वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 33
From जैनकोष
गुरुपदेशादभ्यासात्संवित्तै: स्वपरांतरम्।
जानाति यः स जानाति मोक्ष सौख्यं निरंतरम्।।33।।
ज्ञानार्जन के उपायों में दिग्दर्शन―जो जीव गुरुओं के उपदेश से अथवा शास्त्र के अभ्यास से अथवा स्वात्मत्व के अनुभव से स्वपर के भेद को जानता है वही पुरुष मोक्ष के सुख को जानता है। यहां तत्त्वज्ञान के अर्जन के उपाय तीन बताये गए है। पहिला उपाय है गुरु का उपदेश पाना, दूसरा उपाय है शास्त्रों का अभ्यास करना और तीसरा उपाय है स्वयं मनन करके भेदविज्ञान अथवा स्वसम्वेदन करना। इन तीन उपायों में उत्तरोत्तर उपाय बडे है। सबसे उत्कृष्ट उपाय स्वसम्वेदन है। मोक्ष सुख के अनुभव करने के उपायो में सर्वोत्कृष्ट उपाय स्वसम्वेदन है। उसके निकट का उपाय है शास्त्राभ्यास और सर्व प्रथम उपाय है गुरुजनों का उपदेश पाना।
गुरुस्वरूप का निर्देशन―गुरु वे होते हैं जो बाह्य और आभ्यंतर परिग्रहों से विरक्त रहते हैं। बाह्य परिग्रह है 10 । खेत, मकान, अन्न आदि धान्य, रुपया रकम, सोना चाँदी, दासी, दास, बर्तन और कपड़े। इन दसों में सब आ गए और अंतरंग परिग्रह है 14, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ और 9 प्रकार की नो कषायें। इन 14 परिग्रहों के और 10 परिग्रहों के जो त्यागी होते हैं उन्हें गुरु कहते हैं। गुरु आत्मतत्त्व का कितना अधिक रूचिया है कि जिसके सिवाय एक स्वानुभव की वांछा के अन्य कुछ वांछा नही है। वे ज्ञानध्यान तपस्या में ही निरत रहते हैं।
तप, ध्यान व ज्ञान में परस्परता―ज्ञान, ध्यान और तप में सबसे ऊँचा काम है ज्ञान। ज्ञान न रह सके तो दूसरा काम है ध्यान और ध्यान भी न बन सके तब तीसरा काम है तप। यहाँ ज्ञान से मतलब साधारण जानकारी नही है किंतु रागद्वेषरहित होकर केवल ज्ञाताद्रष्टा रहना इस स्थिति को ज्ञान कहते हैं, यह ज्ञान सर्वोत्कृष्ट शांति का मार्ग है। जब कोई पुरुष केवल ज्ञाताद्रष्टा नही रह सकता तो उसके लिए दूसरा उपाय कहा गया है ध्यान। ध्यान में चित एकाग्र हो जाता है और उस एकाग्रता के समय में धर्म की और एकाग्रता के काल में इसका विषयकषायों में उपयोग नही रह पाता, इस कारण यह ध्यान भी साधु का द्वितीय काम है और तपस्या भी साधुओं का काम है।
बाह्य तपों में अनशन, ऊनोदर व वृत्तिपरिसंख्यान का निर्देश―तपों में बाह्य तप 6 है―अनशन करना, भूख से कम खाना और अपनी अंतरायों की परीक्षा करने के लिए कर्मों से मैं कितना भरा हुआ हूं, इसकी परीक्षा करने के लिए नाना प्रकार के नियम लेकर उठना। पुराणों में आया है कि एक साधु ने ऐसा नियम लिया था कि कोई बैल अपनी सींग में गुड़ की भेली छेदे हुए दिख जाय तो आहार करूँगा। अब बतलाओ कहाँ बैल और कहाँ गुड़ और सींग में भेली दिखे, किसी समय दिख जाय यह कितना कठिन नियम लिया था? कितने ही दिनों तक उनका उपवास चलता रहा। आखिर किसी दिन कोई बैल किसी बनिया की दूकान के सामने से निकला, उस बैल ने गुड़ की भेली खाने को मुंह दिया, उस बनिया ने उस बैल को भगाना चाहा तो ऐसी जल्दबाजी के मारे बैल की सींग में भेली छिद गयी। जब वह बैल सामने से निकला तो मुनि महाराज की प्रतिज्ञा पूरी हुई और आहार लिया। यह संबंध अपने आपके भीतर से है, लोकदिखावे के लिए नही कि हम 10 जगह से लौटकर आयेंगे, लोगों में भगदड़ मचेगी और आपस में चर्चा चलेगी कि महाराज की आज विधि नही मिली, क्या इनकी विधि है, यह तो बड़ा भारी तप कर रहे हैं। साधु कभी अपने अंतराय की परीक्षा करना चाहें तो करते हैं। समाज के बीच ही रहते हुए कौन सा कार्य ऐसा खिर गया है जिससे परीक्षा करने की मन में ठानी कि हम परीक्षा करेंगे अंतराय की। यह बहुत दुर्धर तप है। इसका अधिकारी एकांतवासी बनवासी बड़ा तपस्वी हो वह हुआ करता है।
रस परित्याग, विविक्त शय्यासन व कायक्लेश तप का निर्देश व तपों की आदेयता―रस परित्याग―एक दो रस छोड़ना―सब रस छोड़ना, रस छोड़कर भोजन करना रस परित्याग तप है। एकांत स्थान में सोना, उठाना, बैठना, रहना यही विविक्त शय्यासन है, और गर्मी में गर्मी के तप, शीत में शीत के तप और वर्ष काल में वृक्षों के नीचे खड़े होकर ध्यान लगाने का तप, और-और प्रकार के अनेक काय क्लेश हो, इन बाह्य तपों को ये साधुजन किया करते हैं। तपस्या में उपयोग रहने से विषयकषायों से चित हट जाता है और अपने आपके आत्मा के शोधन का उपयोग चलता है, इससे यह तप भी साधुओं को करने योग्य है। यों ज्ञान ध्यान तपस्या में निरत साधुजनों का उपदेश पाकर यह जीव अपने आप में निर्मलता उत्पन्न करता है, स्वपर का भेदविज्ञान होता है।
शांति की साधना―शांति के लिए लोग अन्य-अन्य बड़ा श्रम करते हैं। वह श्रम ऐसा श्रम है कि जितना श्रम करते जावो उतना ही फंसते जावो, अशांत होते जावो। जिसके पास किसी समय 100) की भी पूंजी न थी और वह आज लखपति हो गया तो उसकी चर्या को देख लो―क्या शांति उसने पा ली है ? बल्कि कुछ अशांति में वृद्धि ही मिलेगी। जितना अधिक धन अपने पास है उतनी ही चिंता उसकी रक्षा की बढ़ती जाती है। मैं धनी हूं, मैं संपदावान हूँ, मैं इज्जत वाला हूं―ये सब बातें अज्ञानी जनों के बढ़ती जाती है। तब अशांति बढ़ी या शांति हुई ? वस्तुतः संपदा न अशांति करती है और व शांति करती है। यह तो अपने-अपने ज्ञान की बात है। भरत चक्रवर्ती 6 खंड की विभूति को पाकर अशांत न रहते थे और दिगंबर दीक्षा धारण करने के पश्चात् अंतर्मुहूर्त में ही उनके केवलज्ञान हो गया था। उन्होंने गृहस्थावस्था में बड़ी आत्मभावना की थी। घर में रहते हुए भी वैरागी का दृष्टांत भरत का ही प्रसिद्ध है।
भेदविज्ञान से मोक्ष सौख्य का परिचय―साधु संतों के उपदेश से जो आत्मा और पर का भेदविज्ञान होता है वह आत्मस्वरूप को जानता है और मुक्ति में क्या सुख है, उस सुख को भी पहिचानता है। मुक्ति मायने है छुटकारा मिल जाना। द्रव्यकर्म, शरीर, रागादिक भाव इन सबसे छुटकारा मिलने का नाम है मुक्ति। इनसे छूटे रहने का मेरा स्वभाव है। यह जब तक अनुभव में न आए तब तक वह छुटकारे का क्या उपाय करेगा? यह मैं आत्मा चैतन्यस्वरूप हूं और मुझसे भिन्न ये समस्त जड़ पदार्थ है, वे मेरे कभी नही हो सकते। जब तक यों भेदविज्ञान नही होता तब तक आत्मा की पहिचान भी नही होती। चित्त तो लगा है बाहरी और, आत्मा की सुध कौन ले। और ऐसे प्राणी जो मूढ़ है, बहिर्मुख है, धन के लोलुपी है वे अपनी दृष्टि के अनुसार ही जगत में सबको यों देखेंगे कि सभी मोही है, अधर्मी है। पापी पुरुष ऐसा जानते हैं कि सभी ऐसा किया करते हैं क्योंकि उनके उपयोग में जो बसा हुआ है उसका ही दर्शन होगा।
शास्त्राभ्यास की महती आवश्यकता―दूसरा उपाय बताया गया है शास्त्राभ्यास का। शास्त्र का अभ्यास भी सिलसिलेवार ठीक ढंग से पढ़े बिना नही हो सकता। लोग घर के काम, दूकान के काम तो कैसा सिलसिले से करते हैं कपड़े का काम अथवा सोना चांदी का काम करेंगे तो उस अलमारी में अच्छी तरह रखेंगे, हर काम तो सिलसिले से करते हैं पर धर्म का कार्य ठीक ढंग से सिलसिले से नही करते हैं। शास्त्र पढ़ना हो तो कोई भी शास्त्र उठा लिए और उसकी दो लकीर देख ली, देखकर धर दिया और चल दिया। अगर चार-छः महिलाओं के शास्त्र का नियम हो तो वे सब एक शास्त्र उठा लेंगी जिसमें खुले पन्ने होते हैं तो उस शास्त्र के पन्ने फिर क्रम से न रह पायेंगेक्योंकि एक महिला एक कागज उठायेगी दूसरी उस पर दूसरा कागज धरेगी। किसी-किसी जगह तो इसी के लिए एक शास्त्र रिजर्व रहता है। तो इस तरह का शास्त्र का पढ़ना कुछ भी लाभ नही दें सकता है। संसारी काम से भी बढ़ करके सिलसिला चाहिए शास्त्राभ्यास के लिए। पहिले किन्ही गुरुओं से पढ़ना, क्रमपूर्वक पढ़ना, उसको कुछ अभ्यास में लेना और उसके बाद सिलसिले से उसे पढ़ना। यह शास्त्र का अभ्यास बढ़ाना बहुत काम है। इसमें समय देना चाहिए आजीविका के काम से ज्यादा।
सांसारिक लाभ की उदयानुरूपता―भैया ! आजीविका का काम आपके हाथ पैर की मेहनत से नही बनता, वह तो उदयाधीन है, जैसा उदय हो उस पुण्य के माफिक प्राप्ति होती है। आप 10 घंटे बैठें तो और दो घंटे बैठें तो, जो उदय में है वही समागम होता है। अगर लोग नियमितता जान जाये कि ये इतने बजे दूकान खोलते हैं,तो वे ग्राहक उतने ही समय में काम निकाल लेंगे। एक बजाज के ऐसा नियम है कि 500 का कपड़ा बिक जाने पर फिर दूकान बंद कर दें और अपने नियम पर वह बड़ा दृढ़ रहता है, सो उसकी दूकान के खुलनेका जो टाइम है उससे पहिले ही अनेक ग्राहक बैठे रहते हैं,यदि इसका 500 का कपड़ा बिक गया तो फिर हमें कुछ न मिलेगा। 500 का कपड़ा घंटा डेढ़ घंटा में ही बिक जाता है और अपनी दूकान वह बंद कर देता है।
अनुकूल उदयमें सुगम लाभ―भैया ! लाभ की बात उतनी ही है। जैसे पहिले कभी बाजार की छुट्टी न चलती थी और आजकल बाजार की छुट्टी चल रही है, तो बाजार की छुट्टी हो जाने से व्यापार में हानि नही हुई। अगर कुछ हानि है तो वह और कारणों से हे ऐसे ही समय भी नियत हो गया। 10 घंटा दूकान खुलेगी, 8-9 बजे रात को बंद हो जायगी। गर्मी के दिनों में मान लो 8 बजे खुलने का टाइम हो गया, 12 घंटे दूकान चलें, पहिले कुछ समय नियत भी न था। जितने समय तक चाहें उसमें जुटे रहे, तो समय की बंदिश से भी प्राप्ति में हानि नही हुई। तो यदि कोई एक भी व्यक्ति दृढ़ रहकर अपना हित करने के लिए समय निकाले तो उसका उतने ही समय में काम निकल सकता है। यह भी बहुत बड़ी आफत लगी है कि न स्वाध्याय सुन पाते हैं,न कभी धर्म का काम कर पाते हैं। चिंता ही चिंता रोजगार संबंधी लगी है, उसी में ही प्रवृत्ति लगी रहती है। पर धन पाया और धर्म न पाया तो कुछ भी न पाया। जो पाया है वह तो मिट जायगा, किंतु जो धर्मसंस्कार बन जायगा, जो ज्ञानप्रकाश होगा वह तो न मिटेगा, इस जीवको आनंद ही बरसायेगा।
धर्मलाभ ही अपूर्व लाभ―भैया ! शास्त्राभ्यास में बहुत समय दो और श्रम भी करो, और व्यय भी करना पड़े तो होने दो, यदि अपने आपका ज्ञान हो जायगा तो समझो उसने सब कुछ निधि पा ली। तन, मन, धन, वचन सब कुछ न्यौछावर करके भी यदि एक धर्मदृष्टि पायी, आत्मानुभव जगा तो उसने सब पाया। यह ही एक बात न हो सकी और केवल बहिर्मुखदृष्टि ही रही तो उसने क्या पाया ? जो पाया वह सब एक साथ मिट जायगा। लोग यह सोचते हैं कि हम मर जायेंगे, सारा धन यही रह जायगा तो वह अपने बालबच्चों के नाती पोतोंके ही तो काम आयगा। मगर मरकर वह जिस भी जगह पैदा होगा उसके लिए तो अब नाती बेटे कुछ भी नही रहे। न उन नाती पोतों के लिए वह कुछ रहा। भला यह तो बतावो कि आपके पूर्व जन्मका माता पिता कौन है, कहाँ है, कुछ भी तो याद नही है। वे चाहे जो सुख दुःख भोग रहे हों, पर अपने लिए तो वे कुछ नही है। इस कारण यह ममता की बात इस जीवको हितकारी नही है।
ज्ञानार्जन व ज्ञानदानकी सातिशय निधि―भैया ! जैसे अपने आपमें ज्ञानप्रकाश हो वह काम करने के योग्य है। शास्त्राभ्यासका उपाय प्रथम तो है गुरुमुख से अध्ययन करना, दूसरा है दूसरों को उपदेश देना। जो पुरुष दूसरों को विद्या सिखाता है उसकी विद्या दृढ़ हो जाती है। ज्ञानका खजाना एक अपूर्व खजाना है। धन वैभव यदि खर्च करो तो वह कम होता है पर ज्ञानका खजाना जितना खर्च करोगे उतना ही बढ़ता चला जायगा। तो दूसरों को पढ़ाना यह भी शास्त्राभ्यास का सुंदर उपाय है। ज्ञानार्जनका तीसरा उपाय है धर्म की चर्चा करे, जो विषय पढ़ा है उसका मनन करे, यों शास्त्राभ्याससे स्व और परका भेद विज्ञान करना चाहिए। तीसरा उपाय है स्वसम्वेदन। आत्मा अपने आपको जाने, अनुभव करे उसे स्वसम्वेदन कहते हैं। स्व है केवल ज्ञानानंद स्वरूपमात्र, उसका सम्वेदन होना, अनुभव होना यह भी ज्ञानका उपाय है। इन सब उपायों से ज्ञानका अर्जन करना चाहिए।
आत्मानुभूतिके आनंदसे मुक्तिके आनंदका परिचय―जो साधु संत ज्ञानी पुरुष आत्मा और परको परस्पर विपरीत जानता है और आत्मा के स्वरूप का अनुभव करता है उसमें जो इसे आनंद मिलेगा उस आनंद की प्राप्ति से यह जान जाता है कि मुक्ति में ऐसा सुख होता है। जब क्षणभरकी निराकुलतामें, शुद्ध ज्ञानप्रकाशमें उसे इसका आनंद मिला है तो फिर जिसके सब मूल कलंक दूर हो गए है, केवल ज्ञानानंदस्वरूप रह गया है। उन अरहंतसिद्ध भगवंतों को कैसा सुख होता होगा? वह अपूर्व है और उसकी पहिचान इस ज्ञानी को हुई है। कोई गरीब 4 पैसे का ही पेड़ा लेकर खाये और कोई सेठ एक रूपयेका एक सेर वही पेड़ा लेकर खाये पर स्वाद तो दोनों को एकसा ही आया, फर्क केवल इतना रहा कि वह गरीब छककर न खा सका, तरसता रहा, पर स्वाद तो वह वैसा ही जान गया। इसी तरह गृहस्थ ज्ञानी क्षणभर के आत्मस्वरूपके अनुभव में पहिचान जाता है―भगवंतों को किस प्रकार का आनंद है, भले ही वह छककर आनंद न लूट सके लेकिन जान जाता है । यों यह ज्ञानी पुरुष आत्मज्ञान से मुक्ति के सुख को निरंतर पहिचानता रहता है।