वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 26
From जैनकोष
वध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात्।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिंतयेत्।।26।।
ममत्व व निर्ममत्व बंध व मोक्ष का कारण―यह जीव ममता परिणाम से सहित होता हुआ कर्मों से बंध जाता है और ममतारहित होता हुआ कर्मोंसे छूट जाता है, इस कारण सर्वप्रकार से प्रयत्न करके अपने आपके निर्ममत्वरूप का चिंतन करना चाहिए। इस श्लोक में बंधने और छूटने का विधान बताया गया है। जो पुरुष ममत्व परिणाम रखता है, जो वस्तु अपनी नहीं है, अपने आपके स्वरूप को छोड़कर अन्य जितने भी पदार्थ है वे सभी अपने नहीं है, उनको जो अपना मानता है वह कर्मों से बंध जाता है। परपदार्थों को अपना मानना यह तो है बंध का कारण, और परपदार्थों में ममत्व न होना यह है मोक्ष का कारण। इस कारण संसार संकटो से मुक्ति चाहने वाले पुरुषों को सर्व तरह से तन, मन, धन, वचन सर्व कुछ न्यौछावर करके, संन्यास करके अपने आपको ममतारहित चिंतन करना चाहिए।
ममत्वभारवाही―भैया! यह जीव निरंतर दुःखी रहा करना है। इसका सुख भी दुःख है और दुःख तो दुःख है ही। इन समस्त क्लेशों का कारण है अपने आपको किसी न किसी परिणमन रूप अनुभवन करते रहना। जो यह मन में सोचेगा कि मैं इसका बाप हूं, अमुक हूं तो इस चिंतन के कारण बाप के नाते से अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं का क्षोभ होगा, खेद होगा, उसका बोझ इसी को ही ढोना पड़ेगा, कोई दूसरा नहीं ढो सकता।
दृष्टांत द्वारा ममत्व के भार का प्रदर्शन―एक साधु था, वह जंगल में तपस्या कर रहा था। वहाँ अचानक कोई राजा पहुँच गया, कहा― महाराज ! इस प्रकार की गर्मी के दिनों मे इतना बड़ा कष्ट क्यों सह रहे हो? पैर में जूते नहीं है, छतरी भी नहीं है, बदन भी नंगा है, क्यों इतनी गर्मी ज्येष्ठ के दिनों में सह रहे हो? महाराज और कुछ नहीं तो हम आपको एक छतरी देते हैं सो छतरी लगाकर चला करना। साधु बोला―बहुत अच्छी बात है, ऊपर की धूप तो छाते से मिट जायगी, पर नीचे जो पृथ्वी की गर्मी है उसका क्या इलाज करें ? तो राजा बोला―महाराज आपको बढ़िया रेशम के जूते पहुँचा देंगे। साधु ने कहा―अच्छा यह भी समस्या हल हो गयी। किंतु नंगा बदन है, लू लगती है, इसका क्या इलाज करे? राजा ने कहा महाराज कपड़े बनवा देंगे साधु ने कहा कि आपने यह तो बहुत आराम की बात कही, पर जब जूता भी पहिन लिया, छाता भी मिल गया कपड़े भी पहिन लिये तो फिर तिष्ठ-तिष्ठ कौन कहेगा, कौन फिर पड़गाहेगा ? राजा ने कहा महाराज इसकी कुछ फिक्र न करो, आपके आहार के लिए चार पाँच गाँव लगा देंगे? उनकी आमदनी से आपका गुजारा चलेगा। ठीक है, पर खाना कौन बनावेगा ? तो महाराज आप की शादी करवा देंगे, स्त्री हो जायगी। साधु ने कहा कि यह तो ठीक है, पर स्त्री से बच्चा होंगे तो उनमें से कोई मरेगा भी। मरने पर कौन रोवेगा ? तो राजा बोला―महाराज और तो हम सब कर सकते हैं पर उन बच्चा-बच्ची के मरने पर रोना आपको ही पड़ेगा। क्योंकि जिसमें ममत्व होगा, वही तो रोवेगा, कोई दूसरा न रोने आयेगा। तो साधु बोला कि जिस छतरी के कारण मुझे रोने की भी नौबत आयगी ऐसी आपकी यह छतरी भी हमें न चाहिए। हमें तो अपने में ही चैन मानना है, हम तो अपने में ही शांति पा रहे हैं।
पर में आत्मीयता की बुद्धि का अंधेरा―भैया ! जो ममत्व करेगा वही प्रत्येक प्रकार से बंधेगा, जो ममत्वरहित होगा वह छूट जायेगा। सो समस्त प्रयत्न करके अपने आपको ममत्वरहित चिंतन करना चाहिए। परपदार्थों को मेरा है, मेरा है―ऐसा अंतरंग में विश्वास रहना यह घोर अंधकार है। अंधकार से यह जीव सुध भूल जाता है, अपनी और बहिर्मुख दृष्टि बनाकर संसार में भ्रमण करता है। मोही जीव किन-किन पदार्थों को अपना समझ रहा है ? स्त्री, पुत्र, धन-वैभव, राज्य, अनाज, पशु, गाय, बैल, भैंस, घोड़ा, मोटर साइकिल, कोट, कमीज, न जाने किन-किन वस्तुओं को यह मोही जीव अपनाता है। लोकव्यवहार के कारण कोई मेरा-मेरा कहता है, इतने पर तो कुछ नुकसान नहीं है किंतु यह तो उनमें ऐसी आत्मीयता की बुद्धि करे है कि उनका बिगाड़ होने पर अपना बिगाड़ मानता है।
तृष्णा के संस्कार का परिणमन―इस संसार के रोगी को तृष्णा ऐसी लगी है कि ये प्राणी पाये हुए समागम का भी सुख नहीं भोग सकते। और तो बात जाने दो, भोजन भी कर रहे हैं तो सुख से भोजन नहीं कर सकते। तृष्णा अगले कौर की लगी है, इसलिए जो ग्रास मुख में है उसको भी यह सुख से नहीं भोग पाता है, ऐसे ही इस धन संपदा की बात है। तृष्णा ऐसी लगी है कि और धन आ जाय, इसके चिंतन से वर्तमान में प्राप्त समागम को भी यह जीव सुख से नहीं भोग पाता है। मान लो जितना धन आज है उसका चौथाई ही रहता तो क्या गुजारा न चलता ? या मनुष्य ही न होते, पशुपक्षी, कीड़ा मकोड़ा, होते तो क्या हो नहीं सकते थे ? यदि पशु पक्षी होते तो कैसा क्लेश में समय गुजारा ? कहीं वृक्ष होते तो खड़े-खड़े रहकर ही फिर सारा समय गुजारते फिरते। किंतु उन समस्त दुर्गतियों से निकल भी आये हैं तो भी वर्तमान समागम नहीं होता है। अरे क्यों नहीं धर्मपालन के लिए अपना जीवन समझा जाता है ? जब यह जीव मोहवश अज्ञान भाव से अपने में ममकार और अहंकार करता है तब इन कषायों की प्रवृति के कारण इस मिथ्या आशय के होने के कारण शुभ अशुभ कर्मों का बंध होने लगता है।
एक दृष्टांत द्वारा स्नेह से कर्मबंध होने का समर्थन―कर्मों का बंधन परिणामों के माध्यम से होता है, बाह्य वातावरण से नहीं। जैसे कोई पुरुष किसी धूल भरे अखाड़ेमें लंगोट कसकर तेल लगाकर हाथ में तलवार लेकर केला बांस आदि पर बड़ी तेजी से तलवार से प्रहार करता है तो वह धूल से लथपथ हो जाता है। वहाँ धूल के चिपकने को क्या कारण है? तो कोई कहेगा कि वाह सीधी सी तो बात है―धूल भरे अखाड़े में वह कूद गया तो धूल नहीं चिपकेगी तो और क्या होगा? लेकिन कोई दूसरा पुरुष उस ही प्रकार लंगोट कसकर हाथ में तलवार लेकर उन बाँस केलों पर ही तेजी से प्रहार करे, किंतु तेल भर नहीं लगाया है, उस पुरुष के तो घुल चिपकती हुई नहीं देखी जाती है। इस कारण तुम्हारा यह कहना अनुचित है कि धूल भरे अखाड़े में गया इसलिए धूल बँधी। तो दूसरा कोई बोला कि भाई हथियार हाथ में लिया इसलिए धूल बँध गयी। तो दूसरे पुरुष ने भी तो तलवार हाथ में लिया, पर उसके तो धूल चिपकी हुई नहीं देखी जाती है, इसलिए हथियार का लेना भी धूल के चिपकने का कारण नहीं है। तो तीसरा कोई बोला कि उसने शस्त्र को केलों पर, बाँसों पर प्रहार किया इस कारण धूल बँधी। तो उस दूसरे पुरुष ने भी तो केलों पर, बासों पर शस्त्र से प्रहार किया, पर उसके तो धूल चिपकी हुई नहीं देखी जाती। अरे उस पुरुष ने तेल लगाया है इसलिए उसका शरीर धूल से लथपथ हो गया है और दूसरे ने तेल नहीं लगाया है इस कारण वह धूल से लथपथ नहीं हुआ है। क्रियायें सब जानते हैं कि शरीर में स्नेह लगा है स्नेह नाम तेल का है, चिकनाई लगी है उस कारण उसे धूल का बंध हो गया है।
कर्मव्याप्त लोक निवास कर्म बंध का अकारण―संसारी प्राणियों की भी अपने अध्यवसान के कारण दुर्दशा है। ये संसारी प्राणी इस शरीर से मन, वचन, काय की क्रियाएं करके और इन क्रियाओं के द्वारा जीवघात करके कर्मों से लिप रहे हैं,ऐसी स्थिति में कोई कारण पूछे कि यह जीव कर्म से क्यों लिप गया है ? तो कोई एक उत्तर देता है कि कर्मों से भरा हुआ लोक है ना, वह तब कर्म न बाँधे तो क्या होगा? लेकिन यह बात नहीं है। यह बताओ कि इस समय सिद्ध भगवान कहाँ विराजे है? इस लोक के भीतर या लोग के बाहर या लोक के अंत में है? लोक के बाहर केवल आकाश ही आकाश है, न वहाँ जीव है, न पुद्गल है न धर्म अधर्म है, न काल है। इस लोक में सर्वत्र कार्माणवर्गणायें बसी हुई है, जहाँ सिद्ध जीव विराजे है वहाँ पर भी ठसाठस अनंत कार्माणवर्गणाएँ है और केवल कार्माणवर्गणा ही नहीं, वहाँ अनंत निगोदिया जीव भी है, जो निगोदिया जीव इस जगत के निगोदियों की तरह ही दुःखी है, एक स्वास में 18 बार जन्म और मरण करते हैं उन निगोदियों में और सिद्ध भगवान की जगह में रहने वाले सूक्ष्म निगोदियों में दुःख का कोई अंतर नहीं है, वे लोक में दुःखी है व सिद्ध वहाँ सुखी है। इसलिए लोकबंधन का कारण नहीं है अथवा मुक्ति का कारण नहीं है।
मन वचन काय का परिस्पंद कर्मबंध का अकारण―तब दूसरा कोई बोला कि वहां ये जीव मन, वचन काय की चेष्टाएँ करते हैं उससे बंध होता है तो जरा यह बतलाओ कि जो चार घातिया कर्मों का नाश करके अरहंत हुए है उन अरहंतों के क्या वचनवर्गणायें नहीं निकलती? दिव्य ध्वनि जो खिरती है उन अरहंत भगवान के क्या शरीर कीचेष्टाएँ नहीं होती? वे भी विहार करते हैं,उनके शरीर में जो द्रव्यमन रचा हुआ है क्या उस द्रव्यमन में कोई क्रिया नहीं होती ? होती ही है। उनके भी मनोयोग, वचनयोग और काययोग तीन योग पाये जाते हैं,वे सयोग केवली कहलाते हैं। अभी उनके तीनों योग है। दो मनोयोग है दो वचन योग है―औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, कार्माणकाययोग। ये तीन काय योग है, यो 7 योग माने गये हैं सयोगकेवली के। मन, वचन, कायकी चेष्टा उनके भी हो रही है, पर क्या कर्मबंधन है? नहीं । इनके मन, वचन, काय की चेष्टा से कर्मबंधन नहीं होता। अतः मन, वचन, काय की चेष्टा कर्मबंध का कारण नहीं है।
परमार्थतः परबंध बंध का अकारण―तब तीसरा बोला कि वाह इनके चलने फिरने से अथवा अन्य प्रकार से जीवों का घात होता रहता है तब इन्हें कर्मबंध कैसे नहीं होता? अच्छा बतलाओ कि जो साधु हो गए है, महाव्रत का जो-जो पालन करते हैं,समितिपूर्वक गमन करते हैं ऐसे साधु संत अच्छे काम के लिए अच्छे भाव सहित दिन में चार हाथ आगे जमीन देखकर ईर्या समिति से जा रहे हो और अचानक कोई कुंथु जीव पैरों के नीचे आकर दबकर मर जाय तो क्या उन साधुओं के भी कर्म बंध होता है? परिणाम ही नहीं है उनका क्रूर कैसे बंधे कर्म? तो यह भी बात तुम्हारी युक्त नहीं है।
कर्मबंध का कारण―कर्मबंध का करने वाला केवल स्नेह भाव है। उपयोग में जो राग बस रहा है, मोह राग द्वेष चल रहा है यह ही कर्मबंधन का कारण है । जो जीव रागद्वेष विभावों के साथ अपना एकीकरण करता है, राग करता है, यह मैं ऐसा ही हूं, राग से भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप मेरा है ऐसा जो नहीं मान सकता है ऐसे पुरुष के बंधन होता है। इस ही को ममत्व सहित पुरुष कहा गया है।
पर्यायव्यामोही के सकल विश्व के मोह का संस्कार―जो अपने शरीर में ’यह मैं हूँ’ ऐसा अहंकार रखता है, ममकार रखता है उसने सर्वविश्व का अहंकार और ममकार किया है। यद्यपि इस मोही जीव के पास किसी के 50 हजार की विभूति हो, लाख की हो, कुछ सारा जगत का वैभव तो नहीं है। तो क्या उसे केवल 50 हजार में ही ममता है या लाख में ही ममता है ? इस अज्ञानी जीव को सारे विश्व में ममता है। न हो पास इसके और योग्यता भी विशाल न होने से अन्य विभावों की कल्पना भी न उठती हो तिस पर भी उसकी वासना में तीन लोक के वैभव के प्रति आत्मीयता बसी है अन्यथा उसके सामने रख दो और वैभव, क्या वह मना कर देगा कि अब मुझे न चाहिए? उसकी तृष्णा शांत नहीं हो सकती। मोह में सारे विश्व के प्रति ममता का परिणाम बसा हुआ है और इस कारण उसे समस्त जगत का बंधन लग रहा है।
अध्यवसान में कर्मबंध की निरंतरता―भैया ! पदार्थों में इष्ट अनिष्ट कल्पनाएँ होने से रागद्वेष का अस्तित्व आत्मा में अपना स्थान जमा लेता है और फिर यह उपयोग उन विभाव भावो के कारण विकृत हो जाता है, सर्व प्रकार से पर में तन्मय हो जाता है उस समय रागद्वेष परिणामरूप यह अध्यवसान भाव ही बंध का कारण होता है। जो पुरुष यह मेरा यह दूसरे का है, इसका मैं मालिक हूं इसका दूसरा मालिक है―ऐसी रागबुद्धि बसाये, परमर्षि कहते हैं उनके शुभ अशुभ कर्म बँधते ही रहते हैं। कर्मबंधन के लिए निमित्त चाहिए रागादिक भाव, उसके लिए हाथ कैसे चल रहे हैं यह निमित्त नहीं है, पैर कैसे उठ रहे हैं यह निमित्त नहीं है। पूजा भी करता हो कोई और परिणामों में विषयों के साधनों की बात बसी हो अथवा किसी पुरुष के प्रति बैर भाव बसा हो तो पाप का बंध हो जायगा। कर्म इस बात से नहीं अटकते हैं कि मंदिर में खड़े है तो हम इनके न बँधे, ये भगवान के समक्ष खड़े है इनके न बँधे, ऐसी अटक कर्मों में नहीं है। कर्मों के बंधन का निमित्त तो रागद्वेष मोह अध्यवसान भाव है, वह हुआ तो कर्म बँध गया। चाहे वह तीर्थ क्षेत्र में हो, चाहे मंदिर स्थान में हो, चाहे वह साधुओं के संग में समक्ष में बैठा हो।
ममतारहित शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप की उपासना का अभिनंदन―जिन पुरुषों के वैराग्य और ज्ञान का परिणमन चल रहा है उनके कर्म नहीं बँधते हैं,किंतु अनेक कर्म निर्जरा को प्राप्त होते हे क्योंकि उनके चित्त में शुद्ध कारण समयसार विराजमान है। वे चाहे किसी घर में खड़े हो, चाहे किन्ही वस्तुवों में गुजर रहे हो, किन्ही भी बाह्य परिस्थितियों में हो, जिन जीवों के रागद्वेषादिक भावों में अपनायत नहीं है, जो अपने सहजशुद्ध चैतन्यस्वरूप की उपासना करते हैं उन पुरुषों के कर्म नहीं बँध सकते। कर्मों का बंधन अहंकार और ममकार परिणाम के कारण होता है। यह मैं हूं, यह मैं हूं, जो हर जगह में मैं-मैं बगराता है, हर जगह ममता करता है उसको कर्म बंधन तो होगा ही। रेल की सफर में जा रहे हो और किसी मुसाफिर से थोड़ा स्नेह हो जाय, थोडे़ वचनव्यवहार से तो इतने में ही बंधन हो जाता है। जब वियोग होता है, किसी एक के उतरने का स्टेशन आ जाता है तो उसमें कुछ थोड़ा ख्याल तो जरूर आ जाता है। समस्त संकटो का मूल स्नेह भाव है। इस स्नेह में जो रंगा पँगा है वह बँध जाता है, और जो रागादिक भावो से भी न्यारा अपने आपको निरखता है, अपने को शुद्धअकिंचन देखता है, मात्र ज्ञानानंदस्वरूप प्रतीति में लेता हे वह कर्मों से छूट जाता है। इस कारण मुक्ति चाहने वाले पुरुष को अपने को ममता रहित अपने शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप को निरखना चाहिए।