वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 43
From जैनकोष
चारित्तसमारूढो अप्पासु परं ण ईहए णाणी ।
पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो ।।43।।
(119) चारित्र समारूढ़ के आत्मा में परेहा का अभाव―जो पुरुष ज्ञानी है, चारित्र पर आरूढ़ है वह अपने आत्मा में परद्रव्यों को रच भी नहीं चाहता । जिसने आत्मा का सहज सिद्ध स्वयं परिपूर्ण कैवल्यस्वरूप निरखा है वह जान रहा है कि इस मेरे स्वरूप में तो मात्र मैं ही हूँ । इस स्वरूप में किसी अन्य का प्रवेश ही नहीं है और यह स्वरूप स्वयं अपने आप निराकुल है । यहाँ आकुलता क्षोभ का काम भी नहीं है । समुद्र तो अपने आप शांत है । हवा की प्रेरणा मिले या कोई उसमें डला डाल दिया तो उसमें लहर और भंवर उठती है । पानी का समूह तो स्वयं अपने आप शांत है, ऐसे ही अपने आत्मा का स्वरूप तो अपने आप स्वयं शांत है । अब वहाँ कर्म के उदय की झलक हो रही है । कर्मों के उदय का डला पड़ रहा है तो अंतरंग लहर रंग बन रहा है । पर अपने आप तो यह स्वयं शांत है । तो ऐसा जो आत्मा का सहज स्वरूप है उस स्वरूप को जिसने देखा जाना । अनुभवा उसको यह दृढ़ सम्यक्त्व है कि मेरे स्वरूप में किसी पर का प्रवेश नहीं है । तो यहाँ कोई क्षोभ नहीं है । आकुलता नहीं है, कोई वेदना नहीं है । वेदनारहित, विकाररहित, केवल जाननवृत्ति मात्र अपने आत्मा का स्वरूप देखकर मैं यह हूँ, ऐसा जो अनुभव करेगा वह संसार संकटों से दूर होगा और अपने इस अनंत आत्मस्वरूप को पा लेगा । तो जो पुरुष ज्ञानी हैं और चारित्र पर समारूढ़ है, वे अपने में किसी पर की इच्छा नहीं करते । परद्रव्य के कषाय को लेकर अपने में राग भाव उठाना, द्वेषभाव उठाना यह अज्ञान है और यही विपत्ति है । जान लो, पर है । उसमें ममता और अहंभाव क्यों बना जा रहा? और जिन्होंने बनाया है वे कष्ट पाते हैं । कर्म बंध पाते हैं, संसार में रुलते हैं ।
(120) ज्ञानी की अनुपम वृत्ति―ज्ञानी जीव किसी भो परद्रव्य में रागद्वेष मोह नहीं करता, ऐसे ज्ञानी को कहा उपमा दी जाये ? जो ऐसा पवित्र ज्ञानमय आत्मा हुआ है उसकी उपमा तो इसी ज्ञानी से ही हो सकती है । किसी संसारी मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव से उपमा नहीं चल सकती । ऐसा पुरुष मुक्ति का सुख प्राप्त करता है तो हे भव्य जीव तू निश्चय से समझ और यह अपने मन में निश्चय बना कि मुझे तो सत्य समझ कर रहना है । जैसे और और हठें चलती हैं कि मेरे को तो यह बनाना ही है । यह जायेदाद खड़ी करना ही है । जैसे ये बहुत-बहुत विकल्प चलते हैं ये तो सब आकुलता वाले हैं । आप तप करें तो यह करें कि मेरे को तो सबका सत्य स्वरूप समझ कर रहना है । मैं गलत कुछ नहीं जानना चाहता । तो सत्यस्वरूप की समझ के लिए सही, देख लो प्रत्येक जीव स्वतंत्र-स्वतंत्र हैं या नहीं? पर द्रव्य हैं, आपका उसमें कुछ लग ही नहीं सकता । प्रेम में तो यह हो रहा कि वह अपने में दुःखी हो रहा, दूसरा अपने में दुःखी हो रहा । कहने को यह बात है कि मेरा यह प्रेमी है । मेरे को क्या परवाह है? अरे जहाँ थोड़ा भी राग लगा वहाँ उसको कष्ट है । तो सत्य जानें, हेय उपादेय को जाने, हेय क्या चीज है? मेरे में जो अज्ञानभाव बनता है, किसी परद्रव्य के विषय में जो रागद्वेष का परिणाम बनता है यह रागद्वेष परिणाम हेय है । विकार बनता है, बनना पड़ रहा है मगर ये परभाव हैं, हेय हैं, ऐसा भीतर में ज्ञान बनाने को कौन रोक रहा है ।
(121) आत्मसंयमन द्वारा अनुपम शांति का लाभ―परिस्थितियां हैं मानो कर्म पहले बांधे थे अज्ञान में । उन बँधे हुए कर्मो का उदय हो रहा है । आत्मा पर मलिनता छा गई है, पर उसका भी तो जाननहार ही रहा । और यह तो जाने कि मेरे आत्मा का सही स्वरूप तो अविकार चैतन्य प्रतिभास मात्र है, यह तो कर्मछाया है । इसमें लगाव रखने से फायदा है ही नहीं नुक्सान ही है ऐसा जानकर उस परभाव से, उस विकार से अपने आपको निराला तो समझिये । यह ही समझ इष्टलाभ को बना देगी । जो ज्ञानी होकर हेय उपादेय को जानकर संयमी बनता है, आत्मसंयमी, किसी भी पर को अपने में नहीं मिलाता है वह ही जीव उत्कृष्ट सुख प्राप्त करना है । हर एक जीव को सुख-शांति चाहिए, हम आप सबको शांति चाहिए । तो एकदम सीधा उपाय तो यह है कि अपना जो सहज ज्ञानस्वरूप है उसमें ही आत्मा का अनुभव करें कि मैं यह हूँ, मैं अन्य कुछ नहीं हूँ, भव-भव के दुःख क्यों सहते? दुःख मिटाने की जो एक औषधि है, एक यह मंत्र है कि अपने आप में अपने ज्ञानस्वरूप को देखें और उसमें ही आपा मानकर मैं यह हूँ, तो मेरा काम मात्र जानना रहा । इससे अधिक मेरे को प्रयोजन ही नहीं है, क्योंकि अन्य कोई काम हो ही नहीं सकता, तो प्रयोजन क्या बनाया जाये? सम्यग्ज्ञान पाकर, अपने स्वरूप को निहारकर अपने में किसी पर को नहीं मिलाता तो वह इस समय भी पवित्र है और आगे भी वह पवित्र रहेगा और अनुपम आनंद पायेगा ।