वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 24
From जैनकोष
अस्संजदं ण बंदे वच्छविहीणोवि तो ण बंदिज्ज ।
दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि ꠰꠰24꠰꠰
(12॰) भावसंयमरहित वस्त्रविहीन की भी असंयम की तरह अवंद्यता―जो संयमरहित पुरुष है, गृहस्थ है वह तो वंदनीय नहीं है, यह तो बात सही है मगर वस्त्ररहित होकर भी उसके सम्यक्त्व नहीं, संयम नहीं, आत्मदृष्टि नहीं तो वह भी वंदना के योग्य नहीं है, क्योंकि असंयमी गृहस्थ और सम्यक्त्वरहित संयमरहित वस्त्रविहीन भी साधु हो तो वे दोनों एक बराबर हैं । भीतर के परिणामों को देखो―इसके भी यदि सम्यग्दृष्टि है तो सम्यक्त्व है और उस मुनि को भी सम्यक्त्व है । और सम्यक्त्वविहीन गृहस्थ भी है, सम्यक्त्वविहीन मुनि भी है । कर्मबंध होता है तो कर्मबंध इस तरह नहीं डरता कि यह नग्न हो गया तो यहाँ कर्म न बँधें । वहाँ तो कषाय के साथ निमित्तनैमित्तिक योग है, मोह और अज्ञान के साथ निमित्तनैमित्तिक योग है, जहाँ मोह और कषायभाव हुआ वहाँ कर्मबंध होता है । तो यह गृहस्थभेष में है वह तो असंयमी है ही मगर नग्न रूप धारण कर लिया हो और अंतरंग में भावसंयम नहीं है तो वह भी असंयमी ही कहलायगा । ये दोनों के दोनों असंयमी हैं इस कारण ये दोनों ही वंदन करने के योग्य नहीं हैं । जैसे गृहस्थ पूज्य नहीं है ऐसे ही संयमरहित मुनि भी पूज्य नहीं है । अब इस प्रकरण में यथाजात रूप की चर्चा चली आ रही है कि जो यथाजात रूप हो याने उत्पन्न हुए बालक की तरह केवल शरीर मात्र हो तो उससे यह न समझना कि वह साधु परमेष्ठी हो गया । यथाजात रूप के मायने यह है कि जैसा आत्मा का स्वभाव है उस तरह की दृष्टि और आचरण भी होवे तो यथाजात रूप कहलाता है । भीतरी भाव संयम बिना बाहर में मग्न होने से कुछ संयमी हो जाता हो, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि बंध और मोक्ष की व्यवस्था बाहरी भेष से नहीं है, किंतु कषाय हो या कषाय न हो उससे बंध मोक्ष की व्यवस्था है । तो यहाँ एक प्रश्न ऐसा आ सकता है कि यह तो पहिचान होना बड़ा कठिन है कि इस साधु के भावसंयम है या नहीं है । तब कैसी प्रवृत्ति करना चाहिए ? तो उस संबंध में स्पष्ट उत्तर है कि प्रथम देखते ही तो वह वंदन के योग्य है जिसके चाल चलने का कुछ परिचय नहीं है । और प्रथम बार ही दर्शन हुआ है तो वह वंदन के योग्य हैं, और यदि उसका कपट मालूम पड़ जाये, कपट क्या ? पुजवाने के लिए या अपने आराम के लिए ही अनेक साधु बन जाते हैं । और साधु होकर स्वच्छंद हृदय वाले जैसे गृहस्थों की चर्या अधिक बोलना, जिस चाहे से बोलना आदिक जो गृहस्थों जैसी चर्या है वह दिखती हो तो फिर वह वंदन के योग्य नहीं है, पर जब तक उसकी भीतरी माया का पता न पड़े तब तक तो वह वंदना के योग्य है, अन्यथा किसी में भी शक बनाकर, अच्छे आचरण से चलता हो और शक बना ली जाये, ऐसी तीर्थप्रवृत्ति नहीं हो सकती, इस कारण उत्थान के लिए तो भावसंयम और उसके साधन के लिए द्रव्य संयम हुआ करता है, पर मालूम हो जाये कि यह अज्ञानी है, अबोध है तो ऐसा विदित होने पर वह साधु वंदना किए जाने लायक नहीं रहता ।