वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 112
From जैनकोष
जहिं मत तहिं गइ जीव तुहुं मरणु व जेण लहेहि ।
ते परबंभु मुएवि मइँ मा परदव्वि करेहि ।।112।।
हे जीव ! जहाँ तेरी बुद्धि है, वहाँ ही तेरी गति है । तुम्हें प्रभुस्वरूप को जानना है तो प्रभुस्वरूप में बुद्धि करो । जहाँ बुद्धि लगायेगा, वहाँ ही उसका गमन होगा । उसको जिस कारण से तू मरकर भी पायेगा, इसलिये तू परमब्रह्म को छोड़कर परद्रव्यों मे बुद्धि मत कर । जैसे व्यवहार में कहते हैं कि ‘‘चाहे मर जाओ, पर यह काम न करो ।’’ तो यहाँ आचार्य देव सीधी भाषा में कहते है कि ‘‘चाहे मर जाओ, परंतु परद्रव्यों में आत्मबुद्धि न करो,’’ अर्थात् परद्रव्यों में आत्मबुद्धि करना, किसी भी प्रकार श्रेयस्कर नहीं है । निजस्वरूप है परमब्रह्म । ‘‘स्वगुणैः वृहणाति इति ब्रह्म ।’’ जो अपने गुणों के द्वारा वर्द्धमान रहे, उसे ब्रह्म कहते हैं । इस आत्मा का स्वभाव है, अपने ज्ञान और आनंदगुण का बढ़ते रहना ।
भैया ! अपने ही घर में पैदा हुआ कपूत इस ज्ञान और आनंद के विकास को रोके तो रुका रहता है, पर उस रुके हुए की हालत में भी बढ़ती हुई पद्धति को बनाये है । जैसे कोई स्प्रिंग वाला पलंग या कोई कुर्सी है, तो उस लिंग को हाथ से दबा दो, तो भले ही वह दबा रहता है, पर दबी हुई हालत में भी वह उठने की पद्धति को लिये हुए रहता है । उसे थोड़ासा भी मौका मिले या जरा हाथ ढीला हो तो वह रिंग तो उठने को ही रहता है । इसी प्रकार रागादिकभावों से दबी हुई हालत में भी यह ज्ञान और आनंद की लिंग विकसित होने की पद्धति को ही लिये रहती है । इस कारण इस आत्मस्वभाव को परमब्रह्म कहते हैं । इस परमब्रह्म शब्द द्वारा वाच्य निज शुद्ध आत्मतत्त्वों को छोड्कर, हे कल्याणार्थी ! तुम परद्रव्यों में आत्मबुद्धि मत करो ।
निज शुद्ध आत्मतत्त्व कैसा है? यह मर्म जब ज्ञात होगा, तब अपने आपको ऐसा देखने के लिये उद्यत होगा कि मैं, मैं ही हूँ, मुझ में अन्य किसी का संपर्क नहीं है । संपर्क है, मगर उस संपर्क के सत् को भूलकर और उस उपाधि के संबंध से होने वाले विकार पर उपयोग न देकर अपने आपके सत्त्व के कारण जो कुछ मैं हूं―ऐसा निरख तो निजशुद्ध आत्मतत्त्व देखा जा सकता है । इस लोक में कुछ भी बाहरी वस्तु शरण नहीं है । एकदम समस्त परवस्तुओं को भिन्न और अहित जान लीजिये । चाहे कितना ही व्यवहार में धन पर अधिकार हो, महल मकान भी हों तथा कुटुंब परिवार भी आज्ञाकारी हो फिर भी विवेक इसमें है कि उन सबको भिन्न, अहित एवं अशरण जानकर अपने परमात्मतत्त्व की ओर झुको । दुनियां के अन्य किसी पर मेरा कोई अधिकार नहीं है । ऐसा नहीं है कि इनकी दृष्टि में हम कुछ अच्छे कहलाएं, तो हमारा बड़प्पन हो जायेगा ।
यह सारा लोक असंख्यात प्रदेश प्रमाण है । 343 घनराजू प्रमाण में यह परिचित क्षेत्र 100 मील का, 500 मील का या 1000 मील का यह परिचित क्षेत्र उस सारे लोक के सामने क्या मूल्य रखता है? समुद्र में एक बिंदु का जो अनुपात बैठता है, उतना भी अनुपात इस हजार मील का सर्व लोक के सामने नहीं बैठता । फिर यहाँ के मरे, कौनसी जगह उत्पन्न होंगे? क्या कुछ संबंध रहा यहाँ के पदार्थों से? ये सब मिले हैं । इनके ज्ञातादृष्टा रहना चाहिये । तो निज शुद्ध आत्मतत्त्व; जो कि सदा वीतराग, शाश्वत आनंद के अमृतरस से परिणत है, उस आत्मा में स्वरसत: क्लेशों का नाम ही नहीं है । यह तो ज्ञान और आनंदमय है । इसमें क्लेशों का अवकाश ही कहां है? यह आत्मा टांकी से उकेरी गई प्रतिमा की तरह निश्चल और स्वत: सिद्ध है । यह मैं ज्ञानस्वभावी हूँ । मेरा यह ज्ञानस्वरूप किसी दूसरे पदार्थ के द्वारा उत्पन्न किया गया नहीं है । मेरे स्वरूप को कोई एकदम नहीं बना देता । मेरा स्वरूप किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता । अनादि से ही मैं अपने चैतन्यस्वरूप को लिये हुए हूँ । ऐसा टंकोत्कीर्णवत् में निश्चल चैतन्यस्वरूपमात्र हूँ । इसी को परमब्रह्म कहते हैं तथा इसी को, अद्वैततत्त्व कहते हैं ।
भैया ! इस स्वभाव को छोड़कर किसी भी परद्रव्य में अपना चित्त मत लगाओ । न इस देह में, न परिग्रह में, न विषयों में चित्त लगाओ । ज्ञान को बनाए रखो । सब कार्यों में लगना पड़ता है, फिर भी यथार्थस्वरूप समझो । कोई शरण नहीं होता । यदि ऐसी परिणति बनाई जा सकती है, तो ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व का प्रकट अनुभव कर सकते हैं । यही शुद्ध परमात्मद्रव्य परलोक है । जैसे किसी समय बहुत बढ़िया दिलचस्प साहित्य का प्रसंग छिड़ जाये तो आनंद एवं हास्य अपूर्व बढ़ जाता है और उस समय कहते हैं कि एक नई दुनियां में पहुंच गये हैं । वह नई दुनियां क्या है? जिसे खोटी दुनिया से परिचय है, उससे हटकर अपूर्व आनंद से पूर्ण दुनियां को कहते हैं कि नई दुनियां में पहुंच गये । यही मेरा आत्मतत्त्व परलोक है । परलोक शब्द के द्वारा वाच्य निज परमात्मतत्त्व का मर्म अनुभूत कीजिए । अब इसके बाद यह प्रश्न होता है कि वह परद्रव्य है क्या? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि―