वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 13
From जैनकोष
मग्गण गुणठाणेहिं चउदसहिं हवंति तह असुद्धणया ।
विण्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ।।13।।
अन्वय―तह संसारी असुद्धणया मग्गणगुणठाणेहिं चउदसहिं हवंति । हु सुद्धणया सव्वे सुद्धा विण्णेया ।
अर्थ―तथा संसारी जीव अशुद्धनय से 14 मार्गणा व 14 गुणस्थानों के द्वारा 14-14 प्रकार के होते हैं, किंतु शुद्धनय से सभी जीव शुद्ध जानना चाहिये ।
प्रश्न 1―गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर―मोह और योग के निमित्त से सम्यक्त्व और चारित्र गुणों की जो अवस्थायें होती हैं उन्हें गुणस्थान कहते हैं ।
प्रश्न 2―गुणस्थान कितने होते हैं ?
उत्तर―गुणस्थान तो असंख्याते होते हैं, क्योंकि आत्मगुणों के परिणमन असंख्याते प्रकार के हैं, किंतु उन्हें प्रयोजनानुसार संक्षिप्त करके 14 प्रकार का कहा है । वे ये हैं―(1) मिथ्यात्व, (2) सासादन सम्यक्त्व, (3) सम्यग्मिथ्यात्व, (4) अविरतसम्यक्त्व, (5) देशविरत, (6) प्रमत्तविरत, (7) अप्रमत्तविरत, (8) अपूर्वकरण, (9) अनिवृतिकरण (10) सूक्ष्मसांपराय, (11) उपशांतकषाय, (12) क्षीणकषाय, (13) सयोगकेवली, (14) अयोगकेवली ।
प्रश्न 3―मिथ्यात्व किसे कहते है ?
उत्तर-―मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत 7 तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान नहीं होने को मिथ्यात्व कहते हैं ।
प्रश्न 4―सासादनसम्यक्त्व किसे कहते है ?
उतर―अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक कषाय का उदय होने से प्रथमोपशम सम्यक्त्व से तो गिर जाना और मिथ्यात्व का उदय न आ पाने से मिथ्यात्व न होना इस अंतरालवर्ती अयथार्थ भाव को सासादनसम्यक्त्व कहते हैं ।
प्रश्न 5―सम्यग्मिथ्यात्व किसे कहते है ?
उत्तर―जहाँ मिले हुए दही गुड़ के स्वाद की तरह मिश्र परिणाम हों जिन्हें न तो केवल सम्यक्त्वरूप कह सकते हैं और न मिथ्यास्वरूप ही कह सकते हैं, किंतु जो सम्यग्मिथ्यात्व रूप हों उन परिणामों को सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं ।
प्रश्न 6―अविरतसम्यक्त्व किसे कहते हैं ?
उत्तर―जहाँ सम्यक्त्व तो प्रकट हो गया, किंतु एकदेश अथवा सर्वदेश किसी भी प्रकार का संयम प्रकट न हुआ हो उसे अविरतसम्यक्त्व कहते हैं ।
प्रश्न 7―देशविरत किसे कहते हैं ?
उत्तर―जहां सम्यग्दर्शन भी प्रकट है और एकदेशसंयम याने संयमासंयम भी हो गया है उस परिणाम को देशविरत गुणस्थान कहते हैं ।
प्रश्न 8―प्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर―जहां सर्वदेशसंयम भी प्रकट हो गया, किंतु संज्वलनकषाय का उदय मंद न होने से प्रमाद हो उसे भावप्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं ।
प्रश्न 9―प्रमाद का तात्पर्य क्या आलस्य है या अन्य ?
उत्तर―उपदेश, विहार, आहार, दीक्षा, शिक्षा आदि शुभोपयोग का राग उठना आदि प्रमाद का तात्पर्य है ।
प्रश्न 10―अप्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर―जहां संज्वलनकषाय का उदय मंद हो जाने से प्रमाद नहीं रहा उस परिणाम को अप्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं ।
प्रश्न 11―अप्रमत्तविरत के कितने भेद हैं ?
उत्तर―अप्रमत्तविरत के 2 भेद है―(1) स्वस्थान अप्रमत्तविरत, (2) सातिशय अप्रमत्तविरत ।
प्रश्न 12―स्वस्थान अप्रमत्तविरत किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिस अप्रमत्तविरत परिणाम के बाद ऊंचे स्थान का परिणाम नहीं होता, किंतु छठे गुणस्थान का भाव होता है उसे स्वस्थान अप्रमत्तविरत कहते हैं । इसका नाम स्वस्थान इसलिये हैं कि अपने स्थान तक रहता है, आगे नहीं बढ़ता । छठे व सातवें गुणस्थान का काल छोटा अंतर्मुहूर्तमात्र है । मुनियों के परिणाम जब तक श्रेणी नहीं चढ़ते याने आगे नहीं बढ़ते छठे से सातवें, सातवें से छठे में, इस प्रकार असंख्यात बार आते-जाते रहते हैं ।
प्रश्न 13―सातिशय अप्रमत्तविरत किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिस अप्रमत्तविरत परिणाम के बाद आठवें गुणस्थान में पहुंचते हैं उस अप्रमत्तविरत को सातिशय अप्रमत्तविरत कहते हैं ।
प्रश्न 14―सातिशय अप्रमत्तविरत ऊपर के गुणस्थान में क्यों पहुंच जाता है ?
उत्तर―सातिशय अप्रमत्तविरत में इस जाति का अध:करण परिणाम होता है, जिस निर्मल परिणाम के कारण वह ऊपर के परिणाम में पहुंचा देता है ।
प्रश्न 15―अधःकरण परिणाम किसे कहते हैं ?
उत्तर―जहां ऐसा परिणाम हो कि अधःकरण के काल में विवक्षित कालवर्ती मुनियों के परिणाम के सदृश अधस्तनकालवर्ती मुनियों के परिणाम भी मिल जाये उसे अधःकरण परिणाम कहते हैं ।
अनंतानुबंधी का विसंयोजन, दर्शनमोहनीय का उपशम, दर्शनमोहनीय का क्षय, चारित्रमोहनीय का उपशम, चारित्र मोहनीय का क्षय आदि उच्च स्थानों की प्राप्ति के लिये एक प्रकार के निर्मल परिणाम 3 तरह के पाये जाते है―(1) अधःकरण, (2) अपूर्वकरण और (3) अनिवृत्तिकरण ।
यहां चारित्रमोहनीय को उपशम या क्षय के लिये उद्यम प्रारंभ होता है, उसके लिये होने वाले निर्मल परिणामों में से यह पहला भाग है ।
प्रश्न 16―सातिशय अप्रमत्तविरत के अनंतर किस गुणस्थान में पहुंचना होता है ?
उत्तर―यदि चारित्रमोहनीय के उपशम के लिये अधःकरण परिणाम हुआ है तो उपशमक अपूर्वकरण में पहुंचता है और यदि चारित्रमोहनीय के क्षय के लिये अध:करण परिणाम हुआ है तो क्षपक अपूर्वकरण में पहुंचता है ।
प्रश्न 17―अपूर्वकरण गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर―जहां चारित्रमोहनीय के उपशम या क्षय के लिये उत्तरोत्तर अपूर्व परिणाम हों उसे अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं । इसका अपूर्वकरण इसलिये नाम है कि इसके काल में समानसमयवर्ती मुनियों के परिणाम सदृश भी हो जायें, किंतु उस विवक्षित समय से भिन्न (पूर्व या उत्तर) समयवर्ती मुनियों के परिणाम विसदृश ही होंगे ।
प्रश्न 18―यह गुणस्थान कितने प्रकार का है ?
उत्तर―अपूर्वकरण गुणस्थान दो प्रकार का है―(1) उपशमक अपूर्वकरण और (2) क्षपक अपूर्वकरण ।
इस गुणस्थान से दो श्रेणियां हो जाती हैं―(1) उपशमश्रेणी और (2) क्षपकश्रेणी । जिस मुनि ने चारित्रमोहनीय के उपशम के लिये अधःकरण परिणाम किया था वह उपशमश्रेणी ही चढ़ता है सो वह उपशमक-अपूर्वकरण होता है और जिस मुनि ने चारित्रमोहनीय के क्षय के लिये अध:करण परिणाम किया था वह क्षपकश्रेणी ही चढ़ता है, सो वह क्षपक-अपूर्वकरण होता है ।
प्रश्न 19―उपशमश्रेणी में कौन-कौन गुणस्थान होते हैं ?
उत्तर―उपशमश्रेणी में 8वां, 9वां, 10वां, 11वां ये चार गुणस्थान होते हैं इसके बाद तो चारित्रमोहनीय के उपशम का काल समाप्त होने के कारण नियम से नीचे गुणस्थान में आना पड़ता है ।
प्रश्न 20―क्षपकश्रेणी में कौन-कौन गुणस्थान होते हैं ?
उत्तर―क्षपकश्रेणी में 8वां, 9वां, 10वां, 12वां, 13वां, 14वां ये 6 गुणस्थान होते हैं । इसके अनंतर नियम से मोक्ष प्राप्त होता है । क्षपकश्रेणी वाला नीचे कभी नहीं गिरता ।
प्रश्न 21―इस अपूर्वकरण गुणस्थान में क्या विशेष कार्य होने लगते हैं ?
उत्तर―इस गुणस्थान में―(1) प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि होने लगती है, (2) कर्मों की स्थिति का घात होने लगता है, (3) नवीन स्थितिबंध कम हो जाते हैं, (4) कर्मों का बहुतसा अनुभाग नष्ट हो जाता है, (5) कर्मवर्गणावों की असंख्यातगुणी निर्जरा होने लगती है, (6) अनेक अशुभप्रकृतियां शुभ में बदल जाती हैं ।
प्रश्न 22―अनिवृत्तिकरण किसे कहते हैं ?
उत्तर―जहां विवक्षित एक समयवर्ती मुनियों के समान ही परिणाम हों और पूर्वोंत्तरसमयवर्ती मुनियों के परिणाम विसदृश ही हो उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं । इस अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में चारित्रमोहनीय की 20 प्रकृतियों का 8 बार में उपशम या क्षय हो जाता है । उपशमक अनिवृत्तिकरण के तो उपशम होता है और क्षपक अनिवृत्तिकरण के क्षय होता है ।
प्रश्न 23―चारित्रमोहनीय के उपशम या क्षय का क्रम क्या है ?
उत्तर―अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के 9 भाग हैं, जिसमें―
(1) पहिले भाग में तो चारित्रमोहनीय की किसी प्रकृति का उपशम या क्षय नहीं होता, वहाँ नामकर्मादि की 16 प्रकृतियों का उपशम या क्षय होता है ।
(2) दूसरे भाग में अप्रत्याख्यानावरण 4 व प्रत्याख्यानावरण 4, इन 8 प्रकृतियों का उपशम या क्षय होता है ।
(3) तीसरे भाग में नपुंसकवेद का उपशम या क्षय होता है ।
(4) चौथे भाग में स्त्रीवेद का उपशम या क्षय होता है ।
(5) पाँचवे, भाग में हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा―इन 6 नोकषायों का उपशम या क्षय होता है ।
(6) छठे भाग में पुरुषवेद का उपशम या क्षय हो जाता है ।
(7) सातवें भाग में संज्वलन क्रोध का उपशम या क्षय हो जाता है ।
(8) आठवें भाग में संज्वलन मान का उपशम या क्षय हो जाता है ।
(9) नवें भाग में संज्वलन माया का उपशम या क्षय हो जाता है ।
इस प्रकार आठ बार में 20 चारित्रमोहनीय प्रकृतियों का उपशमक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उपशम होता है और क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में क्षय हो जाता है ।
प्रश्न 24―सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर―जहाँ केवल संज्वलन सूक्ष्म लोभ के उदय के कारण सूक्ष्म लोभ रह जाता है, उसके भी दूर करने के लिये सूक्ष्मसांपराय संयम होता है, उसे सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान के अंत में संज्वलन सूक्ष्मलोभ का उपशमक सूक्ष्मसांपराय के उपशम हो जाता है किंतु क्षपक सूक्ष्मसांपराय के क्षय हो जाता है ।
प्रश्न 25―उपशांतकषाय गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर―जहाँ चारित्रमोहनीय की 21 प्रकृतियों के उपशांत हो जानें से यथाख्यातचारित्र हो जाता है उस अकषाय निर्मलपरिणमन को उपशांतकषाय गुणस्थान कहते हैं ।
प्रश्न 26―उपशांतकषाय गुणस्थान में दर्शनमोहनीय की 3 व चारित्रमोहनीय की 4 अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ इन 4 प्रकृतियों की क्या परिस्थिति होती है ?
उत्तर―द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही उपशमश्रेणी में चढ़ता है सो द्वितीयोपशमसम्यक्त्व सातवें गुणस्थान में हो जाता है । यहाँ इन सात प्रकृतियों का उपशम कर दिया था, वही उपशम यहाँ पर है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि ने चौथे से 7वें तक किसी गुणस्थान में इन सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया था, सो सात प्रकृतियों का यहाँ सर्वथा अभाव है ।
प्रश्न 27―उपशांतकषाय गुणस्थान से किस प्रकार नीचे के गुणस्थानों में आता है ?
उत्तर―द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि उपशांतकषाय तो क्रमश: 10वें, 9वें, 8वें, 7वें व 6वें में तो आता ही है, यदि और गिरे तो पहिले गुणस्थान तक भी जा सकता है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि उपशांतकषाय क्रमश:, 10वें, 9वें, 8वें, 7वें, 6वें में तो आता ही है यदि गिरे तो चौथे गुणस्थान तक ही गिर सकता है, क्योंकि इसके क्षायिक सम्यक्त्व है । क्षायिक सम्यक्त्व कभी नष्ट नहीं होता ।
उपशांत कषाय गुणस्थान वाले का यदि मरण हो तो मरण समय में ही एकदम चौथा गुणस्थान हो जाता है ।
प्रश्न 28―उपशमश्रेणी के अन्य गुणस्थानों में मरण होता है अथवा नहीं ?
उत्तर―उपशमश्रेणी के अन्य गुणस्थानों में भी अर्थात् 10वें, 9वें, 8वें गुणस्थान में भी मरण हो सकता है । यदि मरण हो तो उस गुणस्थान के अनंतर ही मरण समय में ही चौथा गुणस्थान हो जाता है ।
प्रश्न 29―उपशांतकषाय गुणस्थान कितने प्रकार का है ?
उत्तर―उपशांतकषाय गुणस्थान एक ही प्रकार का है । इसमें उपशमक ही होते हैं ।
प्रश्न 30―क्षीणकषाय गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर―चारित्रमोहनीय की सर्व प्रकृतियों के क्षय हो जाने से जहाँ यथाख्यात चारित्र हो जाता है, उस अकषाय निर्मल परिणाम को क्षीणकषाय गुणस्थान कहते हैं ।
प्रश्न 31―क्षीणकषाय गुणस्थान में दर्शनमोह की तीन व अनंतानुबंधी की चार―इन सात प्रकृतियों की क्या परिस्थिति है ?
उत्तर―क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही क्षपकश्रेणी चढ़ता है और क्षायिक सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में उत्पन्न हो जाता है वहीं इन सात प्रकृतियों का क्षय हो गया था । सो यहाँ भी 7 प्रकृतियों का अत्यंत अभाव है ।
प्रश्न 32―क्षीणकषाय गुणस्थान कितने प्रकार का है ?
उत्तर―क्षीणकषाय गुणस्थान एक प्रकार का है । इसमें क्षपक ही होते हैं और सयोगकेवली, अयोगकेवली भी केवल क्षपक ही होते हैं । इस गुणस्थान के अंत समय में ज्ञानावरण की 5, दर्शनावरण की 6 (4 दर्शनावरण की, निद्रा व प्रचला), अंतराय की 5―इस प्रकार 16 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है ।
प्रश्न 33―इस गुणस्थान में स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला―इन तीन दर्शनावरणों की क्या परिस्थिति रहती है ?
उत्तर―इन तीन प्रकृतियों का तो क्षपक ने अनिवृत्तिकरण के पहिले भाग में ही क्षय कर दिया था, सो वही से इनका अत्यंत अभाव है ।
प्रश्न 34―सयोगकेवली किन्हें कहते हैं ?
उत्तर―चारों घातियाकर्मों के क्षय हो जाने से जहाँ केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतसुख व अनंतवीर्य प्रकट हो जाते हैं उन्हें केवली कहते हैं और इनके जब तक शरीर और योग रहता है इन्हें सयोगकेवली कहते हैं । इनका दूसरा नाम अरहंतपरमेष्ठी भी है ।
प्रश्न 35―अयोगकेवली किसे कहते हैं ?
उत्तर―अरहंतपरमेष्ठी के जब योग नष्ट हो जाता है तब से जब तक ये शरीर से मुक्त नहीं होते इन्हें अयोगकेवली कहते हैं । अयोगकेवली का काल “अ इ उ ऋ लृ” इन पांच ह्रस्व अक्षरों के बोलने में जितना लगता है उतना ही है । इनके उपांत्य समय में 72 और अंत में 13 व यदि तीर्थंकर नहीं हैं तो 12 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है ।
प्रश्न 36-―चौदहवें गुणस्थान के बाद क्या स्थिति होती है ?
उत्तर―अयोगकेवली के अनंतर ही शरीर से भी मुक्त होकर दूसरे समय में लोक के अग्रभाग में जा विराजमान होते हैं । इन्हें सिद्धभगवान कहते हैं ।
प्रश्न 37―यथाख्यात चारित्र और केवलज्ञान होने के बाद तुरंत मोक्ष क्यों नहीं होता ?
उत्तर―यद्यपि 13वें गुणस्थान के पहिले समय में रत्नत्रय की पूर्णता हो गई तथापि योगव्यापार 13वें गुणस्थान में चारित्र में कुछ मल उत्पन्न करता है अर्थात् परमयथाख्यात चारित्र नहीं होने देता है । जैसे―किसी पुरुष ने चोरी का परित्याग कर दिया है तथापि यदि चोर का संसर्ग हो तो वहाँ दोष उत्पन्न करता है ।
प्रश्न 38―सयोगकेवली के अंत में तो योग का भी अभाव हो जाता है, फिर 13वें गुणस्थान के बाद ही निर्वाण क्यों नहीं हो जाता है ?
उत्तर―तेरहवें गुणस्थान के बाद योग का अभाव होने पर भी अंतर्मुहूर्त काल तक अघातियाकर्मों का उदय चारित्रमल उत्पन्न करता है, अत: अघातिया कर्मों का उदयसत्त्व समाप्त होते ही शीघ्र मोक्ष होता है ।
प्रश्न 39―गुणस्थानों में उत्तरोत्तर बढ़ने का व गुणस्थानातीत होने का क्या उपाय है ?
उत्तर―सभी आत्मोन्नतियों का व पूर्ण उन्नति का उपाय एक ही है, उस उपाय के आलंबन की हीनाधिकता हो, यह अन्य बात है । वह उपाय है अनादि अनंत अहेतुक चैतन्यस्वभाव का आलंबन । इस ही चैतन्यस्वभाव का अपरनाम है कारणपरमात्मा या कारणब्रह्म । हमारी भी उन्नति इस निज चैतन्य कारणपरमात्मा की भावना और अवलंबन से होगी ।
प्रश्न 40―क्या यह स्वभाव सिद्ध अवस्था में भी है ?
उत्तर―यह चैतन्यस्वभाव या कारणपरमात्मा अथवा कारण सिद्ध अवस्था अर्थात् कार्यब्रह्म ब्रह्म की स्थिति में भी है, किंतु वहाँ कार्यब्रह्म होने से कारणब्रह्म की अप्रधानता है । स्वभाव तो अनादि अनंत होता है । इस ही स्वभाव को कारण रूप से उपादान करके केवलज्ञानोपयोगरूप परिणमते रहना होता रहता है ।
प्रश्न 41―मार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिन सदृश धर्मों द्वारा जीवों को खोजा जा सकता हो उन धर्मों के द्वारा जीवों के खोजने को मार्गणा कहते हैं ।
प्रश्न 42―मार्गणा के कितने प्रकार हैं ?
उत्तर―मार्गणा के 14 प्रकार है―(1) गतिमार्गणा, (2) इंद्रियजातिमार्गणा, (3) कायमार्गणा (4) योगमार्गणा, (5) वेदमार्गणा, (6) कषायमार्गणा, (7) ज्ञानमार्गणा, (8) संयममार्गणा, (9) दर्शनमार्गणा, (10) लेश्यामार्गणा, (11) भव्यत्वमार्गणा, (12) सम्यक्त्वमार्गणा, (13) संज्ञित्वमार्गणा और (14) आहारकमार्गणा ।
प्रश्न 43―गतिमार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―गति की अपेक्षा से जीवों का विज्ञान करना गतिमार्गणा है । इस मार्गणा से जीव 5 प्रकार से उपलब्ध होते हैं―1-नारकी, 2-तिर्यंच, 3-मनुष्य, 4-देव, 5-गतिरहित ।
प्रश्न 44―इंद्रिय जाति मार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―इंद्रिय जाति की अपेक्षा से जीवों को खोजना इंद्रिय जाति मार्गणा या इंद्रियमार्गणा हैं । इस मार्गणा से जीव 6 प्रकार से उपलब्ध होते हैं―(1) एकेंद्रिय, (2) द्वींद्रिय, (3) त्रींद्रिय, (4) चतुरिंद्रिय, (5) पंचेंद्रिय और (6) इंद्रियरहित ।
प्रश्न 45―कायमार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―काय (शरीर) की प्रधानता से जीवों का परिचय पाना कायमार्गणा है । कायमार्गणा से जीव 7 तरह से ज्ञात होते है―(1) पृथ्वीकायिक, (2) जलकायिक, (3) अग्निकायिक, (4) वायुकायिक, (5) वनस्पतिकायिक, (6) त्रसकायिक और (7) कायरहित ।
प्रश्न 46―जो जीव विग्रह गति में गमन कर रहे हैं उनके केवल तैजस और कार्माण ही शरीर है, वे क्या कायरहित में अंतर्गत हैं ?
उत्तर―जो जीव जिस काय में उत्पन्न होने के लिये विग्रहगति से गमन कर रहा है उसके उस काय संबंधी नामकर्म प्रकृतियों का उदय होने से तथा 1, 2 या 3 समय में ही उस काय को अवश्य प्राप्त करने से उस ही कायवान् में गर्भित है वे कायरहित में अंतर्गत नहीं होते ।
प्रश्न 47―योगमार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―काय वचन व मन प्रयत्न के निमित्त से आत्मप्रदेशों के परिस्पंद होने को योग कहते हैं । योग की अपेक्षा जीवों का परिचय करना योगमार्गणा है । योगमार्गणा की अपेक्षा जीव 16 प्रकार से उपलब्ध होते हैं―(1) औदारिक काययोगी, (2) औदारिक मिश्रकाययोगी, (3) वैक्रियक काययोगी (4) वैक्रियक मिश्रकाययोगी, (5) आहारक काययोगी, (6) आहारकमिश्रकाय योगी, (7) कार्माणकाययोगी, (8) सत्यवचनयोगी, (9) असत्यवचनयोगी, (10) उभयवचनयोगी, (11) अनुभयवचनयोगी, (12) सत्यमनोयोगी, (13) असत्यमनोयोगी, (14) उभयमनोयोगी, (15) अनुभयमनोयोगी और (16) योगरहित ।
प्रश्न 48―वेदमार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―मैथुन के संस्कार व अभिलाषा को वेद कहते हैं । वेद की अपेक्षा जीवों को खोजना वेदमार्गणा है । वेदमार्गणा से जीव चार प्रकार के पाये जाते हैं―(1) पुंवेदी, (2) स्त्रीवेदी, (3) नपुंसकवेदी, (4) अपगतवेदी ।
प्रश्न 49―कषायमार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―कषाय की अपेक्षा जीवों की खोज करना कषायमार्गणा है । कषायमार्गणा से जीव 26 प्रकार से उपलब्ध होते हैं―(1) अनंतानुबंधी क्रोधी, (2) अन0 मानी, (3) अन0 मायावी, (4) अन0 लोभी, (5) अप्रत्याख्यानावरण क्रोधी, (6) अप्र0 मानी, (7) अप्र0 मायावी, (8) अप्र0 लोभी, (9) प्रत्याख्यानावरण क्रोधी, (10) प्रत्याख्यानावरण मानी, (11) प्रत्याख्यानावरण मायावी, (12) प्रत्याख्यानावरण लोभी, (13) संज्वलन क्रोधी, (14) सं0 मानी, (15) सं0 मायावी, (16) सं0 लोभी, (17) हस्यवान्, (18) रतिमान्, (19) अरतिमान्, (20) शोकवान्, (21) भयवान्, (22) जुगुप्सावान्, (23) पुंवेदी, (24) स्त्रीवेदी, (25) नपुंसकवेदी, (26) कषायरहित ।
प्रश्न 50―ज्ञानमार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―ज्ञान की अपेक्षा जीवों का परिचय पाना ज्ञानमार्गणा है । ज्ञानमार्गणा से जीव 8 प्रकार से उपलब्ध होते हैं―(1) कुमतिज्ञानी, (2) कुश्रुतज्ञानी, (3) कुअवधिज्ञानी, (4) मतिज्ञानी, (5) श्रुतज्ञानी, (6) अवधिज्ञानी, (7) मनःपर्ययज्ञानी, (8) केवलज्ञानी ।
प्रश्न 51―संयममार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर―संयम की अपेक्षा से जीवों का ज्ञान करना संयममार्गणा है । इस मार्गणा से जीव 8 प्रकार से ज्ञात होते है―(1) असंयम, (2) संयमासंयम, (3) सामायिकसंयम, (4) छेदोपस्थनासंयम, (5) परिहारविशुद्धिसंयम, (6) सूक्ष्मसांपरायसंयम, (7) यथाख्यातसंयम, (8) असंयम-संयमा-संयम―संयम इन तीनों से रहित ।
प्रश्न 52―दर्शनमार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―दर्शन की अपेक्षा से जीवों का परिचय पाना दर्शनमार्गणा है । दर्शनमार्गणा से जीव 4 प्रकार के उपलब्ध होते हैं―(1) चक्षुर्दर्शनी, (2) अचक्षुर्दर्शनी, (दे) अवधिदर्शनी, (4) केवलदर्शनी ।
प्रश्न 53―लेश्यामार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―कषायों से अनुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । लेश्या की अपेक्षा से जीवों को खोजना लेश्यामार्गणा है । लेश्यामार्गणा की अपेक्षा से जीव 7 प्रकार के उपलब्ध होते हैं―(1) कृष्णलेश्यावान्, (2) नीललेश्यावान्, (3) कापोतलेश्यावान्, (4) पीतलेश्यावान्, (5) पद्मलेश्यावान्, (6) शुक्ललेश्यावान् और (7) लेश्यारहित ।
प्रश्न 54―भव्यत्वमार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―जो रत्नत्रय के पाने के योग्य होवें वे भव्य हैं और भव्यत्व की दृष्टि से जीवों को खोजना भव्यत्वमार्गणा है । इस मार्गणा से जीव 3 प्रकार के पाये जाते हैं―(1) भव्य, (2) अभव्य और (3) अनुभय (सिद्ध) ।
प्रश्न 55―सम्यक्त्वमार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―सम्यक्त्व की दृष्टि से जीवों का परिचय पाना सम्यक्त्वमार्गणा है । इस मार्गणा से जीव 6 तरह के उपलब्ध होते हैं―(1) मिथ्यादृष्टि, (2) सासादनसम्यक्त्ववान्, (3) सम्यग्मिथ्यादृष्टि, (4) उपशमसम्यग्दृष्टि, (5) वेदकसम्यग्दृष्टि और (6) क्षायिकसम्यग्दृष्टि ।
प्रश्न 56―संज्ञित्वमार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―संज्ञापने की अपेक्षा से जीवों को खोजना संज्ञित्वमार्गणा है । इस मार्गणा से जीव 3 तरह के पाये जाते हैं―(1) संज्ञी, (2) असंज्ञी और (3) अनुभय (न संज्ञी, न असंज्ञी) ।
प्रश्न 57―आहारकमार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर―जो जीव नोकर्मवर्गणावों को ग्रहण करता है वह आहारक है व आहारकपने की दृष्टि से जीवों का परिचय पाना आहारकमार्गणा है । इस मार्गणा से जीव दो तरह के पाये जाते हैं―(1) आहारक और (2) अनाहारक ।
प्रश्न 58―इन सब भेदों का संक्षिप्त विवरण क्या है ?
उत्तर―विस्तारभय से यहाँ विवरण नहीं करते । एतदर्थ गुणस्थानदर्पण व जीवस्थान चर्चा देखिये ।
गुणस्थानदर्पण में सर्वगुणस्थान व अतीतगुणस्थान का अनेक प्रकार से विवरण है ।
जीवस्थान चर्चा में―मार्गणावों का विशेष विवरण है तथा किस गुणस्थान में व किस मार्गणा के भेद में गुणस्थान मार्गणायें बंध, उदय, सत्त्व, भाव, आस्रव आदि कितने-कितने होते हैं, यह विवरण सामान्य से, पर्याप्तनानायें, पर्याप्त एक जीव में, पर्याप्त एक जीव के एक समय में, अपर्याप्तनानायें, अपर्याप्त एक जीव में, अपर्याप्त एक जीव के एक समय में इतने-इतने प्रकार से किया गया है ।
प्रश्न 59―इन मार्गणा स्थानों में कौनसा स्थान निर्मल एवं उपादेय है ?
उत्तर―इन मार्गणावों में अंतिम भेद वाला स्थान कर्मों के क्षय से प्रकट हीने के कारण निर्मल और उपादेय है ।
प्रश्न 60―अनाहारक तो छहों काय के जीवों में हो जाता है, वह कैसे उपादेय हैं ?
उत्तर―इस उपादेय अनाहारकत्व में संसारी अनाहारकों का ग्रहण नहीं करना, किंतु सिद्ध भगवान का ग्रहण करना । सिद्धप्रभु के नोकर्मवर्गणावों का कभी भी ग्रहण नहीं होता ।
प्रश्न 61―अन्य सर्व मार्गणास्थान क्यों हेय हैं ?
उत्तर―संसारी जीवों के उक्त सब प्रकार कर्मों का उदय, उपशम, क्षयोपशम उदीरणादि का निमित्त पाकर होते हैं, वे स्वाभाविक भाव नहीं हैं ।
प्रश्न 62―क्षायिक भाव भी तो कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है, वह कैसे स्वाभाविक भाव है ?
उत्तर―कर्मों के क्षय को निमित्त पाकर होने वाला भाव यद्यपि इस निमित्तदृष्टि से क्षयकाल में नैमित्तिक भाव है तथापि आगे सब समयों में अनैमित्तिक भाव है, अत: स्वाभाविक भाव है तथा क्षयकाल में भी कर्मों का अभाव होनारूप ही तो निमित्त कहा है, सो कर्मों के अभाव से होने के कारण स्वाभाविक भाव है ।
प्रश्न 63―मार्गणास्थानों में अंतिम भेद द्वारा बताया गया निर्मल परिणमन कैसे प्रकट होता है ?
उत्तर―उन-उन समस्त मार्गणास्थानों से विलक्षण शुद्ध चैतन्यस्वभाव के अवलंबन से वह निर्मलपरिणमन उत्पन्न होता है । जैसे नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव, गतिरहित (सिद्ध), पांचों पर्यायों से विलक्षण चैतन्यस्वभाव के अवलंबन से गतिरहित परिणमन प्रकट होता है । एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय और इंद्रियरहित―इन छहों पर्यायो से विलक्षण सनातन चैतन्यस्वभाव के अवलंबन से इंद्रियरहित परिणमन प्रकट होता है । इत्यादि प्रकार से सब मार्गणावों लगा लेना चाहिये ।
प्रश्न 64―क्या उन निर्मल पर्यायों के भिन्न-भिन्न साधन हैं ?
उत्तर―नहीं, एक सनातन चैतन्यस्वभाव के अवलंबन में ही गतिमार्गणा भेदरहित, इंद्रियमार्गणा भेदरहित, कायमार्गणा भेदरहित आदि द्वारा विशेषित वह सर्वचैतन्यस्वभाव अंतर्निहित है । वह एक ही है और है अनादि, अनंत, अहेतुक, परमपारिणामिक भावमय, कारणपरमात्मा, समयसार, शुद्धात्मतत्त्व आदि संकेतों द्वारा गम्य ।
प्रश्न 65―शुद्धनय से ये सभी जीव शुद्ध किस प्रकार से हैं ?
उत्तर―शुद्धनय वस्तु के अखंडस्वभाव को देखता है । कालगत, क्षेत्रगत, शक्तिगत भेदों को यह नय विषय नहीं करता । इस शुद्धनय का अपर नाम परमशुद्धनिश्चयनय है । शुद्धनय की दृष्टि में मात्र चैतन्यत्यभाव है । इस दृष्टि से सभी जीव स्वभाव से शुद्ध हैं ।
प्रश्न 66―यह शुद्ध पारिणामिक भाव तो शाश्वत है ही, उसका करना ही क्या रह जाता ?
उत्तर―इस शाश्वत शुद्ध पारिणामिक भाव का ध्यान करना कर्त्तव्य हो जाता है । यह शुद्ध स्वभाव तो शाश्वत है, श्रेयरूप है ।
इस प्रकार संसारस्थ अधिकार का विवरण करके सिद्ध और विस्रसोद᳭र्ध्वगति―इन दो अधिकारों का एक गाथा में विवरण करते हैं―