वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 115
From जैनकोष
मेल्लिवि सयल अवक्खडी जिय विंचंतउ होइ ।
चिंतु णिवेसहि परमपए देउं णिरंजणु जोइ ।।115।।
इस दोहे में आचार्यदेव बतलाते, हैं कि समस्त चिंताओं को छोड़कर निश्चित होकर हे जीव ! अपने चित्त में परमपद को लगाकर इस निरंजन देह को देखो । समस्त चिंताजालों को छोड़कर अपने आत्मस्वरूप को देखो । चिंता-जाल क्या-क्या हैं? दुःखी होना? भोगों की इच्छा करना चिंता ही तो है ।
नारद जब सीता से अप्रसन्न हो गए उस समय का दृश्य देर के कि सीता दर्पण में अपने सिर का श्रृंगार देख रही थी । नारद की विकराल फोटो उसी समय जस दर्पण में पड़ी । उस समय नारद के लंबे-लंबे बाल बिखरे हुए दर्पण में झल के थे । जब सीता ने एक विकट मूर्ति उस दर्पण में देखी तो कुछ डरकर अपना स्थान छोड़कर भीतर घुस गई । नारद तो बड़े पवित्र जीव थे । राजाओं के यहाँ रानियों के पास भी नारद चले जाते तो राजाओं को एतराज न होता था । नारद विश्वासी पुरुष थे । नारद ने सोचा कि सीता तो हाथ जोड़कर विनयपूर्वक पेश आयगी, मगर वह तो मुँह बनाकर अंदर भाग गई । नारद को बुरा लग गया । नारद ने सोचा कि मैं इसका बदला चुकाऊँगा । सो सीताजी की कागज पर बड़ी सुंदर मूर्ति बनाकर विद्याधर की नगरी में जाकर भामंडल के सामने डाल दी । अब भामंडल उसे देखकर अधीर हो गया । सीता व भामंडल सगे भाई-बहिन थे । उत्पन्न होते ही देव-कृपा से वे बिछुड़ गए थे । उन्हें कुछ पता नहीं था । भामंडल ने
आहार छोड़ दया अथवा बेवकूफी करने लगे । अब मां-बाप को चिंता हुई । पूछा इस मूर्ति को लाया कौन है? पता मिला कि नारद लाये हैं । तो अब सीता की खोज के लिए भामंडल चले कि यह हो मेरी स्त्री बने । पर जब बीच जंगल में पहुंचे तो जगह का स्मरण हुआ । उस समय ख्याल हुआ कि अरे ! सीता तो मेरी बहिन है । फिर क्या था? सारा मोह-कलंक दूर हो गया और व्रत व नियम ग्रहण किया ।
यहां है क्या? दुःख होते हैं तो भोगों की इच्छा से । भोगों की बात सुन ली जाये तो उससे भी बेचैनी हो जाती है । अभी कोई बता देवे कि कल उस मोहल्ले में ऐसा बढ़िया सिनेमा या सर्कस आया है सुना ही तो है, मगर बेचैनी हो गई । कोई बात सुन ली । अभी भोजन की ही चर्चा छिड़ जाये; कोई भोजन की ही बात बतलाता है कि मैंने तो यह चीज खाई है तो झट मन चलने लगेगा वैसा भोजन करने को । तो भोगों की इच्छा भी बेचैनी कर देती है और अनुभूत भोगों की इच्छा तो बेचैनी करती ही है । ये आकांक्षाएं ही अपध्यान हैं, ये ही समस्त चिंताएँ पाप की जड़ हैं । इनको छोड़कर निश्चिंत होकर हे भव्य जीव ! अपने चित्त में परमात्मस्वरूप को स्थिर करो । भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म के अंजन से रहित शुद्ध ज्ञाताद्रष्टामात्र परम आराध्य इस शुद्ध आत्मा का ध्यान करो । अपध्यान मत करो ।
अपध्यान का लक्षण स्वामी समंतभद्राचार्य ने बतलाया रत्नकरंड-श्रावकाचार में कि स्त्री, पुत्र, मित्रों का द्वेष का, राग का बंधन, छेदन, पीड़न नुकसान आदि बातों का ध्यान किया जाये तो यह सब अपध्यान हैं । इस अपध्यान का फल तो देखो―स्वयंभुरमण समुद्र में, जो सबमें अंतिम हैं, और जितना उसका विस्तार है उतने विस्तार में असंख्यात समुद्र और असंख्यात द्वीप समा गए । इतने बड़े विस्तार वाले समुद्र में जो मच्छ रहते हैं वे बड़ी विशाल काया वाले होते हैं । लाखों कोस लंबे चौड़े वे मच्छ रहते हैं । वे बड़े मच्छ मुँह बाये पड़े रहते हैं और उनके मुख में हजारों बड़े मच्छ फिरते रहते हैं । वे दिन-रात मुँह बाये फैलाये पड़े रहते हैं ।
ढाई द्वीप के भीतर भी जो समुद्र है उनमें तो दो-चार मील की लंबी मछली सुनी गई हैं । अंतिम समुद्र में हजारों कोस के लंबे मच्छ होते हैं । वहाँ आदमी नहीं बसते है, पर कूड़ा करकट इकट्ठा हो जाता है, बड़े-बड़े पेड़ झाड़ियां उग जाती हैं, जब वे मच्छ करवट लेते हैं तो सारे झाड़ खत्म हो जाते हैं । ऐसे बड़े मच्छ दिन-रात पड़े रहते हैं । हजारों मच्छियां उनके मुख में आती-जाती हैं । कभी 2-4 दिन में अपना मुख दाब लिया और भूख मिटा लिया । बड़े मच्छ के कानों में या आँखों में रहने वाले छोटे मच्छ सब देखते रहते हैं और सोचते रहते हैं कि यह मच्छ बड़ा मूर्ख है । हजारों मच्छियां मुख में आ जाती हैं, फिर भी नहीं खाता । यदि इसकी जगह पर हम होते तो एक को भी न छोड़ते । ऐसा अपध्यान वे मच्छ करते हैं और इससे वे 7 वें नरक में जाते हैं और यह बड़ा मच्छ छठे नरक में जाता है ।
गृहस्थों को दो ही काम तो हैं―एक धर्मप्रभावना और एक आजीवि का । व्यर्थ की यहां-वहां की विडंबना करना, आलोचना करना―ये सब व्यर्थ के काम हैं । इनसे न तो अपनी आजीविका का संबंध है और न उद्धार का संबंध है । ऐसे व्यर्थ के अपध्यान को छोड़कर हे कल्याणार्थी पुरुषों ! परम आराध्य इस निज शुद्ध आत्मा का ध्यान करो ।
निज शुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान किए जाने पर जो सुख उत्पन्न होता है उस सुख का अब तीन दोहों में वर्णन करते हैं । निज शुद्ध आत्मा के लिए शिव विशेषण दिया है । कोई कहे कि शिव की उपासना करो । उसका अर्थ है कि जो शुद्धज्ञायकस्वरूप है उसकी उपासना करो―