वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 17
From जैनकोष
तिहुयण वंदिउ सिद्धिगड हरिहर झायहिं जो जि ।
लक्खु अलक्खे धरिवि थिरु मुणि परमप्पउ सो जि ।।17।।
परमात्मा का स्वरूप स्पष्ट रूप से इस दोहे में कहा जा रहा है जो त्रिभुवन वंदित है, तीनों लोक जिसकी बदना करते हैं । तीन लोक हैं (1) ऊर्ध्वलोक (2) मध्यलोक (3) अधोलोक । ऊर्ध्वलोक के पति देवेंद्र, मध्यलोक के पति राजा और सिंह, अधोलोक के पति भवनेंद्र व्यंतरेंद्र । इन इंद्रों ने जब परमात्मदेव की वंदना की है तो इसका अर्थ है कि तीनों लोकों ने इसकी वंदना की है । वह परमात्मप्रभु शुद्धि प्राप्त है, अपने गुणों की संपूर्ण शुद्धि को प्राप्त है । केवलज्ञान, केवलदर्शन अनंतानंद शक्ति करके संपन्न है । ऐसे परमात्मदेव का हरिहर, हिरण्य, गंधर्व आदि ध्यान करते हैं । क्या करके ध्यान करते हैं कि लक्ष्य को अलक्ष्य में स्थिर करके, (अलक्ष्य को लक्ष्य में स्थिर करके) लक्ष्यों को अलक्ष्यों के द्वारा धारण करके । लक्ष्य है अपना मन जो लक्ष्य में आता है । उस लक्ष्य से अलक्ष्य वीतराग निर्लेप नित्यानंद स्वभावी परमात्मा को चित्त में धारण करके हरिहरादिक ध्यान करते हैं । कैसा है वह परमात्मदेव स्थिर है । जिनके सर्ग विसर्ग और उपसर्ग आता नहीं है, ऐसे परमानंद को हे प्रभाकर भट्ट ! परमात्मा समझो, परमात्मा जानो ।
परमात्मा वीतराग और निर्लेप होता है । उनका ध्यान करने से कहीं वह भगवान प्रसन्न होकर अपनी जगह छोड़कर भक्त को सुखी करने के लिये परिश्रम करने नहीं आता । वह समस्त ज्ञेय का ज्ञायक है फिर भी अपने आनंद रस में लीन है । किंतु यह भक्त अपने उपयोग से जब परमात्मस्वरूप का विचार करता है, उनकी उपासना करता है उस कारण भक्त में अपने ज्ञान का प्रभाव प्रकट करता है । अपने ज्ञान का विकास होना यही आनंद का हेतु है । इस कारण जैसे दर्पण के सामने मुख करने से मुख करने वाले का मुख स्वयमेव दिख जाता है इसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप में अपना उपयोग लगाने वालों को समस्त निजी वैभव स्वयमेव प्रकट हो जाते हैं । भगवान केवल ज्ञानानंदादि की व्यक्तिरूप मुक्ति को प्राप्त है ।
प्रभुदर्शन से हम सीखें कि परमात्मा के सदृश रागादि रहित आनंदमय परमात्मा साक्षात् उपादेय है । जिस कार्य में अपना यथार्थ प्रयोजन सिद्ध न हो उस कार्य की वांछा विवेकीजन नहीं करते हैं । तो परमात्मा स्वरूप की उपासना में यदि अपना यथार्थ प्रयोजन नहीं निकलता है तो वह प्रभु अन्य लोगों की तरह एक बड़ा है । इसलिये उनकी दासता कर ली है, इससे प्रयोजन कुछ नहीं निकलता । किंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे हम अपने ज्ञान से यदि विषय कषायों के साधनभूत कुटुंब परिवार आदि का ध्यान करते हैं तो वहां मोह मलिनता आदि विकार हस्तगत होते हैं, वैसे ही स्वयं वीतराग शुद्ध ज्ञानमय परमात्मदेव की उपासना करते हैं तो इस ज्ञान में स्वयमेव ही ज्ञान का विकास होता है ।
जगत में सुख और दुःख ज्ञान की कला पर निर्भर हैं । ज्ञान ही आपकी सर्वसंपत्ति है, सर्वसाधन है किंतु ज्ञानी अपने में कुछ हीनता का अनुभव करता है, अथवा किसी प्रकार का विकल्प बनकर अपने की दुःखों समझता है तो वह दुखी है और चाहे कितनी ही विपत्ति की स्थिति की प्राप्त होना पड़ा हो किंतु उस ज्ञान के द्वारा अपने आपको ऐसा निरखो कि यहाँ विपदा का क्या काम है? यह तो मैं अकेला ज्ञानमय, नित्य विराजमान हूँ । इसमें किसी परपदार्थ का प्रवेश ही नहीं है । विपदा क्या चोज है? मोहियों ने केवल कल्पना करके विपदा बनाया है । कोई इष्ट गुजर गया, लड़ का गुजर गया तो आत्मा में से क्यों निकल गया? कुछ धन की कमी हो गई तो आत्मा में क्या कमी हो गई? जरा धैर्यपूर्वक अपने आपको संभालो तो ज्ञात होगा कि यह पूरा का पूरा है, पूरा का पूरा था और पूरा का पूरा रहेगा ।
भैया ! इस श्लोक में कहते हैं पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णात् पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते वह पूर्ण हैं, यह पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण निकलता है । पूर्ण से पूर्ण ग्रहण करके, हटा करके भी पूर्ण शेष रहता है । यह श्लोक वेदांत सम्मत है, इसमें आध्यात्मिकता तो देखो । यह आत्मा पूर्ण है । यह स्वभाव पूर्ण है, वह परमात्मतत्त्व पूर्ण है । जितने जीव बैठे हैं ये सब पूर्ण हैं । पूर्ण का अर्थ पूरा है । यहाँ पूरे का अर्थ ऊधींमी नहीं समझना । जैसे किसी बच्चे को समझते हैं कि यह भगवान का पूरा है । पूर्ण का अर्थ है पूर्ण सत् । अधूरा नहीं । ऐसा कुछ भी पदार्थ नहीं है जो आधा बन पाया हो और कुछ न बन पाया हो । जितने भी सत् हैं वे सब पूर्ण सत् हैं । यह, मैं पूर्ण हूँ । यह मेरा स्वभाव पूर्ण है । इस पूर्ण आत्मपदार्थ में से जो भी परिणमन प्रकट होता है वह परिणमन भी पूर्ण है । पर्याय कोई अधूरी नहीं होती । पर्याय का समय एक है । एक क्षण में वह पर्याय पूर्ण होती है पर्याय के बनने में दूसरा समय नहीं लगता । इस पूर्ण में से पूर्ण ग्रहण कर लिया जाय तो भी यह पूर्ण ही बचा रहता है । अर्थात् पूर्ण द्रव्य से पूर्ण पर्याय होकर विलीन हो जाती हैं, फिर भी वह पूर्ण ही रहता है । यह समस्त पदार्थों का स्वरूप है ।
इस प्रकार पूर्ण आत्मपदार्थ में से पूर्ण-पूर्ण पर्यायें प्रकट हो जाती हैं और लीन हो जाती हैं किंतु यह आत्मपदार्थ पूर्ण का पूर्ण बना रहता है । यह मैं सत् हूँ, समस्त परपदार्थों से न्यारा और अपने स्वरूप मात्र हूँ, ऐसा यह मैं शुद्धात्मा साक्षात् उपादेय हूँ । किसको देखूँ? किसको जानूँ? किसको विचार कि जो मेरे लिए सत्य शरण बने? ऐसा जगत में क्या है जिसका आश्रय करने से हमें सत्य शरण मिलती है? ऐसा है यह मुझमें ही बसा हुआ । ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्त्व । इसका जिसे परिचय नहीं वह चाहे कितना ही वैभव संपन्न हो, कितनी लौकिक प्रतिष्ठा संपन्न हो किंतु उसने कुछ नहीं पाया । जिसने अपने आपके नित्य अंतःप्रकाशमान ज्ञान सामान्य स्वभावरूप अपने को समझ लिया, कुछ परवाह नहीं, फिर चाहे पूर्वकृत पापों के उदय में गरीबी कितनी ही हो, चाहे किसी से कुछ मांगकर उदर भरना पड़ रहा हो लेकिन वह आत्मा अमीर है । उसे संतोष और शरण का स्थान मिल चुका है ।
भैया ! जिस स्वरूप के जाने बिना जीवन बेकार है, दुर्लभ समागम भी बेकार हैं उस स्वरूप को जानने के लिये आचार्यदेव की एक प्रेरणा है । तुम अन्य में चित्त न लगावो, निज शुद्धात्मतत्त्व में अपना चित्त दो । यह शुद्ध आत्मा ही उपादेय है, जो संकल्प और विकल्प रहित है । बाह्य द्रव्यों में पुत्र मित्र स्त्री आदि चेतन तथा अन्य अचेतन द्रव्यों में यह मेरा है इस प्रकार का जो आशय है उसे संकल्प कहते हैं । और मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ इत्यादि रूपों में चित्त में हर्ष विषादादिक परिणाम हो सो विकल्प है, तो संकल्प और विकल्प का परित्याग करके अपने शुद्ध आत्मा की आराधना करो । बस करने योग्य काम यह ही तो है । बाकी तो सब गले पड़े काम हैं । जबरदस्ती के काम हैं । घर को महत्व न दो किंतु अपने आपमें निराला परिणाम रहे और भगवान्स्वरूप की भक्ति रहे ऐसे परिणाम को महत्व दो । अन्यथा घर के महत्व देने के भाव में इस जीव को कुछ हाथ न लगेगा । अंत में पापकलंक ही अपने साथ ले जायगा यह । इसलिये रंच भी अन्य चीज को महत्व न दो । गृहस्थ की शोभा इसमें ही है कि वह कीचड़ में कमल की तरह निर्लेप रहे । अपने धन वैभव परिवार को महत्व न दो, अपने ज्ञानस्वभाव को महत्व दो । अब वह परमात्मा किन-किन विशेषताओं के सहित है इसका प्रतिपादन करते हुए 17वें दोहे में कहा जा रहा है ।