वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 34
From जैनकोष
वारसविहतवजुत्ता कम्मं खेविऊण विहिवलेणस्सं ।
वोसट्टचत्तदेहा णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता ।। 34 ।।
(159) रत्नत्रयगर्भित तपोबल से अनुत्तर निर्वाण की प्राप्ति―बारह प्रकार के तपों से सहित अपने आत्मा को आत्मा में रमाने के विधान के बल से कर्मों का नाश करके यह देहरहित होते हैं और अनुत्तर याने सर्वोत्कृष्ट जो निर्वाणपद है उसको प्राप्त करते हैं । पहले साधक दशा में तपश्चरण की साधना से तपश्चरण में अध्यात्मदृष्टि स्थिर करके साधना से वे अपने विभावविकारों का विनाश करते हैं, विभाव विकार के प्रक्षय से कर्मों में फर्क होता है । कर्मों का क्षय होता है और कर्मों के क्षय के बल से आत्मा के विकार दूर होते हैं, स्वभावदशा प्रकट होती है उसमें साधना तपश्चरण में होती है और तपश्चरण में रहकर साधना आत्मस्वभाव की उपासना की होती है । इस अंतस्तत्त्व के विधान से वे देहरहित होते हैं । जो शेष चार अघातिया कर्म बचे थे वे सब एक साथ दूर हो जाते हैं । इन प्रभु को अनंत-सुख तो सकल परमात्मा की अवस्था में ही मिल गया था, मगर जो उपाधियां छद्मस्थ अवस्था में इस जीव के गुणों के घात में सहायक बन रही थीं वे चाहे अब उनकी सहायक नहीं हैं फिर भी आखिर में उनकी आवश्यकता क्या है? उनकी स्थिति है, उनकी निर्जरा होती है और सब कर्मों का क्षय हो जानें पर उनको अनुत्तर आनंद मिलता है । संसार में अनेक अवस्थावों की तुलना की जा सकती है । जीव की जीव से तुलना आनंद की आनंद से तुलना । जैसे अमुक पदार्थ के खाने में ऐसा आनंद आता जैसा कि अन्य अमुक पदार्थ का....., निर्वाण की तुलना नहीं है । मोक्ष में किस प्रकार का आनंद है उसकी तुलना संसार की किसी भी स्थिति से हो सकती सो ऐसा वह निर्वाण सुख अनुत्तर सुख (अनुपम आनंद) कहलाता है । सो यह अरहंत परमात्मा, यह केवली गुणस्थान में आकर जहां योग नहीं रहा रंच भी, वहाँ से चार अघातिया कर्मों का विनाश होकर एक ही समय में लोक के अग्रभाग पर पहुंच जाते हैं । तो ऐसे उत्तम आनंद के लाभ का मूल कारण क्या रहा? सम्यग्दर्शन । सब बात सम्यग्दर्शन से प्रारंभ होती । तो इस दर्शनपाहुड ग्रंथ में सम्यग्दर्शन से संबंधित तत्त्वों पर प्रकाश डालकर सम्यक्त्व धारण करने के लिए पुरुषार्थ करने की प्रेरणा दी गई है ꠰
꠰꠰ दर्शनपाहुड प्रवचन समाप्त ꠰꠰