्त्वाचरण एक साथ भी संभव हैं । जैसे किसी मिथ्यादृष्टि जीव को एकदम ही सप्तम गुणस्थान का लाभ हो तो वहाँ एक सम्यक्त्व बनता और संयम बना, ये दोनों ही बातें एक साथ हुई, ऐसे भी जीव होते हैं, पर बहुतायत का क्रम यह है कि सम्यग्दर्शन होता है, पश्चात् संयम रूप प्रवृत्ति करता है । तो प्रथम जो सम्यक्त्वाचरण चारित्र है उसका स्वरूप इस गाथा में कहा जा रहा है, फिर भी दृढ़ता के लिए वह जिनेंद्रदेव के शासन में कहा हुआ सम्यक्त्व जिनदेव की श्रद्धा से विशुद्ध है, नि:शंकित आदिक गुणों से विशुद्ध हे । उनके यथार्थ ज्ञान सहित जो आचरण होता है सो सम्यक्त्वाचरण चारित्र है । यह मोक्षस्थान के लिए हुआ करता है । मोक्ष कहलाता है अपने कैवल्यस्वरूप का विकास । यह विकास तब ही संभव है जब कि केवल सत्त्व से अपने आपके स्वरूप का निर्णय हों । तो सर्वज्ञभाषित तत्त्वार्थ श्रद्धान से जिसका आचरण विशुद्ध है, निःशंकता आदिक गुणों से विशुद्ध है, जहाँ सम्यक्त्व के 25 दोष नहीं हैं, ऐसी ज्ञानी की जो वृत्ति होती है उसे सम्यक्त्वाचरण कहते हैं । सम्यक्त्वाचरण मुक्ति लाभ का पहला कदम है । इसी कारण मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन को पहले बताया है, यह सम्यग्दर्शन मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है, ऐसे सम्यक्त्वाचरण को अंगीकार करके संयमाचरण चारित्र को अंगीकार करके संयमाचरण चारित्र को प्राप्त होता है उसका शोध निर्वाण होता है ऐसा अब अगली गाथा में कहते हैं ।