वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 5
From जैनकोष
जिणणाणदिट्ठिसुद्धं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ।
विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि ।।5।।
(11) सम्यक्त्वाचरण व संयमाचरण में चारित्र का प्रकारत्व―सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान करके पवित्र चारित्र तो सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहलाता है । यह प्रथम चारित्र है और दूसरा चारित्र है संयमाचरण । वह भी जिनेंद्र देव का बताया हुआ है । चारित्र दो प्रकार के हैं―एक सम्यक्त्वाचरण और एक संयमाचरण । सम्यक्त्वाचरण भी चारित्र का ही रूप है और संयमाचरण तो प्रकट चारित्र है ही । तो यों कह सकते कि है यह सब स्वरूपाचरण । कोई स्वरूपाचरण सम्यक्त्वाचरणरूप है, कोई स्वरूपाचरण संयमाचरण रूप है । सम्यग्दर्शन होने पर जो भी आत्मा की ओर झुकाव है वह भी चारित्र का रूप है, और वह चारित्र सम्यक्त्वाचरण मात्र है, इससे अधिक नहीं है इस कारण वह संयमाचरण नहीं कहलाता । सम्यक्त्वाचरण में सम्यक्त्व की प्रकृति है । सर्वज्ञ के आगम में तत्त्व का स्वरूप बताया है, उसे कही जानकर श्रद्धान करना, उसकी शंका आदिक दोषों का टालना, अपने आत्मतत्त्व के शुद्ध करना, नि:शंकता आदिक गुप प्रकट हो जायें, ऐसी पवित्रता आना यह सब सम्यक्त्वाचरण चारित्र है और संयमाचरण चारित्र महाव्रत आदिक अंगीकार करना, संयम का आचरण करना जैसा । कि आगम में कहा है, जो सम्यक्त्वाचरण से और ऊँचा आचरण है याने सम्यक्त्वाचरण तो है ही, पर उसके साथ और ऊँचा आचरण है और संयमाचरण से नीचा है तो वह संयम संयमाचरण कहलाता है, वह तो अपने आप समझ लेना चाहिए; यहाँ दो भेद बताये गए हैं―(1) सम्यक्त्वाचरण और (2) संयमाचरण । सम्यक्त्वाचरण में जीव की कैसी वृत्ति होती है उसका अब वर्णन करते हैं ।