वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 35
From जैनकोष
महिलालोयणपुव्वरइसरणसंसत्तयसहिविकाहाहिं ।
पुट्टियरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि ।।35।।
(94) ब्रह्मचर्यमहाव्रत की प्रथम भवना महिलावलोकनत्याग―इस गाथा में ब्रह्मचर्य महाव्रत की 5 भावनायें कही गई हैं । पहली भावना है महिलावलोकनत्याग । स्त्री को रागभाव सहित रखना । यद्यपि शब्द में सिर्फ इतना ही है कि महिला का देखना, पर देखने मात्र से दोष नहीं है, क्योंकि साधु आहार भी लेते हैं तो क्या वे कुछ देखते भी नहीं कि कौन आहार दे रहा? अत्यंत वृद्ध स्त्रियों को अपने हाथ से आहार देने का निषेध है, अब उस स्त्री को देखता तो है वह साधु कि इसके हाथ से आहार लेना हमें योग्य है या नहीं, तो वह देखने में तो आयगी ही । देखने मात्र का यहाँ दोष नहीं है, किंतु रागभाव से देखने का त्याग होता है ब्रह्मचर्य महाव्रत में । जैसे गाय को चाहे कोई सुंदर स्त्री घास डाल दे चाहे असुंदर, तो वह गाय सुंदरता असुंदरता को नहीं देखती, उससे उसे कोई प्रयोजन नहीं । वह तो केवल अपने भोजन को (घास को) देखती है, ऐसे ही साधु जनों को चाहे कोई सुंदर स्त्री आहार दे चाहे असुंदर दे, उससे उन्हें कोई प्रयोजन नहीं, वे सुंदर असुंदर कुछ नहीं देखते, कोई स्त्री आहार दे या अन्य कोई, इस पर उनकी दृष्टि नहीं होती, इसी कारण साधु की भिक्षावृत्ति का नाम है गोचरी वृत्ति । गाय की तरह चर लेना याने जैसे गाय रूपादिक नहीं देखती और अपना भोजन मात्र खाती, ऐसे ही साधु भी कुछ रूपादिक नहीं देखते । तो महिला का रागभाव सहित अवलोकन करना, यह है दोष । और इसका त्याग हो तो वह ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना है ।
(95) ब्रह्मचर्य महाव्रत की द्वितीय भावना पूर्वरतभोगस्मरण त्याग―ब्रह्मचर्य महाव्रत की दूसरी भावना है पूर्वरतभोग के स्मरण का त्याग । साधु हो गया है और पहले घर में था, सपत्नीक था । वैराग्य हुआ गृहत्याग कर दिया तो अब पूर्व में भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करता, जिसको अपने आत्मतत्त्व में रमने की रुचि लग गई और इस ही को जिसने सार समझा, इसके लिए ही जिसका मन बना रहता है वहाँ गुंजाइश है कहां कि पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण करना । यह तो काम के अभिलाषी पुरुषों का काम है । साधु होने का अर्थ है कि केवल अविकार सहज ज्ञानस्वरूप परमब्रह्म में लीन होने की धुन रखना । तो इतनी पवित्र भावना जिनके रहा करती है उनके पूर्व में भोगे हुए भोगों के स्मरण का कोई अवसर नहीं होता । यदि कोई पूर्व में भोगे हुए भोगों का स्मरण करता है तो उसमें वेद के उदय को तीव्रता है तब तो उस तरफ ख्याल किया और ख्याल रख करके इस तरह का कुछ भाव भी बनाया गया तो यह सब दोष है । ब्रह्मचर्य महाव्रती पहले भोगे हुए भोग की याद नहीं करता । जैसे अनेक पुरुष पहले के पाये हुए आराम का अभिमानपूर्वक वर्णन करते हैं, कोई धनिक था और आज दरिद्र हो गया या उसके पुरुष धनिक थे और अब वह दरिद्र है तो वह अपने पुरुषों का नाम लेकर या अपनी पहली दशा बताकर लोगों में शान की बात कहना है-मैं ऐसा था, मैं ऐसा था । ब्रह्मचर्य महाव्रती को अपनी शान किसी को बताने को भी जरूरत नहीं है । किसमें वह अपनी शान बतायेगा? महाजनी पुरुष असंयमी जनों से संभाषण नहीं करते । कोई परिस्थिति ही आये तब संभाषण करते हैं । उनका संभाषण महाव्रतियों में होता है । तो वहाँ अगर पहले भोगे हुए भोगों की बात, शान वाली बात कहेगा तो उस की वहाँ निंदा होगी । अपने आप अपनी निंदा कराने वाली बात कोई नहीं बोलता तो ब्रह्मचर्य महाव्रती पुरुष पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करता ।
(96) बह्मचर्य महाव्रत में स्त्रीसंसक्तवसतिकात्यागनामक तृतीय भावना―ब्रह्मचर्य महाव्रत की तीसरी भावना है स्त्री से संसक्त बसतिका में बसने का त्याग । जहाँ स्त्री जन रहती हों उस कमरे में न रहना । स्त्री न भी रहे, चली भी जाये तो भी उस कमरे में न रहना यह ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना है, और साधारणतया जो गृहस्थ ब्रह्मचर्य व्रत ले चुका हो उसके लिए भी ऐसी बातें बतायी गई हैं कि उसके पहनने वाले कपड़ों को न छूना, जिस शय्या पर वह सोती हो उसे न छूना आदिक वहाँ भी बातें बतायी गई हैं । स्त्री जिस आसन पर बैठती हो उस आसन पर न बैठना, यद्यपि वह सूना आसन है फिर भी यदि विदित हो कि इस पर स्त्री बैठा करती है तो उस पर बैठने से उस विषयक कुछ स्मरण तो हो ही जायेगा । इतना भो स्मरण नहीं चाहता है ब्रह्मचर्य महाव्रत का धारी । तो जहाँ स्त्रीजन रहने हों ऐसी बसतिका में बसने का त्याग ब्रह्मचर्य महाव्रती साधु को होता है । एक कला जिसको आ गई उसके लिए ये सारी बातें निभना सरल है, अपना अविकार सहज ज्ञानस्वभाव जो सहज आनंदमय है, इस परमार्थ सत्य स्वरूप का जिसको भान हो गया है और इस भान के प्रताप में अलौकिक परम आनंद का अनुभव पाया है ऐसे आनंद को भोगने वाला पुरुष उन विकार और विकार साधनों में लगने का मन ही नहीं करता । धुन लगी है अविकार सहज स्वरूप की ओर । तो ब्रह्मचर्य महाव्रती ऐसी जगह नहीं बसता जहां स्त्री का संसर्ग हो और स्मरण आ सके । तो यह है ब्रह्मचर्य महाव्रती की तीसरी भावना ।
(97) परिग्रहत्यागमहाव्रत की चतुर्थभावना स्त्रीविकथात्याग―ब्रह्मचर्य महाव्रत की चौथी भावना है स्त्री की कथा करने का त्याग । जैसे अमुक जगह ऐसी स्त्री, अमुक स्त्री ऐसी और स्त्री-स्त्री शब्द बार-बार मुख पर आये, ऐसे भी बात बनती नहीं है । तो स्त्री की कथा करना विकथा कहलाती है । और विकथा मन को कुछ न कुछ उपद्रव में डालती है । स्त्री विधयक अच्छी भी कथा करना ब्रह्यचर्य महाव्रती को शोभा नहीं देता । हां समय पाकर कुछ बोल दे तो वह बात और है । जैसे कुछ स्त्रियां सती होतीं, शीलवती होती इस प्रकार बोल दिया, मगर अधिकतर स्त्रियों के संबंध में बोलते ही रहे तो इसका प्रयोजन क्या है? अपने अंतस्तत्त्व की साधना करना, यह महाव्रती मुनि का उद्देश्य है । यहाँ ध्येय यह है कि किसी भी स्त्री जाति का स्मरण तक न आये, उनको विकथाओं की बात तो दूर रहे । एक बार जिनसेनाचार्य के प्रति बहुत से लोंगों ने शक किया कि स्त्रियों के शृंंगार, रूप, सौंदर्यता का बहुत-बहुत वर्णन इन्होंने अपने शास्त्रों में किया तो वह आचार्यदेव महाव्रती कैसे? जो आदि पुराण, हरिवंश पुराण बनाया है उनमें स्त्री का जहाँ वर्णन आता । अमुक राजा की रानी थी, अब रानी का वर्णन चल रहा तो उसके अंग-अंग का वर्णन किया । तो वहाँ बहुत से लोगों ने शक किया कि कैसे इन जिनसेनाचार्यजी का ब्रह्मचर्य व्रत निर्दोष रहा? फिर उसकी कोई परीक्षा को तो उसमें वह रंच भी असफल न हुए । तो उनका दृष्टिकोण केवल पाठक लोगों को विदित हो जाये कि ऐसी-ऐसी भोग सामग्री हुआ करती हैं और जो पुरुष विरक्त होते हैं वे ऐसी सुंदर-सुंदर भोग सामग्रियों का त्याग कर देते हैं तो उनके अंदर कितना ज्ञान और वैराग्य बसा है । यह याद दिलाने के लिए भोग सामग्री का वर्णन किया जाता है । पर साधारणतया तो स्त्री संबंधी कथा विकथा तो करनी ही न चाहिए । यह है ब्रह्मचर्य महा दत की चौथी भावना ।
(98) ब्रह्मचर्यमहाव्रत की पंचम भावना पुष्टेष्टरसपरित्याग―5वीं भावना ब्रह्मचर्य महाव्रत की है पुष्टकारी अर्थ का सेवन करना । जो रस होता है, भस्म होती है, मेवा होती है । जो पुष्टकारी है और चित्त को मदायला करने का साधन है, ऐसे रसों का सेवन न करना । अब तो कितनी ही औषधियां इसके लिए बनती हैं कि जिनका सेवन करने से मनुष्यों में काम का वेग जागृत हो, ऐसी औषधियां कोई रस रूप होती हैं कोई भस्मरूप, उनका सेवन करने के त्याग की भावना ब्रह्मचर्य महाव्रती के होती है । शास्त्रों में जो रस परित्याग नामक तप कहा है उसका प्रयोजन क्या है कि अपनी इंद्रिय को शरीरों कृश करना । इसे उस ओर से निर्बल बनाना कि जिससे कामादिक भावनायें न उत्पन्न हों । इसीलिए रस परित्याग है । तो जो साधारण रस है उसका यहाँ परित्याग न करें तो जो खास कर कामवर्द्धन के लिए ही रस बनाये जाते हैं या भोजन में भी जो विशेष पुष्टकारी रस होते हैं उनका परित्याग करना और उनके त्याग की भावना रखना यह ब्रह्मचर्य महाव्रत की 5वीं भावना है । अब अपरिग्रह महाव्रत की भावना कहते हैं ।