वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 15
From जैनकोष
देहविभिण्णउ णाणमउ जो परमप्प णिएइ ।
परमसमाहिपरिटि्ठयउ पंडिउ सो जि हवेइ ।।15।।
लोक में जितने आत्मा हैं वे तीन प्रकार के हैं । उनमें कोई तो बहिरात्मा, कोई अंतरात्मा और कोई परमात्मा है । आत्मा शब्द सबमें लगा है । जिसकी दृष्टि बाह्य पदार्थों में है कि यह मैं हूँ, यह मेरा है, वह जीव तो बहिरात्मा है । जिसकी दृष्टि अंतर में लगी हो, सहज ज्ञानस्वरूप में लगी हो कि यह मैं आत्मा हूँ, वह अंतरात्मा है और जो परम हो गयाहै वह परमात्मा है । परम का अर्थ है पर माने उत्कृष्ट माने ज्ञान लक्ष्मी, अर्थात् ज्ञान जिसके पूर्ण प्रकट हो गया है उसे कहते हैं परमात्मा । जो पुरुष परम समाधि में स्थित हो, देह से भिन्न ज्ञानमय परमात्मा को जानता हो उसे अंतरात्मा कहते हैं ।
परमात्मदेव दो जगह देखा जाता है । एक तो अरहंत और सिद्ध देवों में और दूसरे अपने आत्मा में । अरहंत और सिद्धदेव तो प्रकट सर्वज्ञ वीतराग हो गये हैं । और आत्मा में परमात्मत्व स्वभावरूप ध्रुव है तो अंतरात्मा कहते हैं । जो अपने सहज ज्ञानस्वरूप को निरखे । मेरा स्वरूप जैसी परमात्मा की छटा है वैसा यह अव्यक्त स्वरूप है । है वही स्वरूप अन्य नहीं है । जैसे जल का स्वभाव और निर्मल जल इन दोनों का वर्णन एक ही प्रकार का है । कोई पूछे कि निर्मल जल कैसा होता है? तो कहते हैं अत्यंत स्वच्छ और जल का स्वभाव कैसा होता है? अत्यंत स्वच्छ । इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव कैसा है? जैसा परमात्मा का स्वभाव है, तो स्वभावदृष्टि से अपने आत्मा में परमात्मतत्त्व देखा जाता है । यह अंतरात्मा का स्वरूप कह रहे हैं कि जो पुरुष परम समता परिणाम में ठहर कर अपने आत्मा में इस देह से भिन्न परमात्मस्वरूप को जानता है उसको अंतरात्मा कहते हैं । बहिरात्मा हेय है अंतरात्मा कथाचित् उपादेय और परमात्मा सर्वथा उपादेय है । बहिरात्मापन छूट जाय, परमात्मापन की प्राप्ति हो जाये इसका उपाय है अंतरात्मा होना । अर्थात् सर्व कल्याणों का उपाय एकमात्र यह ही है कि देह से निराले अपने आप में नित्य विराजमान शुद्ध ज्ञानस्वरूप को देखो लोक में बाहर दृष्टि करने पर सर्वविवाद विसम्वाद ही नजर आते हैं । एकमात्र अपने स्वभाव के निरखने में किसी प्रकार की अशांति नहीं है । यह जीव अपने स्वरूप को भूलकर लोक में अनेक आशाएँ और इच्छाएँ बनाता है । बस आशा इच्छा प्रतीक्षा यही तो दुःख है । वैसे इस जीव को किसी प्रकार का क्लेश नहीं है ।
भैया ! यदि यह यथार्थ पदार्थ का ज्ञाता रहे किसी भी चीज जानने के लिए दो बातें समझनी पड़ती है (1) इसको अन्य वस्तुओं से भिन्न जानना और इसके अपने आपके स्वरूप में पूर्ण तन्मय जानना है । जैसे यह अंगूठा और यह अंगुली है, यह अंगुली अंगूठे से अत्यंत जुदी है और यह अंगुली अपने स्वरूप में तन्मय है । इसी प्रकार अपने आपको भी देखो कि यह मैं आत्मा समस्त परपदार्थों से न्यारा हूं और अपने आपके स्वरूप में तन्मय हूँ तब मेरी सत्ता है । में किसी परपदार्थ में घुल मिल जाऊँ तो मेरी सत्ता नहीं है या मैं अपने स्वरूप को छोड़ दूं तो मेरी सत्ता नहीं रह सकती । अपने आपको इस प्रकार देखो कि मैं सबसे न्यारा हूं और अपने स्वरूप में तन्मय हूँ । यही शुद्ध आत्मा की दृष्टि कहलाती है । इसको ही एकत्व विभक्त कहते हैं ।
भैया ! एकत्व और अन्यत्व इन दो भावनाओं का जो स्वरूप है वही शुद्धतत्त्व के देखने में होता है । इस शुद्धता के प्राप्त करने का उपाय है समता । किसी प्रकार का रागद्वेष सता रहा हो तो अपने आपका परमात्मस्वरूप नहीं देखा जा सकता है । यह समाधि तो शुद्ध आत्मा के अनुरूप है । अपने को सबसे न्यारा किसी के यहाँ कोई तुम्हारा पुत्र नहीं, परिवार नहीं, तुम्हारा तो शरीर तक भी नहीं है । यह तो केवल ज्ञानस्वरूप है―ऐसी अपने आत्मा की सुध लो । अपने अंतरात्मा की सुधी लेने का नाम है विवेक । पंडिताई, और आत्मा की सुधि भूलकर बाहरी पदार्थ में हित ढूंढना, बाहरी पदार्थों से अपना बड़प्पन मानना यह सब कहलाती है मूढता, बहिरात्मापन । यह मैं आत्मा स्वभाव से वीतरागी हूँ । रागद्वेष आदि विकार से रहित हूँ । यह मैं आत्मस्वभाव से संकल्प विकल्प से परे हूँ । यह मैं आत्मा सहज आनंद स्वरूप हूँ । इस शुद्ध आत्मा का अनुभव होना यही परम समाधि है । जो परम समाधि में स्थित होता है यह पंडित विवेकी अंतरात्मा होता है । पंडित कौन कहलाता है? जो विवेकी है । पंडाम् इति पंडित: । भेद विज्ञान जिसको प्राप्त होता है उसको पंडित कहते हैं । वही अंतरात्मा है और वही परमात्मा होता है ।
भैया ! संसार के इन जीवों पर दृष्टि दो तो मालूम होगा कि हमने कितनी उच्च स्थिति पाई है? प्रथम तो निगोदिया जीव, जिनकी चर्चा ही करना कठिन है वे दिखने में नहीं आते हैं, सर्वत्र भरे हुए हैं । एक आलू के जरा से खंड में अनंते निगोदिया जीव पाये जाते हैं । और जो मूली, प्याज इत्यादि हैं उनमें भी अनंते निगोदिया जीव पाये जाते हैं । जो साग सब्जी खरीदते हैं वे यह भी सोचते हैं कि 2 पैसे की सब्जी में रोंगन भी खरीद लें । और सो उस दो पैसे के रोंगन में और भी अनंते निगोदिया जीव आ गये । अनंते निगोदिया जीव इस रोंगन में ही बिका करते हैं । उन साधारण वनस्पतियों से निकले तब पृथ्वी जल अग्नि वायु व प्रत्येक वनस्पति हुए, वहाँ घोर दुःख उठाये । यह हमारी आपकी चर्चा चल रही है कि कितनी-कितनी योनियों को भुगतकर आज मनुष्य पद में आये हैं ।
उन एकेंद्रियों से निकले तो दो इंद्रिय हुए । दो इंद्रिय जीव होना भी बड़ा कठिन है । जिह्वा मिल जाय तो पदार्थों का रस चखने का आनंद ले सकें । ऐसा क्षयोपशम होना यह एकेंद्रियों से तो कठिन चीज है । दो इंद्रिय तो बनें । इसके बाद तीन इंद्रिय हुए, फिर चार इंद्रिय हुए, फिर पंचेंद्रिय हुए । 5 इंद्रियां मिल गयी तिस पर भी असंज्ञी हुए तो अपने कल्याण का मार्ग नहीं मिल पाता है । संज्ञी जीव हुए तो पशु बन बैठे । भला बतलावो इसमें कौनसी स्थिति होगी? यह मनुष्यभव कितना दुर्लभ मिला है । सो जगत के जीवों पर दृष्टिपात करके अंदाज करलो । मनुष्यों में भी तो निम्न जातियां हैं । निम्न कुल में हुए, गरीबी की दशा, दीनता की दशा रही । यदि मनुष्य होकर भी दीनता की हालत मिली तो उसका ही दुःख मानते रहे, फिर मनुष्य बनकर क्या लाभ पाया?
आज हम आप मनुष्य हैं, उसमें भी उत्तम कुल मिला, उत्तम धर्म मिला, उत्तम बुद्धि मिली, सर्व प्रकार की साधन संपन्नता है । ऐसी स्थिति है तिस पर भी केवल विषयों की ओर ही दौड़ लगा रहे हैं, केवल परिग्रहों की ही, बड़प्पन मानने की ही श्रद्धा बनी हो मनुष्य होकर भी हमने क्या किया? हमारा कर्त्तव्य है कि हम विवेकी बनें, अंतरात्मा बनें । इस देह से भी भिन्न अपने शुद्ध ज्ञानस्वरूप को तको, सब इंद्रियों को संयत करो, मन को नियंत्रित करो, कुछ न सोचो, कुछ न देखो, कुछ न सूंघो, कुछ न चखो । कुछ भी न सोचो क्योंकि उन बातों से लाभ कुछ भी नहीं होता ।
सब इंद्रियों के धामों को बंद करके विश्रामपूर्वक अपने आप में बैठो और इस प्रकार अपने आपको निरखो कि यह मैं जाननस्वरूप हूँ । केवलज्ञान प्रकाश रूप अपने आपको निरखो तो वहाँ अपने स्वरूप का परिचय होता है, किंतु इसके विरुद्ध यदि अपने आपको देख रहे हैं कि मैं गरीब हूँ, मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ, धनी हूं, अमुक हूँ, परिवार वाला हूँ, स्त्री हूँ, पुरुष हूँ, गृहस्थ हूँ, साधु हूँ, त्यागी हूँ, मुनि हूँ, कितने ही रूपों से अपने को देखते हैं तो क्या हालत होगी? सो यही देख लेना ये जगत में रुलाने वाले जीव हैं, ऐसी ही हालत होगी । इन-इन रूप मैं नहीं हूँ मैं तौ शुद्ध एक ज्ञानस्वभाव मात्र हूँ । ऐसा अपने आपमें आप निरखें तो उसे कहते हैं अंतरात्मत्व ।
‘‘बहिरात्मता हेय जानि तजि अंतर आतम हूजै परमातम को ध्याय निरंतर जो नित आनंद पूजै ।।’’ बहिर्बुद्धि को तो छोड़ो, अंतरात्मा को ग्रहण करो और परमात्मस्वरूप का निरंतर ध्यान करों । कल्याण के लिये यह एक करणीय बात रहेगी और चाहे बहुत से यत्न कर डालो पर लाभ कुछ न मिलेगा । यह धन वैभव का समागम इस पूर्वकृत कर्मों का फल है । यह वर्तमान आत्मा के भावों का, इच्छा के परिणामों का फल नहीं है । धन की प्राप्ति अपने आप होती है पुण्य का उदय पाकर । अपना कर्त्तव्य तो यह है कि यथार्थ धर्मपूर्वक रहे इसमें ही लौकिक सिद्धि है और पारलौकिक सिद्धि भी । शुद्ध ज्ञान अर्जन करो, अपने आपको सबसे निराला अछूता ज्ञानस्वभाव मात्र देखो ।
देखिये स्थिति कुछ भी हो, किंतु अपने को शुद्ध दिखेगा तो यथा संभव शुद्ध दर्शन का स्वाद आयेगा । और घर छोड़कर एकांत जंगल में भी बस जाय किंतु अपने को अशुद्ध तके तो वहाँ अशुद्ध का ही स्वाद आयेगा । एक बार बादशाह की सभा में सब लोग बैठे थे । बीरबल को नीचा दिखाने के लिये बादशाह ने एक बात छेड़ दी । बोला―बीरबल आज मुझे ऐसा स्वप्न आया कि हम तुम घूमने जा रहे थे । रास्ते में दो गड्ढे मिले । एक में भरा था गोबर और दूसरे में भरी थी शक्कर । तो पहले गड्ढे में आप गिर गये और दूसरे में मैं गिर गया तो जिस गड्ढे में मैं गिर गया वह तो शक्कर का गड्ढा था और जिसमें आप गिर गये वह गोबर का गड्ढा था । बीरबल ने कहा महाराज मालूम होता है कि हमारा और आपका एक ही चित्त है । हमने भी ऐसा ही देखा पर इसके आगे और भी कुछ देखा कि आप हमें चाट रहे थे और मैं आपको चाट रहा था । अच्छा यह बतलावो, बादशाह क्या चाट रहा था? गोबर, और बीरबल क्या चाट रहे थे? शक्कर । देखो बीरबल पड़े हैं गोबर के गड्ढे में पर स्वाद किसका ले रहे हैं? शक्कर का । और बादशाह किसका स्वाद ले रहे हैं? गोबर का । इसी प्रकार हम आपकी भी स्थिति हो रही है । कोई गृहस्थी के समागम में पड़ा हुआ है पर गृहस्थी से उसे सम्वेग है, वैराग्य है, आत्मस्वभाव की प्राप्ति के लिये बड़ी उत्सुकता है तो घर में रहकर भी धन वैभव कमाई में ही अधिक ध्यान न कर अपने आपके ज्ञानस्वरूप में लीन हो रहे हैं । और कोई पुरुष घर त्याग करके बड़ी तपस्या सहित अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं किंतु उनके भीतर विषयों की वांछा नहीं गयी तो वे स्व में लग रहे हैं कि विषयों में, संसार में?
भैया ! जिसकी जैसी दृष्टि होगी वैसा ही उसका निर्माण होगा । इस कारण हम अपनी दृष्टि को स्वच्छ ज्ञानपूर्ण बनाएँ जिससे हम सुखी हो सकें । इस वैभव को महत्व न दो । जिस किसी भी प्रकार धन बढ़ाने की चाह न करो । अपना श्रद्धान आचरणरूप ज्ञानरूप रहा तो उस वृत्ति से अपना कल्याण होगा । इसके लिये अनेक यत्न करके भी, अपना तन, मन, धन, वचन न्यौछावर करके भी ज्ञान की प्राप्ति करना चाहिये और अपनी दृष्टि में यह श्रद्धा रखना चाहिये कि इस लोक में सर्वोत्कृष्ट वैभव है तो आत्मतत्त्व का शुद्ध ज्ञान है । इससे बढ़कर और कोई वैभव नहीं है । मान लो धन में हजारपति से लखपति हो गये । आखिर है तो आत्मा केवल ज्ञानस्वरूप । उसमें क्या पहुंच गया, वहाँ भी कुछ आदर होता है तो उस धनी के उदार भावों रूपकर भावों से ही तो कर रहे हैं । उत्थान क्या किया?
जब तक विवेक नहीं जागता है तब तक प्रत्येक स्थिति में अपने विकारों का ही स्वाद लिया जाता हैं । अविकारी ज्ञानस्वरूप का स्वाद आना यह सबसे दुर्लभ वैभव है । ‘‘धन, कन, कंचन, राज, सुख सबहिं सुलभ कर जान । दुर्लभ हैं संसार में एक यथारथ ज्ञान’’ सब चीजें मिल जायें किंतु एक यथार्थज्ञान का पाना अत्यंत दुर्लभ चीज है । हम सब जीवों को देखते हैं । सबको हम इस शरीर रूप में देखते हैं तो जैसे अपने आपको अपने शरीररूप देखना बहिरात्मापन है, इसी प्रकार दूसरों को इस शरीररूप देखना यह भी मूढ़ता है, बहिरात्मापन है । जैसे हम आपको शरीर से भिन्न ज्ञानमात्र तकते हैं इसी प्रकार इन सबको भी इस शरीर से भिन्न, अपने स्वरूप को ज्ञानमात्र देखो । यही प्रभु है, हम सब जीवों को प्रभु के स्वरूप में देखें और उनसे व्यवहार करते समय यथासंभव यह दृष्टि बनाओ कि यह प्रभु है जिसकी बात कर रहे हैं । भले ही इसकी प्रभुता रागद्वेष के कारण तिरोहित हो गई है यह प्रभु है ।
यदि हम इन सब जीवों को प्रभु के स्वरूप में देखते हैं तो उससे हमारा कल्याण है और इन्हें इसी अशुद्धपर्याय के रूप में देखते हैं तो इसमें शुद्धदृष्टि पहिले बन गयी । जब तक हम इसको अशुद्ध देखेंगे तब तक हमारे बंधन के ही परिणाम बने रहेंगे । हम जीवों के गुणों की ओर दृष्टि दे । यद्यपि ये संसारी जीव स्वभाव से तो गुणमय हैं किंतु उपाधिवश से परिणति कुछ दोष रूप हो गई है । पर वहाँ यदि हम दोषरूप देखते हैं तो हमें पहिले अपनी दृष्टि मलिन बनाना पड़ेगा और यदि हम ज्ञानरूप देखते हैं तो हमें अपनी दृष्टि पहिले निर्मल बनानी पड़ेगी । इसलिये सर्वत्र हम गुणरूप दृष्टि बनाएं, दोषरूप दृष्टि न बनाएं ।
पूजा पढ़ने के बाद अंत में शांति पाठ के समय पढ़ते हैं ना ‘‘शास्त्राभ्यासो जिनगितनुति: संगति: सर्वदायै: सद्वृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम । सर्वस्यापिप्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वें । संपद्यंतां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्ग: ।। हे प्रभु ! जब तक मुझे अपवर्ग ने मिले, मोक्ष न मिले तब तक ये सात बातें मुझमें बनी रहें । प्रथम तो शास्त्राभ्यास, शास्त्र का पढ़ना यह जिनवाणी मेरे पालन पोषण के लिये माता की तरह है इसलिये जिनवाणी को माता कहते हैं । जैसे माता पुत्र के दोषों की परवाह नहीं करती, केवल हित की परवाह किया करती है इसी प्रकार यह जिनवाणी इन दोषी जीवों के दोषों की परवाह नहीं करती । एकदम हित की बातें बनाने करने में लगीं रहती है । इस तरह हित ही प्राप्त होता है । शास्त्रों का अभ्यास करना यह मूल कर्तव्य है । दूसरा काम है भगवान् जिनेंद्रदेव के चरणों का ध्यान बना रहे, उनमें मेरा परिणाम बना रहे, यह दूसरी बात मानी है । किसने? पूजा करने वाले ने । तीसरी बात कहते हैं कि सदा श्रेष्ठ पुरुषों की संगति मिले । चौथी बात कहते हैं कि सद्वृत्तों के गुणगान की कथा बराबर बनी रहे । किसी जीवों बारे में बोलो तो दूसरों के गुणों को बोलो । दूसरे मनुष्यों की प्रशंसा आप करेंगे तो उसमें क्लेश आपको अंतर में न करना पड़ेगा और बड़े आनंद का आप भोग करेंगे और सुनने वालों का कुछ डर न रहेगा ।
पांचवीं बात है किसी की निंदा न करना । किसी की निंदा करें तो आपको संक्लेश उत्पन्न करना पड़ेगा । जब आप अपने को सताकर बुरे परिणाम बनायें तब दूसरों की निंदा करने में आपका साहस होगा और जिसकी आप निंदा करेंगे वह आपको क्या पुरस्कार देगा ? पुरस्कार क्या देगा ? निंदा करने का परिणाम तो अच्छा न मिलेगा । परिणाम ही यही मिलेगा कि आप अपने में संक्लेश उत्पन्न करेंगे । दूसरे पुरुषों को नीचा दिखाना, अपने आपको ऊँचा निरखना इसके फल में विपत्ति ही आती है । जिसकी निंदा की उससे कुछ न कुछ भय का परिणाम बना और निंदा करने के बाद जो कुछ उत्तर मिलेगा वह आपको ही भोगना पड़ेगा । कर्मबंधन होगा । कर्मबंधन से संसार में रुलने की बात बना ली । कितना अवगुण है और सिद्धि कुछ भी नहीं है । जीवों की बुराई करना, भाई की, पड़ौसी की, मित्र की बुराई करना क्या यह व्यर्थ का श्रम नहीं है? किसी धनी की, किसी पं0 की जिसकी आप बुराई चाहते हैं यदि कोई बुराई का प्रसंग छिड़ जाय तो चाहे रात्रि के 11 बज जायें तो भी नींद का कोई काम नहीं है खुद बुरे हैं सो बुराई चाहते हैं तो इससे बढ़कर अनर्थ और कहो क्या हो सकता है? व्यर्थ विवाद में तो समय ही खोते हैं, लाभ कुछ नहीं मिलता है । जब उठकर घर जाते हैं तो अपने को रीता और शून्य अनुभव करते हुए जाते हैं । अगर कोई गुण की बात छिड़ जाय गुणगान में ही समय व्यतीत हो तो उस चर्चा को सुनकर जब घर जाते हैं तो ऐसा लगता है कि कुछ-कुछ लेकर जा रहे हैं, कुछ-कुछ भरपूर होकर जा रहे हैं । इतनी दृष्टि करने में कितने गुण हैं । ऐसी ही दृष्टि करने में संपत्ति मिलती है । इसके विपरीत दृष्टि करने में विपत्ति मिलती है । पर मोही जीव विपत्ति मिलने की ही दृष्टि बनाना सुगम समझता है और पारमार्थिक संपत्ति मिलने की दृष्टि को कठिन मान रहा है ।
भैया, खूब सोच लो इस जगत् में हमें क्या करना है? आपको क्या करना है? यह जगत् बिखर जायगा, ये समागम बिखर जायेंगे, इस तरह से कुछ भी हाथ न रहेगा । केवल अकेले यह यहाँ से जायगा । क्या होगा इसका? जैसा जीवनभर परिणाम किया है उसके अनुसार ही इसकी सृष्टि होगी । यहाँ तो अपना गौरव और पोजीशन बनाने में माया छल करके अपना काम बना रहे हैं पर मरने के बाद अपना पोजीशन बनाने में छल माया काम नहीं कर सकता । जिस पर्याय में उत्पन्न होने का काम बन गया हैं तो मरने के बाद चाहे कैसा ही बड़ा पुरुष हो उसका छल नहीं चल सकेगा, वैसी ही गति वैसी ही चेष्टा हो जायगी जैसा उसने परिणाम किया था तो हमें परिणामों का बड़ा ध्यान करना चाहिये । इस थोड़े से वैभव को कमाने के लिये कुछ बेइमानी बर्ती जाती है, छल किया जाता है किंतु इसका परिणाम अंत में बड़ा भयंकर बनता है । कुबुद्धि के कारण धोखा अन्याय भी करते हैं, कुछ दिन वैभव का समागम रहा फिर समाप्त हो गया । इन वैभवों में कषाय बुद्धि रहने के कारण पापबंध किया । परिणाम मलीन किया था सो पापबंध बहुतसा बना लिया था अब पापों का उदयकाल आ गया तो वैसी ही परिस्थिति बन गई । अगर सच्चाई, दूसरे की भलाई का भाव रखते हो तो उसका फल अच्छा होगा । चाहे आज कुछ वैभव में घाटा हो जाय किंतु इस शुद्ध परिणाम में जो पुण्य बंध किया है उसका उदयकाल आने पर नियम से सुख साता होगा । अपने परिणाम ही तो सब कुछ कमाई किया करते हैं । तो सर्वप्रकार का उद्योग करके अपने आत्मा का सही दर्शन, ज्ञान और आत्मा का आदर बना रहे यह सर्वोत्कृष्ट अपना कर्तव्य है ।
भैया ! यहाँ सुख के लिये मंदिर आते हैं, दर्शन करते हैं, स्वाध्याय करते हैं । ऐसा करते तो हैं पर विधिपूर्वक ज्ञानरूप वर्ते तो कल्याण है । ज्ञानार्जन की विधि यह है कि आप पहिले तो वर्षभर में एक माह कम से कम और डेढ़ दो माह बन सके तो और अच्छा, घर छोड़कर कहीं चले जावो जहां पर कि कुछ ज्ञान की शिक्षा मिले और साथ ही वैराग्य और चारित्र की वृद्धि हो सके । फिर घर आ जावो । हम घर छोड़ने की बात नहीं कह रहे हैं । दूसरी बात यह है कि जो 11 महीने बाकी रहे उनमें विधिवत् शास्त्र स्वाध्याय कम से कम एक घंटा करें । तीसरा काम यह है कि कोई एक पुस्तक ले लें जिसको विद्यार्थी की तरह पड़े और उसकी लकीरें भी याद रख सकें और बोल सके । ये तीन बातें चलती रहीं तो ज्ञानवृद्धि क्यों न होगी? आप सोचते होंगे कि वर्षों गुजर गये बड़ा स्वाध्याय किया और ज्ञान न बढ़ा तो पहिले आपको इन तीन बातों का प्रयोग करना चाहिये । इन तीनों बातों का प्रयोग करके देखो कि ज्ञानवृद्धि कैसे नहीं होती ? ज्ञायकस्वरूप ही एक सार है, वही साथ जाने वाला है, इसलिये ज्ञान की उपासना में लगना चाहिये ।
परमात्मा कौन होता है? जो समस्त परद्रव्यों को छोड़कर केवल ज्ञानमय, कर्मरहित, शुद्धात्मा को उपयोग द्वारा प्राप्त करता है वही परमात्मा होता है । शुद्धात्मा का अर्थ हैं निराला, अविकारी । शुद्ध पर्यायों वाला नहीं, किंतु आत्मा के अस्तित्त्व वाला, भिन्न तत्त्वों वाला परद्रव्यों से रहित अपने स्वरूपास्तित्व मात्र निजतत्त्व को अपने को शुद्धात्मा कहते हैं । केवल अपने को सबसे निराला भर देखना है तो स्वरूप भी अवगत हो जायगा । सबसे निराले का नाम शुद्ध है । जिसे इंगलिश में कहते हैं प्यौर । प्यौर का अर्थ है खालिस, केवल । इसे ही शुद्ध कहते हैं और शुद्ध होने के लिये उपाय भी यही किया जाता है । जैसे चौकी पर चिड़िया वगैरह की बीट लग गई है तो वहाँ कहते हैं कि चौकी को शुद्ध करो । वह मनुष्य क्या करता है? चौकी के अतिरिक्त जितने परपदार्थ हैं, जितने परद्रव्य इस चौकी से चिपके हैं उन सबको अलग करता है । यही चौकी को शुद्ध करने का उपाय है । केवल खालिस रह जाने को ही शुद्ध कहते हैं । जो परद्रव्यों को छोड़कर अर्थात् समस्त परद्रव्यों को अपने में न मानकर केवल ज्ञानमय शुद्धआत्मतत्त्व देखता है, वह परमात्मा होता है । इस बात का इस गाथा में वर्णन करते हैं ।