वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 1
From जैनकोष
जे जाया झाणग्गियए कम्मकलंक डहेवि ।
णिच्च णिरंजण णाणमय ते परमप्प णवेवि ।।1।।
जो ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा कर्मकलंक को जलाकर नित्य निरंजन ज्ञानमय हुए हैं उन परमात्मा को नमस्कार करके (आगे के दोहे से संबंध है कि श्री सिद्धगण को नमस्कार करता हूं) । यहाँ जैसा निजपरमात्मतत्त्व का शक्तिरूप स्वरूप है स्वभाव है वैसा जिनका पूर्ण विकास हो गया है उन परमात्मा को नमस्कार किया है । जैसा अपने को बनना है वैसे स्वरूप का ध्यान किये बिना मार्ग स्पष्ट नहीं होता है । जो जैसा होना चाहता है वह वैसे की ही उपासना करता है । तथा अपने आप में विराजमान नित्य निरंजन ज्ञानमय परमात्मस्वभाव का स्मरण शुद्धविकासमय परमात्मा के स्मरण से होता है । इस कारण यहाँ परमात्मा को नमस्कार किया है । जो कारण परमात्मा कार्यपरमात्मा बन गये हैं उन्हें यहाँ नमस्कार किया है ।
कारण परमात्मा तो हम सब जीव हैं, क्योंकि इस जीव का स्वभाव ही आवरणरहित होकर परमात्मा के रूप में प्रकट होता है । कोई नवीन चीज (सत्) परमात्मा नहीं होता, अभी हम सब आत्मा कारणरूप परमात्मा हैं अर्थात् परमात्मा बनने के उपादान कारण हैं । अथवा हम सब परमात्मत्वस्वभावरूप हैं, परमात्मशक्तिरूप हैं, यदि हम परमात्मस्वभावी न हों तो कभी भी परमात्मत्व मुझमें प्रकट नहीं हो सकेगा । ऐसी ही बात सब आत्माओं की बनेगी । सो परमात्मा के अभाव का प्रसंग हो जायगा, इस कारण यह पूर्ण निःसंदेह बात है कि हम सब कारण परमात्मा हैं । एक कारण परमात्मा पर्यायरूप भी है कि जिस पर्याय के बाद सकल परमात्मा हो जाते हैं वह कारणपरमात्मा बारहवें गुणस्थान में कहा जाता है । उसकी अभी यहाँ चर्चा नहीं की जो रही है, किंतु द्रव्यदृष्टि से कारण परमात्मा की बात कही जा रही है, जो कि अनाद्यनंत चित्स्वभावमय है ।
कार्यपरमात्मा उन्हें कहते हैं जिनका ज्ञान अनंतज्ञान है जो समस्त लोक (विश्व) व अलोक को प्रत्यक्ष जानता है, जिनका दर्शन अनंतदर्शन है, जिनका आनंद अनंत आनंद है, जिनकी शक्ति अनंत शक्ति है । ऐसे ही अनंत ज्ञान दर्शन आनंद शक्तिरूप अपना स्वभाव है । इस अनंत स्वभाव के विकास को रोकने वाला साक्षात् आवरण तो राग, द्वेष,मोह भाव हैं और निमित्तभूत आवरण ज्ञानावरणादि कर्म है । सो राग, द्वेष, मोहभाव व ज्ञानावरणादि कर्मों के दूर होते ही यह आत्मा कार्य परमात्मा हो जाता है जैसे कि सूर्य की किरण प्रभा तो अतुल सामर्थ्य वाली है, परंतु मेघपटल का आवरण होने से उसका विकास रुका हुआ, है, ज्योंही मेघपटल दूर हो जाता है त्योंही वह सूर्यप्रभा अतुल विकसित हो जाती है ।
लोक में भी ऐसी प्रसिद्धि है कि परमात्मा घट-घट में रहता है अर्थात् प्रत्येक देह में बसता है । सो इन देही आत्माओं से भिन्न कोई एक परमात्मा इन देहों में नहीं बस रहा है, क्योंकि यदि ऐसा कोई एक इन देहों में बस रहा होवे तो पृथक् 2 देहों के बीच में अंतराल होने से परमात्मा खंड-खंड रूप में हो जायेगा । ये आत्मा (देही) ही परमात्मस्वभाव को रखा रहे हैं यह परमात्मस्वभाव हम सबमें शक्तिरूप से है, व्यक्तिरूप (पर्यायरूप) से तो हम सब संसारी दुःखी हैं । फिर भी जो महात्मा अपने में अनादिसिद्ध बसे हुए शक्तिरूप परमात्मतत्त्व का दर्शन अंतर्ज्ञान से कर लेते हैं वे आनंदमग्न हो जाते हैं । ऐसा परमात्मा हम सबमें, घट-घट में रहता है । उसके दर्शन का उपाय अंतर्ज्ञान है । इसका वर्णन इस ग्रंथ में विस्तृत किया है सो इस ग्रंथ का स्वाध्याय प्रमादरहित होकर रुचिपूर्वक करना चाहिए । अंतर्ज्ञान से ही सत्य आनंद की प्राप्ति होगी । यहाँ पुत्र, मित्र, बंधु, स्त्री, वैभव, इज्जत आदि जिन-जिन चीजों का संयोग हुआ है उनका वियोग नियम से होगा । अत: इन समागमों में आसक्त नहीं होना और ध्रुव, सहज स्वभावरूप निज परमात्मज्योति के दर्शन करने के लिए अंतर्ज्ञान की प्राप्ति में उद्यम करना मुमुक्षु का मुख्य कर्तव्य है ।
जैसे धातुपाषाण में (स्वर्णपाषाण में) स्वर्ण को आंखों से देखो तो नहीं मिलेगा, हाथों से बटोरना चाहो तो स्वर्ण नहीं बटोरा जा सकता है, किंतु औषधि, अग्नि, ताप आदि उपाय करने से जब उसमें से परवस्तु का संयोग दूर हो जाता है तब उसमें से स्वर्ण प्रकट हो जाता है और धातु पाषाण के समय भी विवेचक यंत्रों द्वारा स्वर्णत्व अंश समझना चाहो तो समझा जा सकता है । इसी प्रकार हम सब कारण परमात्माओं में परमात्मा को किसी इंद्रिय से जानना चाहे या ग्रहण करना चाहे तो न जाना जा सकता है और न ग्रहण किया जा सकता है, किंतु ज्ञान, श्रद्धान, ध्यान, समाधि के उपाय बनने से जब पर वस्तु व परभाव का संयोग दूर हो जाता है तब कारणपरमात्मा (आत्मा) में से कार्य परमात्मा प्रकट हो जाता है अर्थात् यह आत्मा परमात्मा बन जाता है और इस समय भी विवेचक अंतर्ज्ञानी द्वारा समझना चाहो तो यह परमात्मस्वरूप समझा जा सकता है ।
जैसे स्वर्णपाषाण में स्वर्णत्व शक्ति है तभी स्वर्णपाषाण में से स्वर्ण प्रकट होता है इस प्रकार हम सब आत्माओं में परमात्मत्वशक्ति है तभी हममें से परमात्मत्व प्रकट हो सकता है । परमात्मा कहते किसे हैं? जिस आत्मा में गुण तो परिपूर्ण विकसित हो गये हों और दोष लेश भी न हों वह परम आत्मा अर्थात् परमात्मा है । देखो―जीवों में से किसी में राग-द्वेष आदि दोष कम है, किसी में और कम है, किसी में और कम है । तो इससे साबित होता है कि किसी में दोष बिल्कुल भी नहीं रहते । और देखो―जीवों में से किसी में ज्ञान अधिक है किसी में ज्ञान और अधिक है, किसी में और अधिक है तो इससे साबित होता है कि किसी में ज्ञान परिपूर्ण भी है । देखो―दोष तो हैं औपाधिक याने कर्म के उदय से होने वाले, अत: उसकी तो हानि होकर बिल्कुल अभाव होता है और ज्ञान है स्वाभाविक, अत: उसकी वृद्धि होकर बिल्कुल परिपूर्णता हो जाती है । इसका कारण यह है कि किसी द्रव्य के शुद्ध (केवल) रह जाने पर औपाधिक भाव नष्ट हो जाते हैं और स्वाभाविक भाव परिपूर्ण हो जाते हैं । इस प्रकार जो गुणों से परिपूर्ण है और दोषों से रहित है वही परमात्मा है । ऐसा परमात्मस्वभाव हम सबमें है इसी नाते परमात्मा की भक्ति की जाती है । परमात्मा के गुणों में अनुराग करने से आत्मशक्ति का अनुभव होता है और विकास होता है । परमात्मा सहज पूर्ण ज्ञान और सहज पूर्ण आनंद में मग्न है । भक्तजन उनकी उपासना करके अपने ही स्वयं का सहज ज्ञान और आनंद का विकास स्वयं कर लेते हैं ।
इस संसारी जीव के साथ अनादि परंपरा से चले आए हुए पौद्गलिक कर्म-प्रकृति का बंधन है और इसी प्रकृति को निमित्तमात्र करके कषाय, संकल्प-विकल्परूप, भावकर्म का बंधन है । ये दोनों प्रकार के बंधन परमात्मस्वभाव के ध्यानरूपी अग्नि से भस्म हो जाते हैं । इनमें से भाव कर्म का बंधन तो उसीप्रकार की आत्मपरिणति का व्यय होने से नष्ट हुआ समझना । द्रव्यकर्म का बंधन पुद्गल पिंड में, कर्मत्व पर्याय का व्यय होने से नष्ट हुआ समझना । आत्मा के शुद्ध परिणाम को निमित्त पाकर अथवा भावकर्म के व्यय को निमित्त पाकर द्रव्यकर्म का बंधन नष्ट हुआ है । इस कारण द्रव्यकर्म का भस्म होना उपचार से (उपचरित असद्भूत व्यवहार से) कहा जाता है और भावकर्म का भस्म होना निश्चय से (अशुद्धनिश्चयनय से) कहा जाता है । शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में बंध व मोक्ष हैं ही नहीं, कारण कि शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में वस्तु सनातनस्वभावमात्र दिखती हैं ।
जो महात्मा भावकर्म और द्रव्यकर्मरूपी कलंकों को ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा जला करके नित्य निरंजन ज्ञानमय हुए हैं ऐसे परमात्मा को नमस्कार किया जा रहा है । वस्तुत: कोई किसी अन्य को नमस्कार नहीं कर सकता, भक्त अपने ज्ञानपरिणमनरूप अपने कार्य में उस प्रकार परिणत हो रहा है । प्रभुस्वरूप का यथार्थ भावनमस्कार इसी निज में अभेदरूप होता है । नमस्कार होओ । यह ध्यानरूप अग्नि अन्य कुछ नहीं परमात्मस्वरूप का अभेदस्मरण है । परमात्मस्वरूप के अभेद स्मरण में, अभेदानुभाव में ऐसी अतुल शक्ति है कि तब भावकर्म का विलय तो होता ही है किंतु उसको निमित्तमात्र पाकर द्रव्यकर्म का भी विलय हो जाता है । इस प्रसंग में ध्यान के चार भेद समझ लेना चाहिए―(1) पदस्थ (2) पिंडस्थ (3) रूपस्थ और (4) रूपातीत । मंत्रवाक्यों में तो पदस्थ ध्यान होता है, निजआत्मा के चिंतवन में पिंडस्थ ध्यान होता है, सकल परमात्मा को विषय करके शुद्ध चिद्रूप के ध्यान में रूपस्थ ध्यान होता है और निरंजन शुद्ध, केवल, सिद्धस्वरूप के ध्यान में रूपातीतध्यान होता है ।
परमात्मस्वरूप का अभेदस्मरण उत्कृष्ट पिंडस्थ ध्यान में होता है, उसका कारण रूपातीत ध्यान हो सकता है, उसका कारण रूपस्थ ध्यान हो सकता है, उसका कारण पदस्थ ध्यान हो सकता है । पिंडस्थध्यान में पार्थिवी, आग्नेयी, मारूती व पायसी धारणाएं होती हैं जिनका विवरण प्रसंगवश आगे किये जाने का ख्याल है वे धारणाएं यद्यपि एक साधन हैं तथापि वे परमात्मस्वरूप के अभेदस्मरणरूप ध्यान नहीं हैं । वर्तमान में देहदेवालय में स्थित अभेद चित्स्वभावमात्र निज चित्पिंड का अभेदानुभव ही परमात्मस्वरूप का अभेदानुभव है और यही उत्कृष्ट पिंडस्थ ध्यान: है । अथवा निज शुद्ध आत्मतत्त्व के सम्यक्श्रद्धान ज्ञान अनुष्ठान (रत होना) रूप जो अभेदरत्नत्रय, तदात्मक जो निर्विकल्प समाधि उससे उत्पन्न हुआ जो निर्दोष सहज परम आनंद उसका अनुभव वर्तना ही परम ध्यान है । इस ध्यान के द्वारा जो नित्य, निरन्जन, ज्ञानमय हुए हैं ऐसे परमात्मा को मेरा नमस्कार हो।
परमात्मा नित्य है, परमात्म द्रव्य नित्य है । कुछ न था और परमात्मा हो गया हो ऐसा नहीं है । परमात्मा होकर वह नष्ट हो जाय ऐसा नहीं है । प्रत्येक द्रव्य स्वत:सिद्ध है अतएव नित्य है । चित्स्वरूप द्रव्य नित्य हैं, वही द्रव्य परमात्मपन को प्राप्त हुआ है अत: नित्य है । परमात्मा नित्य है, परमात्मा द्रव्य नित्य है । यद्यपि सूक्ष्म दृष्टि से देखो तो परमात्मपरिणति प्रतिक्षण नवीन-नवीन समान-समान हो रही हैं तथापि यह (इसमें कोई संदेह नहीं है) कि इसी प्रकार समान-समान शुद्ध परिणमन, एकस्वरूप परिणमन सदाकाल (अनंतकाल) तक चलता ही रहेगा । अत: परमात्मा नित्य है ।
परमात्मा निरंजन है । कर्म, रागादिदोष, शरीर और विस्रसा उपचित (स्वयं इकट्ठा होकर आत्मा के साथ रहने वाला स्कंध) स्कंध आदि किसी भी परद्रव्य व परभाव का, संपर्क नहीं है और न भविष्य में कभी संपर्क हो सकता है । अत: परमात्मा निरंजन है । इस भय से कि संसार के आत्माओं में से शुद्ध मुक्त होकर परमात्मा बनते जावेंगे तो कभी संसार खाली हो जायेगा मुक्त को फिर किसी के द्वारा कर्मांजन लगवा देने की कल्पनाकरना योग्य नहीं है । यह भय नहीं करना चाहिए कि संसार खाली हो जायेगा और खुद को संसार की प्रीति छोड़ देना चाहिये ।
संसार में जीव अनंतानंत हैं । अनंत उसे कहते हैं कि जिसमें से अनंत भी निकाल दिये जावे, तब भी अनंत शेष रहते हैं । अनंत को और अनंत की इस व्याख्या को सभी ने माना है । इस लोक में अनंतानंत जीव तो सूक्ष्म शरीर वाले हैं । एक-एक शरीर के आश्रय अनंत जीव हैं ऐसे अनंतानंत जीव हैं फिर स्थूल (किंतु अदृश्य) शरीर वाले भी ऐसे ही प्रकार के अनंतानंत जीव हैं । फिर व्यवहार में आने वाले जीव भी असंख्यातासंख्यातों हैं । इन सब जीवों में से जिन जीवों का भवितव्य उत्तम है ऐसे अनंतों आत्मा परमात्मा हो गये हैं और होते रहेंगे फिर भी सदा अनंतानंत जीव संसार में रहेंगे । इसका स्थूल व प्रबल प्रमाण यही है कि अनादिकाल से अब तक मुक्त होते आये हैं । फिर भी जगत में अनंतानंत आत्मा हैं । मुक्त शुद्ध आत्मा में अपराध बिना कर्मांजन लग जाय यह तो नीति, न्याय के विरुद्ध बात है और फिर परमात्मा पर (मुक्त जीव पर) ऐसा अन्याय हो जाय, यह तो किसी विवेकी के चित्त में जमना कठिन है । परमात्मा निरंजन है, सर्वप्रकार से निरंजन है ।
परमात्मा ज्ञानमय है । आत्मद्रव्य ज्ञानस्वभाव ही है । ज्ञान आत्मा का अभिन्न स्वरूप है । मलिन अवस्था में ज्ञान का जो अपूर्ण, अस्थिर विकास है और साथ ही रागद्वेष वश होने वाला संकल्प-विकल्प है उसे दुःख का हेतु देखकर ज्ञान ही दुःख का कारण है और वह नष्ट हो जाने वाला है ऐसा आशय रखकर मुक्त जीव को ज्ञानरहित मानना स्वभाव का घात करना है । ऐसा है ही नहीं । प्रत्युत बात यह है कि जैसे आवरण व दोष हटते जाते हैं वैसे-वैसे ही ज्ञानादि स्वभावों का विकास वृद्धिगत होता जाता है । परमात्मा का तो ज्ञान त्रिकाल त्रिलोकवर्ती सर्वद्रव्य, पर्याय को जानता है । परमात्मा ज्ञानमय है, परिपूर्ण ज्ञानमय है, अनंतज्ञानमय है, केवल ज्ञानमय है, सर्वज्ञ है।
जो आत्मा ध्यानाग्नि के द्वारा कर्मकलंकों को जलाकर नित्य निरंजन ज्ञानमय हुए हैं उन परमात्मा को नमस्कार होओ । नमस्कार नम जाने को, उपासना करना या शरण ग्रहण करना नमस्कार है । नमस्कार निश्चय से तो परमात्मा के केवलज्ञानादि अनंतगुणों का स्मरणरूप होता है । क्योंकि उपासक निश्चय से अपना ही तो कोई परिणमन बनावेगा, परपदार्थ का तो कुछ किया भी नहीं जा सकता । इस नमस्कार को भावनमस्कार कहते हैं । इसमें भी क्रिया कारक का संबंध आ गया अत: यह भावनमस्कार शुद्धनिश्चयनय से कहा जा सकता । सशरीर अथवा अशरीर जो परमात्मा हैं उनको वचनों द्वारा नमस्कार करना अथवा शिर झुकाकर करना व मन के विकल्पों से नमस्कार करना आदि सब द्रव्यनमस्कार हैं । द्रव्यनमस्कार व्यवहारनय से होता है क्योंकि यहाँ एक ही पदार्थ की चर्चा न रही, भक्त और परमात्मा ऐसे दो आत्म-पदार्थों में क्रिया कारक संबंध हो रहा; किंतु यह व्यवहारनमस्कार भी ग्राह्य व्यवहार है । वस्तुत: तो वहां भी उपासक अपना ही परिणमन कर रहा है । शुद्धनिश्चयनय से उपासक व परमात्मा का न तो संबंध है और न उपासक के परिणामों को (शुद्ध न होने से) शुद्धनिश्चयनय विषय करता है । अत: शुद्धनिश्चयनय से वंद्यवंदकभाव नहीं बनता । तथा परमशुद्ध निश्चयनय से तो वंद्यवंदकभाव है ही नहीं । परमशुद्धनिश्चयनय तो अखंड निर्विकल्प, सनातन, केवल ध्रुवस्वभाव को या स्वभावमय वस्तु को विषय करता है ।
इस मंगलाचरण के पदों का अर्थ तो स्पष्ट ही है । वाक्यों में पदों के अर्थ तो होते हैं, किंतु महापुरुषों के वाक्यों में चार प्रकार के अर्थ और होते हैं―(1) नयार्थ, (2) मतार्थ, (3) आगमार्थ व (4) भावार्थ । (1) नयार्थ―नय की दृष्टियों द्वारा विभागपूर्वक अर्थ करने को नयार्थ कहते हैं । (2) मतार्थ―विधि या निषेधरूप से अन्य मतों का स्वरूप प्रकट कर देने को मतार्थ कहते हैं । (3) आगम में, सिद्धांत में कहे हुए आशय को प्रगट करने को आगमार्थ कहते हैं । (4) उसमें ग्रहण करने योग्य क्या शिक्षा मिलती है, उसे भावार्थ कहते हैं ।
इस मंगलाचरण में नयार्थ किस प्रकार हुआ है सो कुछ प्रकट ही कर चुके हैं फिर भी उसके विवरण के यत्न में प्रकार में प्रायोजनिक नयों का विवरण करते हैं―यहां नय 4 प्रकार से जानना―(1) व्यवहारनय, (2) अशुद्धनिश्चयनय, (3) शुद्धनिश्चयनय और (4) परमशुद्धनिश्चयनय । दो या दो से अधिक पदार्थों का परस्पर में संबंध बताना, क्रिया कारक भाव लगाना सो व्यवहारनय है । एक ही पदार्थ के स्वरूप का अवगम करना निश्चयनय है उसमें जब अशुद्धपर्यायरूप से अर्थात् किसी विकल्प, भाव से अवगम होता है तब उसे अशुद्धनिश्चयनय कहते हैं, जब शुद्ध पर्यायरूप से अर्थात् निरुपाधि शुद्धपरिणमनरूप से अवगम होता है उसे शुद्धनिश्चयनय कहते हैं, जब गुणपर्याय का भेद ही न करके केवल एक स्वभाव अथवा स्वभावमात्र वस्तु का अवगम होता है तब उसे परमशुद्धनिश्चयनय कहते हैं । तीनों प्रकार के निश्चयनयों में एक ही वस्तु के स्वरूप का अवगम है अत: पद्धतिभेद से तीन प्रकार के होकर भी वे सर्व निश्चयनय ही हैं ।
इस मंगलाचरण में नयार्थ दो जगह प्रकट हुए हैं एक तो कर्मकलंक के दहन के प्रसंग में और दूसरे परमात्मा के नमस्कार के प्रसंग में । द्रव्यकर्म का दहन व्यवहारनय से है और भावकर्म का दहन अशुद्धनिश्चयनय से है शुद्धनिश्चयनय की विषयभूत परिणति शुद्धपरिणति है, उसमें दहन का काम ही नहीं और परमशुद्धनिश्चयनय की दृष्टि में स्वभावमात्र वस्तु है उसमें बंध व मोक्ष दोनों ही नहीं है । दूसरा प्रसंग है नमस्कार का―नमस्कार दो प्रकार के कहे गए हैं―1. द्रव्यनमस्कार व 2. भावनमस्कार । द्रव्यनमस्कार में तो भक्त व परमात्मा दो पदार्थों का क्रिया कारक संबंध व्यवहृत हो रहा है, अत: द्रव्यनमस्कार तो व्यवहारनय से है और भावनमस्कार उपासक की केवलज्ञानादि अनंत गुणों की स्मृतिरूप परिणति है सो भावनमस्कार अशुद्धनय से है । शुद्धनिश्चयनय की विषयभूत परिणति (शुद्धपरिणति) उपासक में नहीं है, अन्यथा अर्थात् यदि उपासक में शुद्धपरिणति हो तो वही परमात्मा हो गया, उपासक कहां रहा । शुद्धनिश्चयनय से इसी कारण वंद्यवंदकभाव नहीं है । परमशुद्ध निश्चयनय में तो स्वभावमात्र वस्तु है अत: वहाँ तो वंद्यवंदकभाव असंभव ही है । इस तरह नयों की दृष्टियों से दहन और नमस्कार का विभागपूर्वक अर्थ खोला गया है ।
अब इस मंगलाचरण में मतार्थ किस तरह प्रकट हुआ है इसका विवरण करते हैं―परमात्मा नित्य है इस विषय में क्षणिक वाद का यह आशय है कि सब कुछ अनित्य ही है सो परमात्मा भी अनित्य है । परंतु ऐसा यदि क्षण क्षणवर्ती पर्याय को ही माना जावे तब तो ठीक है क्योंकि पर्यायार्थिक नय से प्रतिक्षण नवीन-नवीन पर्याय उत्पन्न होती है । परमात्मा में यद्यपि वैसा ही वैसा परिणमन चलता रहता है तो भी है तो प्रतिक्षण का नवीन-नवीन परिणमन । सो पर्यायार्थिक नय की विवक्षा में तो क्षणिकवाद का आशय ठीक है, किंतु द्रव्य को ही क्षणिक मान लिया जाय, यह तो ठीक नहीं है । परमात्मा व परमात्म द्रव्य द्रव्यदृष्टि से नित्य ही है । परमात्मा निरंजन है, इस विषय में कर्तृत्ववाद का यह आशय है कि एक सदामुक्त ईश्वर अन्य मुक्तात्मा को भी सैकड़ों कल्प बीत जाने पर कर्मांजन लगाकर संसार में गिरा देता है, इससे परमात्मा सांजन हो जाता है, परंतु यदि
कर्तृत्ववाद से परे होकर भूतनैगमनय की अपेक्षा से परमात्मा को सांजन कह दिया जाय तब तो ठीक है, क्योंकि भूतनैगमनय से देखा जाय तो परमात्मा पहिले संसार अवस्था में सकर्मा ही तो थे, सांजन ही तो थे, सो भूतार्थनैगमनय के कथन में सांजनता तो ठीक है, किंतु बिना अपराध परमात्मा को कोई कर्मांजन लगा दे, सांजन बना दे, यह ठीक नहीं है । परमात्मा सदाकाल तक निरंजन ही है । परमात्मा ज्ञानमय है, इस संबंध में प्रकृतिवाद का यह आशय है कि आत्मा का स्वरूप मात्र चैतन्य है, ज्ञान नहीं; ज्ञान तो प्रकृति का विकार है सो प्रकृति से मुक्त हो जाने से परमात्मा को सुप्तावस्था की तरह ज्ञेय पदार्थों का ज्ञान नहीं रहता, परंतु ऐसा यदि क्षायोपशमिक (ज्ञानावरण प्रकृति के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए) ज्ञान का अर्थात् अधूरे विभाव ज्ञान का अभाव हो जाता है इतना ही समझें तब तो ठीक है, क्योंकि परमात्मा के समस्त ज्ञानावरण प्रकृति का क्षय हो जाने से अधूरा ज्ञान अर्थात् विभावज्ञान नहीं रहता । सो विभावज्ञान के अभाव की दृष्टि से यह बात ठीक है, परंतु कोई ज्ञान स्वभाव ही का अभाव माने तो वह ठीक नहीं है । ज्ञानस्वभाव रहित आत्मा क्या है? ज्ञानस्वभावरहित चेतना क्या? परमात्मा के अधूरा औपाधिक विभावज्ञान नहीं रहता, किंतु परिपूर्ण निराबाध अनंतज्ञान होता है । इस प्रकार परमात्मा ज्ञानमय है । इस तरह परमात्मा के तीन विशेषणों में मतार्थ प्रकट किया गया है ।
अब इस मंगलाचरण में आगमार्थ क्या है इसका विवरण करते हैं―सिद्धांत में यह बताया गया है कि परमात्मा कर्मकलंक से मुक्त, नित्य निरंजन, अनंतज्ञानमय आदि होते हैं वही बात यहाँ प्रकट की गई है सो यह आगमार्थ हुआ ।
इस मंगलाचरण में भावार्थ क्या प्रकाशित है इस बात को देखिये―अनित्य सांजन, अज्ञानपरिणमन उपादेय नहीं है वह तो अशुद्ध स्वरूप है, क्लेश का कारण है । किंतु नित्य, निरंजन ज्ञानमय स्वरूप निज परमात्मद्रव्य उपादेय है । कल्याण के इच्छुक पुरुषों को इस परमात्मद्रव्य की निष्काम उपासना करना चाहिए । यह इस मंगलाचरण के दोहे का भावार्थ हुआ ।
भैया ? हम सब ज्ञानस्वरूप हैं । परमात्मा भी ज्ञानस्वरूप है । यदि हम अन्य झंझट न रखकर मात्र ज्ञान से ज्ञान के स्वरूप को जानने चलें तो हमें ज्ञानमय परमात्मतत्त्व की प्रसिद्धि हो सकती है । इस परमात्म तत्त्व के अनुभव का उपाय ज्ञान द्वारा ज्ञान का अनुभव करना है । यह ज्ञानवृत्ति श्रुतज्ञान की शक्ति से शक्त और मतिज्ञान की वृत्ति से प्रवृत्त होती है ।
इंद्रिय व मन से जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं तथा पश्चात् लिखने पढ़ने विचारने आदि से जो उसी पदार्थ में मतिज्ञान से विशिष्ट ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । केवलज्ञान जितने विषय को जानता है उतना ही विषय श्रुतज्ञान का भी है, किंतु अंतर केवल इतना है कि श्रुतज्ञान तो परोक्ष को जानता है, किंतु केवलज्ञान प्रत्यक्ष सर्व द्रव्य, गुण, पर्यायों को जानता है ।
यथार्थज्ञान जिसमें प्रकट है, वह अवसर मिलने पर वैराग्य को प्राप्त हो मुक्त हो जायगा ! अशांति समाप्त करने का उपाय आत्मा में ज्ञान का उपयोग करना है । प्राणी को कभी भी अतिज्ञान का अभिमान नहीं करना चाहिए । जीव जिस-जिस प्रकार अपने विकारी कर्मों से दूर होता जाता है उस प्रकार ज्ञान की वृद्धि होती जाती है । निमित्तदृष्टि से जीव का सबसे बड़ा शत्रु वह है जिससे वह मोह रखता है । इस प्राणी की ऐसी विचित्र दशा है कि जिससे वह मोह रखे है वह यदि अन्याय या अनीति का सहारा लिये हुए है तो भी उसी का पक्ष करता है । एक जमाना ऐसा भी था कि यदि अपना ही पुत्र आदि कोई भी अन्याय करता था तो न्याय का अवलंबन ही किया जाता था बिना किसी भेदभाव के । किंतु आज की दशा अति शोचनीय हो गई है । अत: मोह में पड़कर प्राणी स्वयं दुर्गति के कारण बनते हैं । अपने आत्मज्ञान के अतिरिक्त कोई भी संसार से मुक्ति नहीं दिला सकता । मुमुक्षु को आत्मा के स्वभाव को समझते हुए शरीरादि को अपने से पृथक् समझना चाहिए, जो बाह्य कर्म हैं उनको करते हुए की स्थिति में भी आत्मा के सहज चैतन्य स्वभाव को समझते रहना चाहिए तथा निर्णय रखना चाहिये कि परिग्रह व ममता ही विपदा के कारण हैं ।
यदि प्राणी तीन बातें धारण करें तो उन्हें दु:ख का कारण दूर करने में देर न लगेगी । 1. चैतन्य स्वभाव की प्रतीति 2. ब्रह्मचर्य का पालन 3. न्याय व प्रेम का व्यवहार ।
कभी भी लोभादि में पड़कर अन्याय नहीं करना चाहिए । सर्वदा सब प्राणियों से नम्रता से प्रेममय व्यवहार करना चाहिए, इन सब बातों के होते हुए भी कभी न तो अपने को सबसे तुच्छ समझना चाहिए तथा न अपने को सबसे विलक्षण न बड़ा समझना चाहिए । थोड़ा ज्ञान होने पर ही प्राणी अपने को बहुत बड़ा समझने लगता है, किंतु जैसे-जैसे वह ज्ञान प्राप्त करता जाता है वैसे ही वह अनुभूति करता है कि इतने विशाल ज्ञान के समक्ष मेरा ज्ञान बहुत ही कम है । संसार में यदि प्राणी का सबसे बड़ा शत्रु है तो वह मोह माया है । भैया ! बुद्धि का अहंकार न करके विकल्मष निर्विकल्प परमात्मतत्त्व के दर्शन की उत्सुकता रखकर इस ग्रंथ में दिये गये महर्षि के उपदेशों का हम चिंतन करें ।
जगत में शांति केवल अपने आपमें प्रवेश करना ही है । अन्य कोई उपाय नहीं है । अपने आपमें प्रवेश करने का व बाह्य पदार्थों से हटने का उपाय अपने स्वभाव के विपरीत जो बाह्य हैं उनसे दूर रहना है । जगत के बाह्य द्रव्य अन्य हैं, चतुष्टय की अपेक्षा पूर्ण हैं । सो पुद्गल, धर्म-अधर्म आकाश काल व विभावों से हटना तथा अपने स्वभाव में प्रवेश करना चाहिए । देखो―आत्मा जो भी कुछ करता है, अपने में अपने द्वारा अपने लिए ही करता है । बाह्य पदार्थ तो निमित्त मात्र हैं । उपादान का कार्य परिणमना है । मेरा लक्षण है ज्ञान-दर्शन । ज्ञान-दर्शन की परिणति जो कुछ करता हूँ वह सब अपने लिए ही करता हूँ । मैं पर-पदार्थों का करने वाला नही हूँ तथा न कराने वाला हूँ और न अनुमोदन करने वाला हूँ ।
किसी कार्य का प्रयोजन जिसे प्राप्त हो, उसे कराने वाला कहते हैं, ‘‘कार्यप्रयोजकत्वं हि कारकत्वं’’ जैसे नौकर से कार्य कराना है । अब इसमें नौकर ने जो कार्य किया उसका प्रयोजन किसे मिलना है, व्यवहार में जो होता हो सो बताओ । नौकर ने जो कार्य किया उसका प्रयोजन मालिक को मिला इस कारण कहा जाता है कि मालिक ने नौकर से काम कराया । जैसे मालिक ने नौकर से रसोई बनवाई तो रसोई का भोग तो मालिक करेगा, सो मालिक को प्रयोजन मिल जाने से ऐसा कहा जाता है कि मालिक ने नौकर से काम कराया । यह तो व्यवहार की बात हुई, परंतु वहाँ भी वास्तव में देखो तो नौकर ने जो कुछ भी किया उस समस्त कार्य का प्रयोजन नौकर को ही मिलेगा, क्योंकि उसकी आकांक्षाएं उसी कार्य पर निर्भर हैं । यदि वह उस कार्य को पूर्ण कर लेगा तो उचित पारिश्रमिक पा लेगा अन्यथा नहीं । अत: नौकर का कार्य नौकर से ही प्रयोजन रखता है । और मालिक उस कार्य में जैसा अपना भाव बनायेगा वैसा फल उसे प्राप्त होगा । मेरे से बाहर मेरा कार्य परपदार्थों में नहीं होगा । मेरा परिणमन स्व क्षेत्र से बाहर पर पदार्थों में न होगा । उस कार्य का प्रयोजन करने वाले को ही मिलता है । यह प्राणी एक सुख-दु:ख व आनंद की अनुभूति अपने-अपने ही कार्यों से प्राप्त करता है । मैं अपने में अपने से अपने आपको अपने लिए देखता हूँ, मैं चेतता हूँ इसी को चेतना कहते हैं । यह प्राणी अपने आपसे अपनी अनुभूति करता है । यदि ये प्राणी आत्मा के आनंद की अनुभूति का स्मरण करे तो इसके समक्ष सब ऐश्वर्य फीके पड़ते हैं, क्योंकि यह सत्य आनंद स्वरूप है ।
इस जीव ने ऊंचे 2 पद प्राप्त कर सब भोगों को भोगा किंतु आत्मा के आनंद की बराबरी कोई नहीं कर सका । अब, इसके समकक्ष सब भोग व ऐश्वर्य व्यर्थ हैं । मेरा साथ देने वाला मेरा ही स्वभाव है । पर पदार्थ में लगाव दुःख का कारण है, इस प्रकार प्राणियों को सर्वदा विचार करना चाहिए । यह मेरा है, यह मेरी पत्नि है, यह पुत्र है इत्यादि पर के विषयों में लगा हुआ अध्यवसाय दुःख का कारण है । सारी विपत्तियां इसी स्व पर के एकत्व के अध्यवसाय पर निर्भर हैं । यह अध्यवसाय समाप्त हो तो इसके समाप्त होते ही सारी विपत्तियां समाप्त हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि सारी विपत्तियां इसी के पीठ पर रहने से जिंदा हैं । एक बच्चों की कहानी है कि :―
एक जंगल में एक सियार और सियारणी का युगल रहा करता था । सियारणी को बच्चा जनने के लिए शेर की गुफा पसंद आयी तथा वहाँ पर उसने बच्चे जने । तब उन्होंने विचार किया कि शेर के आने पर बचने का क्या उपाय है? सियारणी ने सलाह दी कि तुम भीत के ऊपर चढ़कर बैठ जाओ तथा जब शेर आये तब इशारा कर देना । शेर के आने पर उपरोक्त कार्य किया गया । सियारणी ने बच्चों को रुला दिया तथा सियार के पूछने पर उत्तर दिया कि इन्हें शेर का मांस चाहिए । शेर यह सुनकर डर गया कि यह कौन मेरा भी मांस खाने वाला पैदा हो गया? धीरे-धीरे यह बात शेरों के सामने आयी कि यह कौन हमारे ही घर में सवाशेर आ गया जिसे हमारा मांस चाहिए । वे सब सलाह करने लगे कि जो कुछ बवाल है वह वृक्ष पर रहने वाला ही है अत: क्यों न हम सब मिलकर उसको देखें । तब यह समस्या सामने आई कि उसके पास तक कैसे पहुंचा जावे, निर्णय हुआ कि एक दूसरे के ऊपर चढ़कर उसके पास पहुंचने का रास्ता निकाला जावे, फिर समस्या हुई कि सबसे नीचे कौन रहेगा । काफी विचार-विमर्श के पश्चात् निर्णय हुआ कि सबसे नीचे लंगड़ा शेर रहेगा । निर्णय के अनुसार लंगड़े शेर को सबसे नीचे रखकर एक के ऊपर एक शेर चढ़कर उस सियार तक पहुंचना ही चाहते थे कि इतने में सियारणी ने बच्चों को रुला दिया । सियार ने पूछा कि बच्चे क्यों रोते हैं । सियारणी बोली कि बच्चे कहते हैं कि हम लंगड़े शेर का मांस खायेंगे । इस बात को सुनकर लंगड़ा शेर नीचे से खिसक कर निकल गया तथा सब शेर एक के बाद एक गिर गये । इस प्रकार ज्ञान गुण के प्राप्त हो जाने पर अज्ञान के नष्ट होते ही विषय, कषाय, राग, द्वेष, अहंकारादि भाव स्वयं ही खिसक-खिसक कर नष्ट हो जावेंगे ।
जबकि मैं चैतन्य स्वभाव वाला हूँ, अन्य कुछ नहीं, तब इस लोक में क्या भय है । मैं तो अनादिकाल से प्रकाशमान हूँ । बाह्य पदार्थ में दृष्टि आने पर शंका हो सकती है । किंतु मैं तो चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ । एक क्षेत्रावगाह संबंध होने पर पुद्गल के निमित्त से सुख-दुःख की प्रतीति होती है । वस्तुत: मैं अपने में अपना ही परिणमन करता हूँ बाह्यज्ञेय के अनुसार आकार होता है । सो आकार को जाना जाता है । विकल्प की अपेक्षा व्यवहार में रहते हैं । जैसे मैंने पुस्तक को जाना यह कहा, वहाँ वस्तुत: पुस्तकाकार विकल्प किया । जिस प्रकार दर्पण में देखकर प्राणी सब कुछ बता देता है, उसी प्रकार मैं केवल अपने आपको जानकर सारे विश्व का वर्णन करता हूँ । मैं अपने आपको केवल अपने द्वारा ही जानता हूँ । प्रकाश आदि की अपेक्षा से नहीं, बल्कि अपने ज्ञान भाव के द्वारा जानता हूँ । पुद्गल में स्थित इंद्रियों द्वारा जन्य ज्ञान इंद्रियों द्वारा होते हुए भी इंद्रियों से नहीं होता, वह भी ज्ञान से ही होता है । मैं जानता हूँ, अपने लिए अपने द्वारा अपने को अपने से जानता हूँ । जानने का फल भी आत्मा को ही मिला और जानन क्रिया आत्मा से हुई । जैसे वृक्ष से पत्र गिरा । तात्पर्य यह कि स्थिर वस्तुओं से कोई अंश विमुक्त हुआ । इसमें अपादान पंचम विभक्ति है । मैं चेतना स्वरूप ध्रुवतत्त्व हूँ । आत्मस्वभाव ध्रुव है । यह मैं तो ध्रुव हूँ और इसमें होने वाली परिणति एक मिटती है और दूसरी होती है अर्थात् पहली परिणति से हटकर नवीन परिणति में परिणमन करता हूँ । जितने भी द्रव्य हैं उन सबमें परिणमन होता है, बिना परिणमन का कोई द्रव्य नहीं है । जानने की अपेक्षा देखना सूक्ष्म होता है किंतु व्यवहार में देखने की अपेक्षा जानना सूक्ष्म बताते हैं । जिसे देखना कहते हैं वह भी जानना ही है । समस्त वस्तुओं के सामान्य प्रतिभास को देखना कहते हैं । समस्त वस्तुओं का सामान्य प्रतिभास समस्त वस्तुओं के ज्ञाता के निराकार उपयोग को कहते हैं । ज्ञान और दर्शन मेरे सहज स्वरूप हैं । अत: विचार करना चाहिए कि मेरे प्राण तो ज्ञान दर्शन हैं उनका उच्छेद कैसे हो सकता है । मुझे जो सुख प्राप्त होगा वह सम्यक्ज्ञान से ही होगा । इस प्रकार यह प्राणी सम्यग्ज्ञान को प्राप्त होकर बाह्य पदार्थों से दूर होता है तथा अपने में अपना ज्ञान करता है ।
जो सिद्ध भगवान हैं उनसे उत्कृष्ट कोई नहीं है । तथा जो सिद्ध का स्वरूप है वह मेरा भी है । लेकिन हम लोग मोह में फंसकर संसाररूपी समुद्र में गोते खा रहे हैं । जैसे कि शेर भेड़ियों के बीच फंसकर विकल्प में भेड़िया बन जाता है । वास्तव में तो आत्मोपलब्धि का नाम ही संपदा है तथा इस संपदा के समक्ष सब धन, ऐश्वर्य, विभूति, रईसी व्यर्थ है । यह ऐसी रईसी है जिसमें आपत्ति का नाम नहीं है । ऐसा विश्वास कर, इसको उपयोग में सिद्ध कर प्राणी सिद्धपने को प्राप्त होते हैं, ऐसे सिद्धों को मेरा नमस्कार हो । तथा जो आगे होंगे श्रेणिक आदि उन्हें भी मेरा नमस्कार होवे । संसार के उस पार पहुंचने का नाम सिद्ध होना है, इसका तात्पर्य यह नहीं कि 343 राजू को पार करना है, अपितु संसाररूपी समुद्र से मोह, माया, राग-द्वेष से दूर होना है । भैया ! जो संसाररूपी समुद्र में गोते खा रहे हैं वे कैसे सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। आकाश क्षेत्र में जो सिद्ध भगवान के पास होंगे ऐसे निगोदिया जीव क्या अपने दुःख से छुटकारा पा जाते हैं नहीं, उन्हें वहाँ भी एक श्वास में 18 बार जन्मना और 18 बार मरना होता है । वहाँ पहुंचकर दुःख की कमी हो गई हो, सो बात नहीं है । अपने अंदर जो हमने विकल्प का जाल बुन रखा है वह साक्षात् विपदा को देने वाला है तथा वर्तमान में भी उससे कोई सुख नहीं है किंतु ऐसा पक्का रंग प्राणियों के ऊपर चढ़ गया है कि यह अपने को जिस पर्याय में है उसी रूप में समझता है ।
यह संसार अथाह समुद्र है इससे पार होने का एक ही मार्ग है, वह यह कि जिस प्रकार संसार को समुद्र बनाया उसी प्रकार निर्विकल्प समता आदि भावों को जहाज बनाकर इससे पार हो जावो, इससे अन्य कोई उपाय नहीं । संसार से पार होने का उपाय है तो बस यही है । प्रत्येक पदार्थ में ऐसी दृष्टि होनी चाहिये कि अमुक पदार्थ में अमुक गुण हैं, ये ही इसके सर्वस्व हैं, इसका इससे बाहर कुछ नहीं, उसी प्रकार मेरा गुण भी मुझमें है मुझसे बाहर मेरा कुछ नहीं, मैं भी तो एक पदार्थ ही हूँ मेरा गुण भी मुझमें ही है इससे बाहर कुछ नहीं है । यदि ऐसी धारणा नहीं बनती तो सर्वश्रम व्यर्थ हैं । भाइयों विचार करना चाहिए कि संसारिक विषयों में फंसने के लिए मैं तो किसी का संकोच करूं? क्यों किसी से झूठी अपनी बड़ाई सुनकर प्रसन्न होऊं । कुछ नहीं, मैं भी तो एक पदार्थ हूँ । मेरा गुण भी मुझमें ही है इससे बाहर कुछ नहीं है । यदि ऐसी धारणा नहीं बनती तो सर्व श्रम व्यर्थ हैं । भाइयों ! विचार करना चाहिए कि संसारिक विषयों में फंसने के लिए मैं क्यों तो किसी का संकोच करूं? क्यों किसी से झूठी अपनी बड़ाई सुनकर प्रसन्न होऊं और यह बड़ाई करने वाला भी तो कल नहीं रहेगा । जो चेतन द्रव्य है उसमें कोई पाप नहीं है ऐसा विचारकर सब पर समता भाव पैदा करना चाहिए फलस्वरूप अपने अंदर गुप्त परमात्मा के दर्शन होंगे यह दर्शन रत्नत्रय का मूल है । सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के उपाय से जो सिद्ध होंगे उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ ।