वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 103
From जैनकोष
अप्पु वि परु वि वियाणए जें अप्पें मुणियेण ।
सो जिय अप्पा जाणि तुहुँ जोइय णाणबलेण ।।103।।
जिस आत्मा को जानने से यह आत्मा भी और समस्त पदार्थ भी जाने जाते हैं उस अपने आत्मा को हे योगी । अपने आत्मज्ञान के बल से जानो । आत्मा को छोड़कर परवस्तुओं को ही जानने में लग जाओ तो, न तो परपदार्थों का पूरा ज्ञान हो सकता है और न खुद का ज्ञान हो सकता है और परपदार्थों का लगाव छोड़कर केवल निज आत्मतत्त्व का ज्ञान करें तो इन समस्त परपदार्थों का ज्ञान हो जायेगा और अपने आपकी आत्मा का भी ज्ञान हो जायगा । पर जिस विधि से आत्मा को जानना चाहिए, जिसमें सर्व कल्याण हो । ‘‘वह विधि है वीतराग, सदा आनंदमय एक स्वभाव की दृष्टि ।’’ लेकिन सब केवल अपने को ही जानते हैं, पर को नहीं जानते हैं; मगर सभी उपयोग में पर को, जान रहे हैं, निज को नहीं जान रहे हैं । सभी जीव अपने आपको जानते हैं । कोई अपने को समझे कि मैं मनुष्य हूँ, मैं नारकी हूँ, मैं तिर्यंच हूँ, मैं देव हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ, मैं धन वाला हूँ, मैं गरीब हूँ, मैं समझदार हूँ, मैं परिवार वाला हूँ, इत्यादि नाना प्रकार से अपने को माने तो भी अपने को मानता है, तो है कुछ ।
कोई यदि यह कहे कि यह मेरा घर है तो इसका क्या अर्थ होता है कि यह, यह है, में मैं हूं, और फिर यह मेरा है । क्या कोई यों कहता फिरता है कि यह घर मैं हूं? क्या कोई ऐसा बोलता है? नहीं । तो इतनी बुद्धि तो सबकी व्यवस्थित है । इतनी गनीमत है जो यह नहीं मान रहे हैं कि मैं घर हूँ, सोना हूँ, चांदी हूँ इतनी तो गनीमत है । यही तो मान रहे हैं कि यह सोना मेरा है । इसमें इतनी बात तो आ गई कि यह सोना, सोना है और यह मैं मैं हूँ । किंतु यह है मेरा । ‘‘मेरा’’ मानने में भी मिथ्यात्व तो है, पर थोड़ा भेद है । शरीर के बारे में दोनों ही मान्यताएं चलती है । कोई मानता है कि यह शरीर मेरा है, कोई मानता है कि यही मैं हूँ । दोनों तरह से चलता है, पर घर, परिवार, सोना, चाँदी आदि में यह नहीं चलता कि यह मैं हूँ, यह मेरा है । तो अपने को कुपथ में ले जाने का निमित्तभूत पदार्थ है कोई अधिकतया तो वह शरीर है । बस, घोड़े में चाल तो है, मगर वह ऊबड़ में चल रहा है । उसकी लगाम मोड़ दो, अच्छी जगह चला जायगा । तो इसमें चाल तो है कि किसी का विश्वास करे, किसी को हितरूप माने, किसी को शरण समझे, किसी में रम जाय । यह इसमें चाल तो है, मगर ऊबड़ में चल रहा है कि हम अपना शरण और हित को मानें तो परिवार को । हम रमते तो हैं विषयों में, तो रमने की आदत तो है हमारे और जानने की भी आदत है । और किसी-किसी के हित और श्रद्धा भी करने की आदत है, पर ऊबड़ में लग रहे हैं । अब अपनी दृष्टि की लगाम मोड़ दो, भेदविज्ञान कर लो, अपने अमृत निधान आनंदमय ज्ञानज्योति में बदल जाओ, बजाय मोही जीवों से हित मानने के । एक इस निर्मोही स्वभाव ज्ञानतत्त्व को हितरूप मान लो । इस घोड़े में चाल तो है, पर ताल बदल लो । काठ के घोड़े में चाल ही नहीं है ।
कोई लड़के लोग दोनों टांगों के बीच में एक लाठी ले लेते हैं और पीछे से उस घोड़े को मारते जाते है; चलो घोड़ा टिक् टिक् । अरे ! उस घोड़े में कुछ चाल ही नहीं है तो कैसे चले? और इस घोड़े के तो चाल है, चाल को मोड़ दीजिए, बढ़िया काम कर जायगा । तो हम और आपके उपयोग में, मन में चाल है; बस चाल को बदल दें । अच्छा थोड़ा अपने भीतर में विचार करें कि 10-20 वर्ष करते हो गए, अब तक मोह में कितना अंतर पाया? कुछ तो पाया होगी । अगर मोह में कुछ अंतर न पाया तो सब व्यर्थ हो गया । कुछ तो मोह में अंतर होना चाहिए । ऐसा न हो कि ज्यों-ज्यों आयु घटती जाय त्यों-त्यों गुस्सा बड़े, घमंड बड़े, मायाचार बड़े तथा लोभ बड़े । यह नहीं होना चाहिए । आयु ज्यों-ज्यों घटती जाय त्यों-त्यों क्षमा का भाव हो, शांति बड़े, सरलता बड़े, निर्मलता बड़े । फिर तो भैया यह दुर्लभ नरजीवन सफल है और उल्टा ही काम बने तो इस नरजीवन से क्या लाभ?
‘‘एक निज आत्मा को जान लो और उसके रुचिया बनो ।’’ मोह में हित नहीं है, धोखे में मत आओ । सच मत मान लो । यह सब मोह की नींद का स्वप्न है । हम ऐसे घर वाले हैं; ये मोह के स्वप्न हैं । ये तुम्हारे रंच भी कुछ नहीं हैं । ‘‘तुम्हारा तो एकमात्र आत्माराम है । इस निजतत्त्व को, वीतराग ज्ञानानंदमय स्वभावी परमात्मा को जानो तो सर्वविश्व जानने में आयगा ।’’ उस आत्मा में द्वेष राहत निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान की भावना उत्पन्न करके, परमानंद के रस में तृप्त होकर, तन्मय होकर उस आत्मा का भली प्रकार अनुभव करो । पर अपनी दशा पर खेद तो मानो । कैसे हठ एवं विकल्प किए हैं । अव्वल तो यह भी निश्चित नहीं कि एक सिद्धचक्र विधानमंडल भी रचा हो और 8 दिन तक शांति से रह सकें । क्रोध की मात्रा प्राय: बढ़ जाया करती है । तुमने यों नहीं किया, तुम काम बिगाड़ दोगे, तुम नाक कटा दोगे । इस तरह क्रोध बढ़ जाता है । अव्वल तो यह निश्चय नहीं है कि जितनी देर विधान है उतनी देर ईमानदारी से तो कुछ करें । ईमानदारी के मायने कोई कितना ही कुछ करे, सब पर क्षमा हो । अपनी शान किसे दिखायें? प्रभु की आराधना में ही रहने की ईमानदारी रखो ।
आठ दिन को कोई विधान माने तो समझो 8 दिन शांत रहना है । हम आठ दिन को ही कहते हैं कि उतने दिनों में ही क्रोध की मात्रा बढ़ जाती है । उन 8 दिनों की बात तो जाने दो, अभी यहाँ से पूजा करके निकले, दरवाजे से बाहर गए और कोई भिखारी मिल जाय । कहे―बाबू कुछ हमें खाने को दे दो । तो कहेंगे अबे हट, जानता नहीं कि शुद्ध कपड़े पहिन कर आए हैं । अरे ! वहाँ मंदिर में तो कह रहे थे कि आत्म के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय । मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ वह है भगवान । सब जीव हैं एक समान और मंदिर से निकले तो यह आफत आई अरे ! इस तरह से धर्म कहाँ है? यह मंदिर तो धर्म का साधन है, और इसे ही धर्म मान लिया जिसका साधन है उसे धर्म नहीं माना; इतना ही फर्क है । ‘‘धर्म है आपकी आत्मा की परिणति । धर्म मंदिर में नहीं है, धर्म मूर्ति में नहीं है ।’’ हमारा धर्म शास्त्रों में नहीं है, हमारा धर्म दूसरे गुरु में नहीं है । पर हमारे धर्म के विकास के ये सब साधन हैं । इनमें लगकर हम अपना काम निकाल सकें तो निकालें । पर धर्म तो आत्मा की परिणति का नाम है, निर्मलता का नाम है । शान बहुत-बहुत रखते हैं और फिर भी 10-20 बार शान धूल में मिल जाती है तो ऐसी हिम्मत बना लो कि रही-सही शान भो धूल में मिल जाय और इसे छोड़ निर्दोष वीतराग सहज परमात्मतत्त्व की भावना जग जाय ।
भैया ! हित का मार्ग बड़ा कठिन है । हित का मार्ग कठिन न होता तो सुकौशल जैसे राज-पुत्र, जिनको सिंहनी खा रही थी; क्या उनमें यह बल न था कि दो मुक्के देकर उसे पिछाड़ देते, पर उन्हें इतना भी पसंद न आया कि 5 मिनट लड़कर मुकाबला करके उसे अलग कर दें और फिर दिनभर खूब ध्यान करें । अरे ! इन ताजे 5 मिनटों की हम विकल्प-व्यवस्था करें तो आगे के पूरे दिनों की क्या आशा? यह स्थिति थी उन मुनिराज की । जैसे यहाँ गृहस्थ लोग सोचने लगते हैं कि एक साल भर में ऐसा काम बना लें । फिर तो दूध के धुले बनकर, मंदिर में रहकर, सब आरंभ छोड़कर भजन ही भजन करेंगे । अरे ! यहाँ तो संसार में एक दिन का भरोसा नहीं । फिर साल भर की जिंदगी का भरोसा ही क्या? ऐसे ही आपने बीसों को देखा होगा कि जिनसे आपकी बात हुई होगी कि बस, हमारे लिए तो 6 माह की कसर है । ‘‘यह हो जाय,’’ फिर इसके बाद कुछ वांछा नहीं है । और फिर दो साल बाद फिर वह मिले और पूछें कि कहो जी ! अब तो 6 महीने हो गए । कहेंगे कि क्या बतलायें, ऐसा टंटा आ गया कि अब तो निकलने की आशा ही नहीं है ।
भैया ! टंटे न जाने कहाँ छुपे रहते हैं और वे टंटे आ जाते हैं टंटे बाहर से नहीं आया करते । ये टंटे तो भीतर से निकाले जाते हैं । तो जब उपादान उस योग्य है तो टंटों से भी टंटे निकलते रहते हैं । अजी क्या करें, उस समय मेरा विचार था और बिल्कुल पक्का हो गया था, पर बाद में इतनी बात और भिड़ गई । उसके मारे ऐसा फंस गए कि अब 10 साल तक भी आशा नहीं है । यह परिस्थिति है तो करिष्यामि, करिष्यामि, करिष्यामि चिंतितम्, फिर मरिष्यामि, मरिष्यामि मरिष्यामिति विस्मृतम् । मैं यह करूंगा, मैं यह करूंगा, इसका ही तो चिंतन किया, पर मैं मरूंगा, मैं मरूंगा इसको भूल गए । अगर धन थोड़ा बहुत जोड़ लिया तो अपने को यह समझ लिया कि इस जगत् में हम ही एक प्रभु हैं । अरे ! ‘‘तुम्हारी आत्मा से बाहर एक अणु मात्र भी तुम्हारा कुछ नहीं है ।’’ और धन का संचय, विकल्प की खान ही बना रहे हैं । सोचो तो सही, तुमने तो माना ऐसे प्रभु को; जिनके न स्त्री है, न पुत्र है, न वस्त्र है, न शरीर है, केवल ज्ञानस्वरूप आत्मा है । उसे तो माना तुमने भगवान् और तुम्हारी वृत्ति ऐसी हुई कि तुम विश्व के संचय में ही अपना मन लगाना चाहते हो तो बतलाओ कि प्रियतम कि भलाई कब करोगे?
जाड़े के दिनों में तालाब में जब नहाने जाते हैं बच्चे लोग तो, एक तो पहिले जल में पैर ही नहीं रखा जाता है और अगर पंजा रख दिया तो धीरे चलते हैं, बगुला जैसी टांगे उठाकर, कि कहीं मछली को आहट न हो जाये । घुटनों तक आये तो रोंगटे खड़े हो गए, आधी कमर तक आए तो लौट जाना चाहते हैं । अरे ! क्या लौटना चाहते हो, एक डुबकी लगा लो तो सारा जाड़ा खत्म हो जायेगा । जब तक डुबकी न लगायें तब तक पानी का डर है, और डुबकी एक लगा ली फिर ठंड नहीं लगती है । तुम्हारे घर के गर्म पानी से नहाने के बाद ठंड लगेगी और प्राकृतिक तालाब के पानी में डुबकी लगा लो तो ठंड न लगेगी । भारी डर रहता है कि क्या होगा, फिर कैसे रहेंगे, कैसे गुजारा होगा और एक जाप दे रहें हैं, सामायिक कर रहे हैं, कदाचित् बाहरी विकल्प अभिभूत हो जाये व आत्मा में कुछ प्रवेश करने लगे तो फिर ख्याल आ गया कि ‘‘अगर हम आत्मा में ही डूब गए तो इन घर के तीन प्राणियों का क्या होगा?’’ अरे ! एक बार डूब तो लो । उनकी चिंता तो छोड़ो । आत्मा में डूबने का अवसर मिलता है तो डूब लो । आनंद ही आनंद होगा, फिर दुःख का लेश कारण नहीं । ऐसे परमानंद निधान ज्ञायक स्वरूप भगवान् निज आत्मा के परमानंद रस से तृप्त होकर भली प्रकार अनुभव करो । अब समझ में इतना आया ना । क्या आया कि ज्ञानमय आत्मा को जानना चाहिए । इसमें ही परम आनंद भरा हुआ है । यह समझ में आया तब यह जिज्ञासु भाई पूछता है कि ज्ञान वह क्या है जिस ज्ञान के जानने से सारे संकट टल जाते हैं ।