वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 25
From जैनकोष
एयहिं जुत्तउ लक्खणहिं जो परु णिक्कलु देउ ।
सो तहिं णिवसइ परमपइ जो तह लोयंह झेउ ।।25।।
परमात्मा त्रिभुवन वंदित है? तीन लोक के जितने जीव हैं वे सब परमात्मा को वंदना कर लें यह बात तो असंभव है ना? असंज्ञी जीवों में तो वंदना करने की योग्यता ही नहीं है । इन संज्ञी जीवों में कितने मनुष्य हैं? कितने के धर्मबुद्धि है? जिसके धर्मबुद्धि नहीं है वे तो वंदना करने के भाव ही क्या करेंगे? कितने मनुष्य बच जाते हैं, कितने नार की बच गये, कितने देव बच गये । थोड़े से मनुष्य, थोड़े से इंद्रादि जीव और थोड़े से मुख्य जीव ये ही वंदना कर पाते हैं । केवली भगवान् को कहते हैं । इनकी तीनलोक वंदना करते हैं । तीन लोक के जितने जीव हैं वे सब भगवान् के चरणों में नमस्कार करते हैं । यह कैसे ठीक हो? इसका उत्तर सुनिये ।
गतियां चार हैं, अथवा तीन लोक हैं (1) ऊर्ध्वलोक (2) मध्यलोक और (3) पाताललोक । ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक व पाताललोक का इंद्र जब भगवान् के चरणों में झुक गया तो इसका अर्थ यह है कि तीन तीनलोक के सब प्राणी झुक गये और उन इंद्रों के अतिरिक्त अन्य-अन्य भी धर्मप्रेमी आत्माएं हैं जो परमात्मा के चरणों में नमस्कार करते हैं । जो त्रिभुनवंदित है, अनंतचतुष्टय के स्वामी हैं, जो-जो निर्विकल्प समाधि में ही जाना जा सकता है ऐसा निश्चल निरंजन परमात्मदेव रहता कहां है? इस बात को इस दोहे में कहा जा रहा है ।
वह परमात्मा उत्कृष्ट स्वभाव वाला है । आत्मा का जो गुण है उस गुण का पूर्णविकास परमात्मदेव के है क्योंकि गुणों के बाधक हैं रागादिक विकार और निमित्त दृष्टि में हैं द्रव्यकर्म । साक्षात् बाधक तो है रागादिक विकार । जब रागादि विकारों की पर्यायें रहती हैं वहाँ गुण के पूर्णविकास की पर्याय नहीं चलती । इसलिये साक्षात् बाधक रागद्वेष विकार हैं । रागद्वेष विकार आत्मा में स्वरसत: नहीं उत्पन्न होते हैं । आत्मा की परिणति से, किंतु परउपाधि का संबंध पाकर होते हैं । इस कारण निमित्तरूप से बाधक द्रव्यकर्म हैं । जिसके द्रव्यकर्म भी नहीं, 5 प्रकार का शरीर भी नहीं, रागादिक भावकर्म भी नहीं, छुटपुट ज्ञान भी नहीं, क्षयोपशम का भी अभाव हो गया ऐसा सिद्धदेव परमात्मदेव उत्कृष्ट स्वभाव वाला है ।
परमात्मा कहां रहता है? इसे निश्चयदृष्टि से सोचो कि जीव जितने हैं वे सब परिणमते रहते हैं । सिद्ध भगवान भी निश्चयदृष्टि से जैसा शुद्ध वह है वह अपने स्वरूप में रहता है । जैसे कोई आप से पूछे कि आप कहां रहते हैं साहब? तो आप यह कहेंगे साहब अपने स्वरूप में रहते हैं? कोई पूछे कि आप कहां से आ रहे हैं? कहां जावोगे? तो कहोगे पता नहीं कहां जायेंगे? जीव का स्वरूप अपने आपमें है और वह अपने स्वरूप में ही निवास करता आया है । इतना ही तो अंतर हुआ कि हम अशुद्धावस्था में हैं और प्रभु परमपद में है । प्रभु उत्कृष्ट अवस्था में है, लेकिन है तो अपने ही स्वरूप में । मोक्ष कहां है? आत्मा की जो सिद्ध अवस्था है वही मोक्ष है । प्रभु मोक्ष में रहता है, इसका अर्थ है कि परमात्मा अपने परिपूर्ण ज्ञानानंद विकास में वर्तता रहता है इसका ही नाम है मोक्ष में रहना ।
अब सिद्धों का निवास व्यवहारदृष्टि से देखो । जितने भी जीव कर्मयुक्त हुए हैं वे सब लोक के अनुभाग में रहते हैं । क्योंकि अंजन मुक्त होने पर, जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन है ना, इस कारण ऊपर चला जाता है लोक के बाहर आकाश के सिवाय किसी द्रव्य का अस्तित्व नहीं है । अत: लोक के अग्रभाग में प्रभु ठहरते हैं । लोकाग्रभाग में भी कितनी जगह है लोक का अग्रभाग एक राजू लंबा चौड़ा है, उसमें भी कितनी जगह में मुक्तजीव रहते है तो सीधी बात है जो जिस जगह से मुक्त हुआ है उसका सीधा लोक के अग्रभाग में निवास हो जाता है । अब यह देख लो कि मुक्ति कितनी जगह से हुआ करती है? फिर उसके सीध में ऊपर सिद्धदेव का निवास समझलो । ढाई द्वीप के अंदर ही मुक्ति होती है इसलिये ढाई द्वीप में जितना विस्तार है उतना ही मोक्ष स्थान है ।
वह परमात्मदेव निश्चय से कहां रहता है? अपने शुद्ध ज्ञानानंद के परिपूर्ण विकास में रहता है अपने स्वरूप में रहता है, और व्यवहार से कहां रहता है? तो ढाई द्वीप के विस्तार प्रमाण जो लोक का अग्रभाग है वहाँ रहता है । वहाँ रहना व्यवहार से क्यों बताया कि शुद्धजीव और हैं और स्थान और पदार्थ हैं । भिन्न-भिन्न पदार्थों का संबंध करना, वर्णन करना, कुछ संबंध बताना वह सब व्यवहार कहलाता है । एक ही पदार्थ में से एक पदार्थ को बताना सो तो निश्चय की पद्धति है और भिन्न-भिन्न पदार्थों में किसी भी प्रकार का संबंध बताना सो व्यवहार की पद्धति है ।
क्या मुक्तजीव लोक के अग्रभाग में नहीं रहते हैं? रहते हैं, झूठ नहीं है किंतु एक पदार्थ के स्वरूप की दृष्टि से चिगकर दो पदार्थों के संबंध में कुछ दृष्टि की जा रही है कि प्रभु किस जगह रहता है? इसका जो उत्तर हुआ वह व्यवहारपद्धति से हुआ । और प्रभु कहां रहता है? प्रभु अपने शुद्धस्वरूप में रहता है । यह निश्चयं पद्धति का उत्तर हो गया । इस वर्णन से हमें शिक्षा क्या मिलती है? जितने भी वर्णन किये जाते हैं उन वर्णनों में आत्माहित की बात यदि मिलती है तब तो वह वर्णन शिक्षा की बात हुई, हमारे हित का उपदेश हुआ । यदि परमात्मा का वर्णन करके भी हम अपने आत्मा के लिये लाभ की कोई बात न समझ पायें तो चाहे विज्ञानशाला में जाकर और चीजों की निगरानी कर लें, चाहे सिद्ध के स्वरूप की निगरानी कर लें तो कोई लाभ नहीं हो पाता है । सिद्धस्वरूप के वर्णन से कोई लाभ न उठा पाया । इसलिये सब वर्णनों में यदि सम्यग्ज्ञान का संबंध है तो उससे आत्महित की शिक्षा मिलती है? यह शिक्षा मिलती है कि जिस कारणपरमात्मा के ज्ञान से ऐसा उत्कृष्ट विकासरूप परमानंदमय कार्यपरमात्मत्व प्रकट होता है, उस कारणपरमात्मा की दृष्टि उपादेय है ।
यह तो है प्रभु के स्वरूप की बात । तीन लोक के द्वीप समुद्र का वर्णन करके भी आत्महित की शिक्षा ग्रहण करो और जगत में अनेक प्रकार के जीवों की अवगाहना देखकर आत्महित की शिक्षा लो । अभी रास्ते में जाते-जाते भी यदि कोई पीड़ित सूकर मिल जाता है, कोई भाला वगैरह से बेधा हुआ, काटा हुआ, खून निकला हुआ तो आपके मन में दया का भाव आता है वह दया सूकर पर नहीं की जा रही है किंतु यह समझ में आया कि जैसा सूकर का अथवा इस जीव का स्वरूप है वैसा ही हमारा स्वरूप है । जैसे इसको वेदना दी जा रही है वैसे ही मुझे वेदना दी जा सकती है तो इस तुलना का भाव आने पर आपके दया उत्पन्न होती है । कुछ संबंध मिला ना?
जीव की आगम में अवगाहना बताई है । स्वयंभूरमण समुद्र में उत्पन्न हुए महामत्स्य को लो वह एक हजार योजन लंबा, पांच सौ योजन चौड़ा और ढाई सौ योजन मोटा है । तो इस वर्णन से अपने हित के लिये क्या बात मालूम पड़ी कि अहो जिस कारण परमात्मा के ज्ञान के बिना जीव के अन्य-अन्य देहों की स्थिति हुआ करती है वह कारणपरमात्मा उपादेय है । उसका ज्ञान हो तो इन-इन सब अवगाहना वाले देहों में निवास करना छूट सकता है । इतनी बात वर्णन से समझ में आ सके, मन में उतर सके तो वह वर्णन धर्मप्रद हो गया ।
तीनों लोक कितने बड़े हैं । 343 घन राजूप्रमाण हैं । कैसी-कैसी रचनाएँ हैं, सब ज्ञान कर लिया । इस ज्ञान से कुछ शिक्षा भी मिली? हां मिली । देखो निजस्वरूप के बोध के बिना जीव का 343 घन राजू प्रमाण लोक में प्रलोक प्रदेशों पर अनंत बार जन्म हुआ है, मरण हुआ है । यदि अपने में शुद्ध सहजस्वरूप की अनुभूति हो जाय तो यह जन्म मरण से छूट सकता है । जो इतनी शिक्षा यदि उस वर्णन को सुनकर प्राप्त कर पाते हैं उनका जन्म सफल है ।
प्रभुस्वरूप का हम ध्यान करते हैं, वर्णन करते हैं, चिंतन करते हैं उससे हमें यह शिक्षा लेना है कि जैसा परमात्मा का स्वरूप है वैसा ही हम सब आत्मद्रव्यों का भी स्वरूप है यह बात समझ में आये । मुक्त जीवों के सदृश द्रव्यत: शुद्ध आत्मा है और वह उपादेय है । यह परमात्मा के स्वरूप को जानकर हमें भाव ग्रहण करना चाहिये । जैसे बिल्कुल निर्मल जल और कीचड़ से मिला हुआ गंदा जल की बात सोचें । हम आप से कहें कि जरा निर्मल जल के स्वरूप का वर्णन करो और गंदे जल के स्वभाव का वर्णन करो तो आप निर्मल जल और जल के स्वभाव का वर्णन एकसा करेंगे । गंदे जल में रहने वाले जल के स्वभाव का वर्णन और स्वच्छ गिलास में रखे स्वच्छ जल का वर्णन दोनों का एक समान वर्णन होगा ।
हां, गंदे जल की पर्याय की दशा का वर्णन भिन्न होगा मगर गंदे जल के स्वभाव का वर्णन और निर्मल जल के स्वभाव का वर्णन एकसा होगा । इसी प्रकार संसारी जीव की दशा का वर्णन भिन्न होगा और परमात्मस्वरूप का वर्णन भिन्न होगा । पर परमात्मा के स्वरूप का वर्णन और जीव के स्वभाव का वर्णन एक समान होगा । उसमें रंच भी अंतर न आयगा क्योंकि जो परमात्मा होता है वह शुद्ध आत्मस्वभाव का विकास ही तो है । सो प्रभु के वर्णन के साथ-साथ अपनी शक्ति अपने स्वभाव की श्रद्धा भी जगती जाय, श्रद्धा बनी रहे तो ऐसी स्थिति में कभी ऐसा अवसर आ सकता है कि प्रभु और भक्त का यह भेद भी मिट सकता है और भक्त भी शुद्ध चैतन्य प्रकाशमय रह जायगा ।
जिस क्षण उपयोग का विषय त्रैकालिक शुद्ध चैतन्यप्रकाश रह जाता है उस क्षण जो सहज आनंद उत्पन्न होता है वही आत्मानुभव की स्थिति है । और उस आनंद के प्रताप से कर्मों का क्षय होता है, वृत्तीय का तीन प्रकार की आत्माओं का कथन इन वर्णनों में किया गया है, और सब वर्णनों में यह बात बताई गई है कि मुक्ति को प्राप्त शुद्ध जीव के स्वरूप की तरह द्रव्यत: समस्त संसारी जीव हैं, यही समस्त जीवों का स्वभाव है । अब इसके बाद कुछ, दोहों में यह बात बतावेंगे कि जैसा व्यक्तिरूप परमात्मा मुक्ति में ठहरता है वैसा ही शुद्ध निश्चय से शक्तिरूप से यह आत्मा ठहरता है ।