वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 41
From जैनकोष
पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता ।
हुंति सिवालयवासी तिहुपणचूडामणी सिद्धा ।।41।।
(114) ज्ञानजल से विकारमलक्षालन―इस गाथा में एक दृष्टांत की निर्देशनापूर्वक यह बताया है कि ज्ञान में मोक्ष हो जाता है । ज्ञानरूपी जल को प्राप्त करके उस ज्ञानजल से अपने आत्मा का स्नान कराकर जिससे कि विकल्प रागादिक धूलिया कूड़ा कचड़ा दूर हो जाते हैं, इस तरह उस ज्ञानरूपी जल से अपने को स्नान कराकर जीर्ण शिवालय के निवासी हो जाते हैं, और वे तीन लोक के चूड़ामणि होते हैं । जैसे लोग क्या करते हैं कि अशुद्ध होकर सबसे निपट कर फिर जल से खूब नहाते हैं और नहाने के बाद अपने मकान में, अपने निवास स्थान में जाकर ठाठ से बैठकर संतोष अनुभव करते हैं । तो निकट भव्य आत्मा ज्ञानजल से नहाकर जिससे कि रागादिक मल धूल पसीना मैल ये सब दूर हो जायें, ऐसा स्नान कराकर फिर वे ऊँचे महल में मोक्ष महल में जाकर वहाँ सदा काल के लिए परम सहज अनंत आनंद भोगते हैं । इस प्रकार के कथन में यह दृष्टि दिलाई गई है कि जब तक अपने आत्मा को ज्ञानजल से स्नान न करा दे तब तक मोक्षमार्ग में गमन नहीं होता । ज्ञानजल से स्नान करने का अर्थ है कि अपने में सम्यग्ज्ञान का प्रकाश बढ़ाना, भरना । सम्यग्ज्ञान का प्रकाश वह है कि जहाँ सर्व पदार्थ अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता में है, यह दृष्टि में आता है ।
(115) कषायजागरण न होने का कारण वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान―ज्ञानी जीव को कषायें नहीं जगती, इसका कारण क्या है ? इसका कारण यह है कि उसकी दृष्टि में सब पदार्थ, प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में ही सत् है, यह ज्ञात हो रहा है । प्रत्येक परमाणु अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव में है । तो उसका किसी बाह्य पदार्थ से संबंध नहीं । किसी बात पर, पदार्थ पर मेरा अधिकार ही नहीं । मैं तो इन सबसे निराला केवल ज्ञानमात्र हूँ, यह उसकी दृष्टि में बसा है तो अब क्रोध किस बातपर आये? क्रोध आता है तब जब यह ज्ञान में हो कि मुझसे यह पदार्थ छीन लिया गया और इससे मेरे को सुख मिलता था आदिक कोई कल्पन जगे तो क्रोध उमड़ता है । और जहाँ यह बात ज्ञात है कि मैं आत्मा ज्ञानघन हूँ, ज्ञान से निरंतर परिणमता रहता हूँ, और यह ही मेरी दृष्टि में रहे, ऐसी स्थिति हो तो वह कहलाता है ज्ञानजल से नहाना । नहाने पर जैसे धूल, पसीना आदि नहीं चिपटते, ऐसे ही ज्ञानजल से नहाने पर शरीर, कर्म, विभाव ये नहीं चिपटते । सो ज्ञानी जन ज्ञानजल से अपने समस्त प्रदेशों को नहा डालते हैं । अब उन्हें घमंड किस बात पर आये? यहीं कुछ मेरा है नहीं । किसको यहाँ अपनी शान बतायें? यहाँ कोई ईश्वर तो हैं नहीं कि जो मेरे सुख दुःख में फर्क डाले । किसी पदार्थ से मेरा कुछ संबंध ही नहीं । ऐसा जानने से उनके मान कहाँ रह सकता । मायाचार भी ज्ञानी जनों में कहाँ से आये? मायाचार करने में भीतर में बड़ा कष्ट और परिश्रम उठाना पड़ता है । कुछ विचार ही करें इस बातपर कि ज्ञानी जन इन व्यर्थ की बातों में कठिन परिश्रम करेंगे क्यों? और कोई खुदगर्जी हो, इस संसार के पदार्थो में से किसी पदार्थ को ग्रहण करने, संग्रह करने की बुद्धि हो, जिसमें हित समझा हो तो उसे अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए कुछ मायाचार करना पड़ेगा, पर सर्व झंझटों से दूर हुए मुनिराज इस खोटी प्रवृत्ति को क्यों पसंद करेंगे? ज्ञानी जीव के माया कपट नहीं होता, और ज्ञानी में लोभ भी नहीं होता । किसी परवस्तु को अपनायें क्यों? किसका संचय बनाये कि मेरे आत्मा को सुख-शांति मिले? तो यथार्थ ज्ञान हो जाने पर चित्त में विकार नहीं ठहरते, और अविकार चैतन्यस्वरूप की भावना में उसके क्षण व्यतीत होते रहते हैं ।
(116) ज्ञानजल से विकारमल धोकर योगियों का शिवालयवास―यहां यह बतला रहे हैं कि पहले तो ज्ञानजल प्राप्त करें, नहाना तो बाद में होगा । पहले पानी तो भर ले, और फिर उस जल से खूब शरीर को मल-मलकर स्नान करें और ऐसा स्नान करें कि फिर मैल न रहे शरीर पर तो उससे शरीर हल्का होगा, फिर ठाठ से बदन पोंछकर खाट या तखत पर बैठकर एक अपने में बड़ा विश्रामसा अनुभव करते, समझते कि निपट गए, सब कामों से फुरसत पा गए, ऐसा ख्याल रखकर आराम करते, तो ज्ञानी पुरुष में भी ये ही सब विधियां चलती हैं । पहले श्रुतज्ञान का अभ्यास करके उस ज्ञानजल को इकट्ठा अपनी बुद्धि के पात्र में रख लिया । अब मजे से किसी भी समय में ज्ञानजल से अपने सर्व आत्मा को नहाता है । प्रत्येक गुण सिद्ध होते हैं, और मल-मलकर नहाता । कोई राग शेष रह गया हो तो भेद भावना करके ज्ञान-जल से उसे पोंछकर दूर कर हटा देता है । जब केवल एक ज्ञानमात्र ही रहता है, उस पर और कोई मैल नहीं है तो फिर उस ज्ञान को खूब अनुभव में लेकर एक परम संतोषयुक्त होकर अपने को निर्भार अनुभव करता है, उसके ऊपर से सारा बोझ हट गया । बोझ था वह जीव पर रागद्वेष का । जैसे शरीर पर बोझ होता है पसीना और धूल का ऐसे ही जीव पर बोझ होता है रागद्वेष का । तो जीव ने रागद्वेष धूल को मलमलकर दूर कर दिया, अब भाररहित होकर सर्ब कर्मों से दूर होकर मोक्षस्थान पर पहुंचता है, उस बड़े मकान में जहाँ अनंत सिद्ध बस रहे हैं, वहाँ जाकर यह अपने को निर्भार, पवित्र, आनंदमय अनुभवता है सो यों दर्शन, ज्ञान, चारित्र को जानकर योगी अपने में अनुभव कर शीघ्र निर्वाण को प्राप्त होता है ।