वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 19
From जैनकोष
जो णियमाउ ण परिहरइ जो परभावण लेइ ।
जाणइ सयलु वि णिंचु पर सो सिउ संतुहवे ।।19।।
परमात्मा का और आत्मस्वभाव का वर्णन चल रहा है । जैसा परमात्मा का स्वरूप है वैसा ही अपना स्वभाव है । परमात्मा के स्वरूप में और अपने स्वभाव में अंतर नहीं है । इतनी बात को जो पहिचानता है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । परमात्मा कैसा है यह जब-जब बताया जाय तब अपने आपमें यह अर्थ लगाना कि मेरा स्वभाव ऐसा है, जो अपने भावों को नहीं छोड़ता है और पर के भावों में नहीं लगता है वह शिव और शांत कहलाता है, परमात्मा का भाव है अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतशक्ति । इनको वह नहीं छोड़ता । काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकार इनको ग्रहण भी नहीं करता है वह शिव और शांत है । ऐसा ही परमात्मा है, जो ऐसा है वही मैं हूँ ।
भैय्या ! वस्तु का सही ज्ञान करने के लिये तीन बातें जानना चाहिये (1) द्रव्य (2) गुण और (3) पर्याय । पर्याय तो विनाशीक होता है और द्रव्य व गुण अविनाशी होते हैं, जो चीजें मिट जायें वे सब पर्यायें हैं । ये काले पीले रंग दिखते हैं ये मिटते है या यों ही रहते हैं? मिटते हैं तो ये सब पर्यायें हैं । खट्टा मीठा रस गंध दुर्गंध आदि अनेक प्रकार के शब्द ये सब पर्याय हैं । और कोई मनुष्य है, कोई कीड़ा है, कोई पशुपक्षी है ये भी मिटने वाले हैं ना? हैं । तो ये सब पर्याय हैं । और ये जो हम आप मनुष्य हैं, जिनसे व्यवहार किया जा रहा है ये सब मिट जाने वाले हैं । ये भी पर्यायें हैं । पर्यायें बदलती रहती हैं । इन पर्यायों की आधारभूत जो शक्ति है वह गुण है और उन समस्त शक्तियों का जो अभेदपुंज है वह द्रव्य है । जैसे आम में काला नीला वगैरह रंग बदलता रहता है वे सब काले नीले रंगरूप शक्ति की पर्यायें हैं । आम हरे से अगर पीला हो गया तो रूपशक्ति तो नहीं बदली । रूपशक्ति तो पहिले हरे रूप में थी अब पीले रूप में हो गयी, पर रूपशक्ति आधार है । जैसे अंगुली है, सीधी हो जाय, टेढ़ी हो जाय, गोल हो जाय तो उसकी शकलें तो बदली पर अंगुली तो मेंटर है, वह तो वही है । इसी प्रकार पर्यायें तो बदलती हैं पर पर्याय की जो शक्ति है, गुण है वह वही का वही है तथा जो आनंद गुण है उन गुणों का जो समुदाय है वही द्रव्य कहलाता है ।
हमारा द्रव्य चेतन द्रव्य है और प्रभु का द्रव्य चेतन द्रव्य है । इस द्रव्यदृष्टि से प्रभु में और मुझमें रंच भी संबंध नहीं है, किंतु पर्यायों का अंतर है । हमारे गुणों का विकास पूर्ण नहीं है और भगवान के गुणों का विकास पूर्ण है, पर जो गुण भगवान में हैं वही हम आपमें रु हैं । पदार्थ एक है । भगवान अपने अनंत ज्ञानानंद स्वभाव को नहीं छोड़ता और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों को ग्रहण नहीं करता । यह प्रभु तीन काल, तीन लोक में रहने वाले वस्तुओं को जानता रहता है । वह द्रव्यार्थिकनय से नित्य है और सदाकाल समस्त विश्व को निरंतर जानता रहता है । लोग वैभव को चाहते हैं । लाखों करोड़ों का वैभव मिल जाय किंतु जो अलौकिक वैभव स्वयं में अनादि से बसा हुआ है, उसकी रुचि भी नहीं करते ।
यदि वास्तविकता पर दृष्टि दो तो संतोष और आनंद अलौकिक वैभव में ही मिलते हैं । ये बाहरी वैभव तो मात्र आकुलताओं के कारण होते हैं । किंतु अपना वैभव जो कि ज्ञानभाव के द्वारा जाना जाता है ऐसा ज्ञान और आनंदरूप वैभव निर्विकल्प समाधि में प्रकट होता है । उसका यत्न नहीं, उसकी ओर दृष्टि नहीं, धर्म भी करेंगे तो धर्म के नाम पर बहुत-बहुत श्रम कर डालेंगे, बड़ा व्यय कर डालेंगे, उत्सव मनावेंगे, पंगत करायेंगे, बड़े-बड़े ठाठ रचायेंगे । किंतु इस ओर दृष्टि नहीं है कि यह सब प्रवृत्ति, ये सब समागम मुझसे न्यारे हैं । मैं तो स्वयं ज्ञान और आनंद का विधान आत्मद्रव्य हूँ, सबसे निराला हूँ । मुझको कोई नहीं जानता, कोई नहीं पहिचानता । ऐसी अपने आपकी ओर दृष्टि न जाय तो धर्म के नाम पर कितना ही तन, मन, धन, वचन खर्च कर दिया जाय पर कर्म वहाँ लिहाज नहीं करते कि आखिर देखो धर्म के नाम पर ये कितना कष्ट उठा रहे हैं तो थोड़ी-सी कर्मों की निर्जरा हो जाय । कर्मों के लिहाज नहीं हैं और आत्मा में सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप परिणमन है । तो वहाँ कर्मों में इतना दम नहीं है कि क्षणभर भी ये ठहर सकें । जो काम जिस विधि से होता है वह उस विधि से ही संपन्न होता है।
भगवान् अलौकिक वैभव का स्वामी है अन्यथा भगवान को यह सारा जगत न पूजता यह प्रभु दिखने में आता नहीं, दिखाई देता नहीं फिर भी लोग उसकी पूजा में अपने-अपने संकल्प के अनुसार पूज रहे हैं । क्योंकि वह अलौकिक ज्ञानानंद वैभव का स्वामी है । प्रभु का स्मरण करके अपनी शक्ति पर विश्वास न हो तो प्रभु की भक्ति से फायदा क्या उठाया ? जैसा परमात्मा का स्वरूप है वैसा ही अपना स्वभाव हैं । जो शिव और शांत परमात्मा कहलाता है वह कुछ अन्य चीज नहीं है । कोई प्रभु ऐसा नहीं है जिसने शरीरे से ऐसा ठेका ले रखा हो कि मैं ही अनादि से एक ऐसा हूँ कि जिसकी जो चाहे सो कर बैठूं । यह परमात्मपदार्थ की बातें स्वरूप से भिन्न अन्य की बात नहीं हैं । यह ही जीव मुक्त अवस्था में व्यक्तिरूप से शांत और शिव होता है ।
भैया ! स्वरूप की ओर दृष्टि जाये तो सब परमात्म का मर्म अपनी समझ में आ सकता है, किंतु अपने को तो इसने दीन, हीन, भिखारी माना । मेरे को अन्य सुख देने वाला और सुविधा देने वाला कोई व्यक्तिरूप हाथ पैर वाला प्रभु अलग है, ऐसी दृष्टि हो तो प्रभुता के मर्म का पता नहीं पड़ सकता । इंद्रियों को संयत करके अपने ज्ञान बल के द्वारा प्रभु के उस ज्ञान चमत्कार मात्र को निरखो । ज्ञान पुन्ज कार्य परमात्मा भी सर्व जिस ज्ञान प्रकाश में समा जाता है, ऐसा उसी में ज्ञान पुंजप्रभु है, ऐसा विचारते-विचारते प्रभु का तो नाम छोड़ दो और ज्ञान का ही दर्शन करो । फिर उस ज्ञान से ज्ञानमात्र जानते-जानते अन्यत्र कहीं यह जानन है यह बात छोड़ दो और केवल जानन ही उपयोग में रहे तो प्रभु की ओर एकता हो जाती है । भैया ! जैसा वह प्रभु शिव, शांत है ऐसा यह भी मैं आत्मा संसार अवस्था में भी शक्तिरूप से शिव और शांत हूँ । कहा भी है, परमार्थनय स्वरूप जो सदा शिव हैं उनके लिए नमस्कार हो । सदाशिव आनंदस्वरूप प्रभु कहां बस रहा है? रागद्वेषों की तरंगों को दूर करके विश्राम से अपने आपमें ज्ञान और आनंद स्वभाव को अनुभव करके जान लो―ऐसा चैतन्य स्वभावमय वह यह मैं शिव, सदा मुक्त, परम कल्याणरूप हूँ, अनादि से परिपूर्ण हूँ । यहीं देख लो, पर की चिंता छोड़ो और अभी सुख का अनुभव करो ।
भैय्या ! एक कथानक है कि दो चीटियां थीं एक चींटी रहती थी नमक वाले के यहां, नमक के बोरों पर और एक चींटी रहती थी शक्कर के बोरों पर । तो शक्कर वाली चींटी नमक के बोरों में रहने वाली चींटी से बोली, बहिन तुम यहाँ कैसे गुजारा करती हो? यहाँ खारा-खारा खाती हो, हमारे यहाँ चलो मीठा ही मीठा खाओ । बहुत कहा तो विवश होकर नमक की चींटी शक्कर की चींटी के साथ चली पर मुंह में एक नमक की डली दाब ली, कहीं ऐसा न हो कि वहाँ कुछ भी खाने को न मिले सो एक दिन का खुराक साथ कर लिया । जब वहाँ पहुंची तो शक्कर में रहने वाली चींटी ने पूछा जीजी स्वाद कैसा है । कहा―स्वाद तो कुछ भी नहीं आया । दो बार पूछा शक्कर वाली चींटी ने कहा यह कैसे हो सकता है? शक्कर तो बड़ी मीठी होती है । बहिन, तूने अपने मुख में कुछ रखा तो नहीं है । नमक वाली चींटी ने कहा कि मेरे मुख में तो एक बार का केवल कलेवा है और कुछ नहीं है । शक्कर वाली चींटी बोली―अरे नमक को चोंच से निकाल और फिर चख । तेरी डली यहीं रखी रहेगी, कोई नहीं ले जायगा । तुझे स्वाद अच्छा न लगे तो फिर अपना कलेवा ले लेना । सो उसने जब नमक की डली को हटाया और स्वाद लिया तब नमक की चींटी कहती है बहिन तू तो बड़ी भाग्यशाली है । तुम रोज यही मीठा खाती हो । सो भैया यदि अपने आप पर दया हो तो विषय कषाय मोह की वासना को अलग कर देवो और अपनी प्रभुता का आनंद लो ।
क्यों भैया अपनी बात नहीं आती समझमें ? सुबह की तो इससे भी कठिन चर्चा लगती होगी, अरे ध्यान में कैसे बैठे ? ध्यान में न बैठने के दो कारण हैं । एक तो कारण यह है कि अपने ज्ञान में हम दसों जगह चित्त बसाए रहते हैं और रागवश रहते हैं । अभी आप मंदिर में बैठे हैं कुछ भी घर में हो जाय, या दुकान में तुरंत तो आप कुछ रह! कर सकते । मुख से भी न बोल सकेंगे । जरा मन से और विकल्प हटा दो । कभी तो हृदय पटल का सब भार हट जाय । सो होना कठिन लग रहा है । और दूसरी बात यह है कि कुछ समय देकर, यत्न करके ज्ञानार्जन भी नहीं किया इन बातों के कारण, इन्हें अपने प्रभु की बात समझ में नहीं आती ।
भैया ! अपने निजी घर की बात समझ में नहीं आती । तुम्हारा घर कहा है? सोचो तो सही । अपना घर कहां है? कहां जावोगे? कौनसा घर है? वह घर बतलावो जो घर अपने से कभी नहीं छूटता? कहीं जावो अपना घर ही पास में रहता है । वह घर है अपना स्वरूप, अपना प्रदेश उसकी ओर दृष्टि न दो और बाहर में बाहरी पदार्थों से नाना आशाएँ रखे तो बताओ किसके लिये नाच रहे हो? किसके लिये बिकते जा रहे हो? सब भिन्न हैं । उनका कर्म प्रबल है । उदय अच्छा है सो आपको उनका दास बनना पड़ रहा है । किसके लिये धन बढ़ाते हो? किसके लिये श्रम कर रहे हो? यह मोह और यह इतना विकल्प क्यों मचा रहे हो? आप से भी अधिक भाग्यवान् वे बच्चे हैं जिनके लिये रात दिन श्रम कर रहे हो, जिनके लिये दास बनकर अधिक श्रम करना पड़ रहा है । शिवस्वरूप, कल्याणस्वरूप तो अपना आत्मस्वरूप है । सर्वकल्पनाजालों को छोड़कर अपने आपमें अपने आपके स्वरूप को निहार, तो ऐसे ज्ञानस्वभावी प्रभु का दर्शन होगा, कि फिर उससे शांति और आनंद निरंतर झरता ही चला जायगा ।
जो शिव स्वरूप, परम कल्याण रूप, शांत अविनाशी शिव तत्त्व है, वह सर्व आत्माओं में उपस्थित है । जिसने मुक्तिपद प्राप्त किया है वह व्यक्त शिव है और जिसने मुक्तिपद प्राप्त नहीं किया वह अव्यक्त शिव है । मेरी सृष्टि का करने वाला मुझमें बसा हुआ यह शिव है । निरंतर सृष्टि होती चली जाती है । मेरी सृष्टि का कर्तृत्व मेरे स्वतंत्र पदार्थ का स्वरूप है कि वह निरंतर परिणमन करता रहता है । अब जैसी उपाधि मिलती है और इस उपदान की स्थिति होती है तो वैसी अपनी यह सृष्टि करता चला जाता है । अन्य कोई मेरी सृष्टि का करने वाला नहीं है ।
एक जगत्व्यापी ईश्वर सृष्टि करता है । यह बुद्धि नयों की मिश्रता से प्रकट होती है । सभी आत्मा अपनी-अपनी सृष्टि के कर्ता हैं । उन सब आत्माओं का स्वरूप एक है । अत: सृष्टि का संबंध और स्वरूप की खबर इन दोनों की संभावना में यह बुद्धि बनती है कि कोई एक प्रभु सृष्टि करता है । निष्कर्ष यह है कि अपने लिये आप स्वयं जिम्मेदार हो । जो कर्ता भी किसी को मानता हो और यह प्रश्न सामने ला दिया जाय कि मैं पाप तो कर रहा हूं परंतु प्रभु तो स्वयं दयास्वरूप है, उसको तो हमें सुख ही देना चाहिये । यदि वह मुझे सुख नहीं दे सकता तो उसकी अनंत शक्ति क्या रही? सर्वशक्ति क्या रही और तुम्हारे ही पापों को देखकर पापों के अनुसार दुःख देता है तो जिम्मेदारी तो सब बातों में तुम्हारी ही रही ना? कोई अलग से सुख दुःख देने वाली हो तो और न हो तो जिम्मेदारी तो तुम्हारी तुम्हारे ही ऊपर है ना? मैं पाप करूँगा तो दुःख पाऊंगा और पुण्य करूँगा तो सुख पाऊँगा । धर्म करूँगा तो निर्वाण पाऊँगा । वह सब जिम्मेदारी मुझ ही पर तो है
जरा ध्यान तो दो ।
यह ही आत्मा शांत और शिव है । हम उसे शुद्ध परमात्मत्व की दृष्टि से देखें तो सुनिश्चित होता है कि यह गुलाल ही उपादेय है । जिसके दिखने मात्र से ही सारे संकट कट जायें यह कला यदि आ गई तो उसे आप कितना धनी समझेंगे? जिस जीव के ऐसी कला उत्पन्न हो जाय कि मैं कुछ ऐसा देख लूँ कि देखते ही सारे संकट टल जाएं तो आप उसको कितना महान् और धनी समझेंगे? यह लौकिक वैभव तो संकट टालने में समर्थ नहीं होता । कैसे ही संकट आवे जिसे झट देख लें तो तुरंत संकट मिटे, उसका परिचय हो तो वही सर्वोत्कृष्ट वैभव है ।
जैसे लौकिक कथानकों में कह दिया करते हैं कि अमुक को ऐसी बटरिया मिल गई कि जिसको बजाकर जो कुछ चाहे सो मिल जाय । किसी को शंख मिल गया, उससे जो चाहे सो बन जाय । बच्चे लोग बहुत बोला करते हैं । ऐसी चीज मिल जाय तो उसे आप धनी कहेंगे या जिसके पास करोड़ों का वैभव हो जाय उसे आप धनी कहेंगे । जिसको ऐसा दर्शन हो गया कि उसके संकट रह ही न सकें वह सबसे बड़ा धनी है । बह सबसे बड़ा वैभव संपन्न है । आप लोग कुछ ऐसा सोच रहे होंगे कि ऐसी चीज क्या है? कैसी है? क्या कहीं महाराज ने देखा है और जो कहीं देखा हो तो बता दें वह एक-एक चीज बांट दें । कौनसी चीज की बात चल रही है कि जिसके दर्शन करें तो संकट सब मिट जाएं । ऐसी चीज क्या? वह बतायी नहीं जा सकती । है वह आपके आपमें ही ।
जिसको ऐसा अनुभव हो कि मैं तो सबसे निराला एक चैतन्यप्रकाश मात्र हूँ और ऐसी ही दृष्टि हो जाय । देखिये ये चीजें आपके ही द्वारा साध्य हैं । कुछ धीर बनें, उदार बनें, सर्व से दृष्टि फेरें, सत्य की ओर मुड़ें, विश्राम पायें, परवाह जगत् की न करें, शर्म और संकोच जगत् में न रखें, एक अपने आपमें धैर्य और उदारता रखें, मोह को हटाकर शुद्ध एक है प्रतिभास का अनुभव करें तो उस समय आपके उपयोग में आपको विकल्प नहीं है, कहीं भी ममता नहीं है, कहीं भी वासना नहीं है, तो फिर कोई संकट रहा क्या? नहीं । ऐसी स्थिति अगर बने तब तो अपनी समझ में आये । यदि हम यह सिद्धि नहीं कर पाते तो यह शंका रहती है कि महाराज बताते तो जरूर हैं मगर पेट तो रोटी से ही भरेगा । कहते तो जरूर हैं प्रभु के स्वरूप की बात, आत्मा की बात, किंतु काम तो रोटी से ही चलेगा ।
क्यों जी ! कहीं ऐसा उद्यम बन जाय कि रोटी खाने की जरूरत ही न पड़े और सदा संतुष्टि रह जाय तो इसमें कोई टोटा है क्या? ऐसा कर सकते हैं कि नहीं । आप कहें कि नहीं हो सकता तो फिर प्रभु के दर्शन क्यों करने आते हैं? प्रभु ही तो ऐसा बैठा है जिसके आदि नहीं व्याधि नहीं, रोटी खाने का काम नहीं । है ना कोई? अगर नहीं है तो कुछ नहीं है । यदि कुछ नहीं है ऐसा समझा तो नास्तिकता आ गई । धर्म रहे कैसे? उत्तर कुछ मिले ना । हम भी प्रभु जैसे हो सकते हैं पर भैया ! नैया बहुत दिनों से फंसी है, बहुत दिनों से बिगाड़ मचा है । आज ही ध्यान करके बैठें, अपने ज्ञान रस का स्वाद लेंतो विषयभोगों की स्थिति नीरस लगने लगे और जहाँ विषयभोगों की स्थिति नीरस लगने लगे वहाँ सब काम बन जायगा । अन्य कोई भी तत्त्व उपादेय नहीं है । ऐसा निज शुद्धात्मा ही उपादेय है ।
जैसे बच्चे को कोई पीटे तो उसके दिमाग में इलाज एक ही है कि वह भागकर अपनी मां की गोद में बैठ जाय । है ना ऐसी बात किसी ने सताया, धमकाया तो तुरंत उसके पास इलाज है कि झट अपनी मां की गोद में बैठ जाय । इसी तरह जगत् के हम आप सभी को कोई सताए, कर्मों का तीव्र उदय आये, संकट और उपद्रव आयें तो उस काल का एक ही इलाज है वह क्या कि शरीर से दृष्टि हटाकर अपने सहजशुद्ध एक ज्ञानस्वरूप के अनुभव में आ जावो । यदि कभी दुःख आ जाये तो यह सोचो कि कहीं बाहर में शरण नहीं मिलेगी, सो आखें मींचो और अपने ज्ञानरस में डूबो । इतना ही कर लो फिर संकट कहां है? संकट तो जीव ने भ्रम करके बना लिया । फंसाव कैसा है? क्या है? तो भाई यदि कहीं लगो तो केवल एक आत्मकल्याण में लगो तो सब फंसाव समाप्त है ।
अजी यह काम पड़ा है, अभी भय्या छोटा है, अभी भुवा की शादी करनी है । (हँसी) अरे क्यों हँसते हो, हां हो सकता है । किसी की भुवा छोटी हो । ये सब आत्मनिरादरता के चिह्न हैं । तो मेरा बाहर में कहीं कुछ नहीं है । अगर संकटों से मुक्ति प्राप्त करना है तो उसका इलाज है शुद्ध ज्ञान का आदर करना, यही ब्रह्म विद्या है । बड़े-बड़े राजा महाराजा लोग भी ऋषियों के चरणों में रहकर ब्रह्मविद्या सीखते थे । पुराणों में पन्ने पलटकर देखिये वे राजपाट की परवाह नहीं करते थे । ऋषियों से ब्रह्मविद्या सीखते थे । बिना ज्ञान गुण के निर्वाण पा ही नहीं सकते हैं । मोक्षमार्ग में न लगे और बाहर ही रहे तो उसका परिणाम क्या है? इसका परिणाम यह है कि संसार में रुलना ही बना रहेगा । यदि कहीं कीड़े-मकोड़े बनना पड़ा तो परमात्मा का काम खतम है । इस कारण अपने परमात्मा को सर्वविकल्प समाप्त करके प्राप्त करने का यत्न करो ।