वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 26
From जैनकोष
जेहड णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहिं णिवसइ देउ ।
तेहउ णिवसइ वंभु परु देहहिं मे करि भेउ ।।26।।
जितने भी मनुष्य हैं, प्राणी हैं वे सब दो बातों को लिये हुए रहते हीं हैं । मैं क्या हूँ और मुझे क्या बनना है । बच्चों में भी ये दो बातें मिलेंगी । मैं क्या हूँ और मुझे क्या बनना है? मैं सेठ का कुंवर हूँ और मुझे करोड़पति बनना है । कोई सोचता है कि मैं पंडित का लड़का हूँ और मुझे पंडित बनना है । मैं क्या हूं और क्या बनना है ये दो बातें सबके चित्त में बैठी हुई हैं ।
अभी रास्ते में एक नवयुवक बोलता था कि साहब मेरा तो ऐसा दिल है कि गृहस्थी में चित्त नहीं लगता है । मेरी तो ऐसी इच्छा है कि मैं समाज में कोई ऐसा काम कर जाऊं कि मेरा नाम हो जाय । हालांकि शुद्ध भाव से कहा पर बेचारे को कहने की अध्यात्मपद्धति न मालूम थी । अध्यात्मपद्धति के जानने वाले तो उसके वचनों की निंदा करेंगे । इसके अंदर यों चाह है कि मेरा नाम हो जाय । उसका प्रयोजन विशुद्ध था कि गृहस्थी के झंझटों में नहीं रहना चाहता हूँ और समाज का कोई अच्छा कार्य करना चाहता हूँ ।
भैय्या ! जैसे-जैसे ज्ञान का विकास होता जाता है तैसे-तैसे अपनी वृत्तियों की गल्तियां मालूम होती जाती हैं । शुरू में वहाँ मैं यों करूं, भक्ति करूं, ज्ञानी बनूं, सब प्रकार से अपने धर्म को करना समझते हैं । कुछ और शुद्ध जानने पर यह काम करना है तो भी ध्यान में यह रखना है कि जीव के जानने का प्रयोजनभूत यथार्थज्ञान होना चाहिये । उस ज्ञान से ही परमात्म विकास है और उससे ही स्वयं की सिद्धि है । सो अब ज्ञान को बढ़ाओ । ज्ञान के बढ़ाने पर भी जानन की आवश्यक क्रियायें रह जाती हैं सो फिर और ऊंचे चलकर यह सोचना है कि जो-जो यत्न मैं करता हूँ वह ज्ञान के लिये करता हूँ, धर्म के लिये करता हूँ, इसके अतिरिक्त जितनी भी चेष्टाएँ हैं वे सब अज्ञान की चेष्टाएँ हैं । ज्ञान की चेष्टा तो केवल शुद्धज्ञान का अवलोकन होता है । जहाँ मात्र जानन रहता है वह है ज्ञान की स्थिति । ये तो सब मंद कषाय की चेष्टाएँ हैं । कषाय तो ज्ञान का स्वरूप नहीं है । तो जैसे-जैसे ज्ञानवृत्ति जगती जाती है तैसे-तै से अपने किए हुए यत्न अपने को गलत मालूम देते जाते हैं । कब तक ये गलत मालूम होते रहेंगे? जब तक शुद्ध ज्ञान में पूर्ण लीनता नहीं हो जाती है ।
इस दोहे में कह रहे हैं कि जैसा केवल ज्ञानानंद व्यक्तरूप कार्य समयसार है वैसा ही यह शक्तरूप कारणसमयसार है । कार्यपरमात्मा, कार्यसमयसार, अरहंत सिद्ध ये सब एक ही अर्थ को बताने वाले शब्द हैं । जो कार्य समयसार निर्मल है, भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से रहित है, ज्ञानमय है, केवलज्ञान से रचा हुआ है, सिद्धभगवान मुक्ति में ठहरता है, परम आराध्य है ऐसा ही शुद्ध बुद्ध एकस्वभाव शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से यह आत्मा देह में बसता है ।
जैन शासन को पाकर आत्मलाभ कर लीजिये । इतनी बात सबके मन में रहना चाहिये कि मेरा स्वरूप ज्ञानकर रचा हुआ है और इस ज्ञानमय मुझ आत्मा का लोक में परमाणुमात्र भी कुछ नहीं है । यह मैं आत्मस्वभाव से आनंद करके पूर्ण हूं, यह बात श्रद्धा में रहे तो आपके धर्म के अर्थ किये हुये श्रम से लाभ है, और अगर धर्म इसलिये किया जा रहा हो कि धर्म में लगे रखें, घर बार अच्छा बनेगा, लड़के खुश रहेंगे? कुटुंब परिवार सब मौज में रहेंगे, केवल इतनी बातों के लिये धर्म का रूपक बना रहे तो उससे आत्मा को लाभ नहीं मिलेगा ।
जिन-जिन पदार्थों का आपको समागम मिला है उनमें से कोई भी पदार्थ ऐसा बतलाओ जो आपके पास सदा रह सकता हो । जितने भी समागम मिले हैं उनमें नियम से वियोग होगा । तो इन समागमों में चैन मानने का फल क्या होगा कि वियोग के समय आपको बहुत कष्ट होगा । जितना अपनी उमर भर मौज मानते हो उस मौज में जितना जो कुछ मौज इकट्ठा कर लिया है उससे भी कई गुणा क्लेश आपको वियोग के समय में होगा । तब विवेक क्या है कि इन समागमों के समय में उन बातों में हर्ष न मानो। बात मान लो अन्यथा तो क्लेशमय, संसार की अवस्था होगी ।
एक सेठ था । उसकी मृत्यु निकट आ गई । तो नगर के चार-छह आदमियों को बुलाकर कहा कि मेरी इस जायदाद का ट्रस्टनामा लिख दो, मैं इस दो वर्ष के बच्चे को छोड़ जा रहा हूँ । ये चार-पांच ट्रस्टी हैं जो जायदाद की रक्षा करेंगे । जब बच्चा बड़ा हो जाय तो सारी जायदाद इस बच्चे को सौंप देना । सेठ गुजर गया । कुछ दिनों के बाद में बच्चा सड़क पर खेल रहा था । उस सड़क से एक ठग निकला । उस ठग को बच्चा बड़ा सुंदर लगा । मन में बड़ी प्रसन्नता हुई । वह ठग उस बच्चे को उठा ले गया क्योंकि उसके भी कोई बच्चा न था । उसकी स्त्री ठगनी ने उसे खूब पाला पोसा । अब 17-18 साल का हो गया―वह तो यही समझ रहा है कि मेरा बाप तो यही है, मेरी मां यही है, मेरा वैभव तो यह खेती गाय, भैंस ही है ।
अब वह एक दिन शहर में निकला तो उसे एक ट्रस्टी सेठ मिल गया । सेठ ने पहिचान लिया व कहा―अरे बेटा, कहां जा रहे हो, यह तुम्हारी 10 लाख की जायदाद पड़ी है अब तो इसे संभालो । हम लोग कहां तक संभालेंगे । तो उसने समझ लिया कि सेठ मुझे बहका रहा है, उसने उसकी बात अनसुनी कर दी । अब दूसरे ट्रस्टी ने कहा, तीसरे ट्रस्टी ने कहा कि बेटा लो अपनी यह 10 लाख की जायदाद अब तो संभालो, उसने फिर अनसुनी कर दी । फिर चौथे ट्रस्टी ने कहा, आखिर बालक तो वैश्य का था । सोचता है कि ये सब देने को ही तो कह रहे हैं कुछ छुड़ा तो नहीं रहे हैं । कहा अच्छा ठहरो, 15-20 दिन में जायदाद को संभालेंगे ।
अब वह अपने घर जंगल में गया । अपनी ठगनी मां से पूछता है बड़ी नम्रता से कि मां सच तो बतलावो कि मैं किसका बेटा हूं? ठगनी ने कहा कि तू तो एक सेठ का बेटा है, तू मुझे सुंदर लगा इसलिये तुझे मैंने उठा मंगाया और तुझे पाला पोसा । उसको ज्ञान हो गया । सोचा ठीक कहते थे वे चारों । मैं फलां सेठ का लड़का हूँ, अब मुझे 10 लाख की जायदाद मिलेगी । तो इतना जानने पर क्या वह अपनी मां को मां नहीं कहेगा ? क्या वह कहेगा कि ऐ ठगनी ! तू मुझे पानी पिला ? क्या वह अपने खेत, गाय, बैल की रक्षा न करेगा ? सारी बातें करेगा मगर दिल कहां लगा है? दिल लगा है अपने वैभव में । फिर कुछ समय में आसानी से जाकर वह अपनी जायदाद संभाल लेता है ।
इसी तरह हम सबमें जीव बालक है । जब तक अज्ञान है तब तक बालक कहते हैं । इस बालक की जायदाद जो अनंतज्ञान अनंतसुख की निधि है उसके ट्रस्टी हैं कुंदकुंदाचार्य समंतभद्रमहाराज आदि । इस निधि को हम आप सब भूल बैठे हैं । इसलिये कहते हैं कि यह मेरा घर है, यह मेरा धन वैभव है, यह मेरी मां है, यह मेरा पिता है । यही हम आप सब मान रहे है । यह हम आपको पता नहीं है कि यह मनुष्यभव बड़ी कठिनाई से मिला है, इस मनुष्यभव में तो अपने कल्याण की बात सोच लेना चाहिये ।
हमारे ट्रस्टी एक आचार्यदेव ने बताया कि तुम्हारा सुख इन बाह्य चीजों में नहीं है । तुम्हारा अनंतवैभव है तुम ही में गुप्त है, अनसुनी कर दिया । दो चार ट्रस्टियों ने समझाया तो कुछ ख्याल करता है कि के मेरे हित के लिये ही लिख गये हैं । कह रहे हैं, सो कुछ सोचा कि अच्छा मानूंगा तुम्हारी बात । एकांत में बैठा और इन अनुभूतियों से बड़ी दया की दृष्टि से पूछने लगा नम्रता के साथ पूछने लगा कि सच तो बतलाओ कि मेरा सच्चा घर कौन है? अनुभूति ने सरलता से जवाब दे दिया कि तेरा घर तेरा शुद्ध स्वरूप है, इस तेरे स्वरूप में अनंतज्ञान, अनंतदर्शन की निधि है । अब उसे पूरा ज्ञान हो गया क्योंकि यह गृहस्थ तो समझ ही रहा था । ये ट्रस्टी लोग तो पुकार ही रहे थे, अब अनुभूति ने भी समर्थन कर दिया कि यह तेरा घर है, यह तेरी जायदाद है । बस उसे सम्यग्ज्ञान हो गया ।
सम्यग्ज्ञान होने पर क्या वह ज्ञानी पुरुष मां को मां व पिता को पिता नहीं कहेगा? कहेगा । वह स्त्री से यह नहीं कहेगा कि तू मुझे नर्क में डालने वाली है । क्या वह सबसे बुरे वचनों से बोलेगा? नहीं बोलेगा । उनसे पले पुसे हैं, जीवन मिला है, लगाव है तो धीरे से, आसानी से वहाँ से छुटकारा पाकर यह अपनी निधि को पाने के लिये उत्सुक हो जायगा । फिर इस लौकिक निधि को छोड़कर ज्ञानानंदमय निजनिधि को अपने उपयोग में प्राप्त करने को उपयोगरूप यत्न करेगा ।
जैसे किसी सेठ के गुजरने पर केवल उस घर एक नाबालिग लड़का हो तो सरकार उसकी जायदाद को कोर्ट आफ बार्ड कर ले और 500 रुपया महीना सरकार देने लगे तो जब तक उसे ठीक-2 पता नहीं होता तब तक वह जानता है कि वह सरकार बड़ी दयालु है, घर बैठे 500) महीना देती है । लाखों की जायदाद सरकार के सुपुर्द हो जाती है । जब बालक को यह बात मालूम होती है तब फिर वह बालिग सरकार को नोटिस दे देता है कि 500) रुपया महीना नहीं चाहिये । पहिले तो समझता था कि सरकार मुझ पर दया कर रही है घर बैठे 500) महीना देती है । पर जब यह ज्ञात हो जाता है कि सरकार ने मेरी 10 लाख की जायदाद जप्त कर रखी है और उसमें से 500 रुपया महीना देकर मुझे बहका रही है । इतना समझ में आते ही 500 रुपया महीना लेना तिरस्कृत कर देता है ।
इसी प्रकार इस जीव को जब तक अपने स्वरूप का सही पता नहीं होता है कि मैं क्या हूँ? तब तक तो छोटे-छोटे पुण्यों से प्राप्त वैभव से आने को भाग्यशाली समझता है । पर जब अपने आपके स्वरूप का सही पता हो जाता है, उसे यह समझ में जब आ जाता है कि मेरा स्वरूप तो स्वयं आनंदमय है, मैं तो स्वयं आनंदमय हूँ, इतना ज्ञान आते ही उस बाह्यवैभव को वह तिरस्कृत कर देता है और पुण्य सरकार को नोटिस दे देता है कि अपनी पाई-पाई संभालों, मुझे कुछ नहीं चाहिये और अपने भीतर अपना उपयोग देकर अपनी आनंदनिधि को प्रकट कर लेता है । जिसने प्रकट किया उसे परमात्मा कहते हैं और जो परमात्मा का स्वरूप है वही हम आपका स्वभाव है । ऐसा विश्वास रखो कि क्षणिक निधि से उपेक्षा रखो, इससे पूरा न पड़ेगा । आपका पूरा तो आपके अंतर्ज्ञान से होगा ।
जैसे केवलज्ञान आदि रूप में प्रकट होने वाला कार्य समयसार उपाधि रहित परमात्मादेव है, जो मुक्ति में निवास करता है ऐसा ही परमब्रह्म कारण समयसार यह आत्मदेह में निवास करता है । कारण समयसार तो शक्ति का नाम है और कार्य समयसार शक्ति की पूर्ण व्यक्ति का नाम है । समयसार का अर्थ है कि समस्त समयों में द्रव्यों में सारभूत द्रव्य है, आत्मद्रव्य, उसमें भी सारभूत त्रैकालिक जो स्वरूप है उसे कहते हैं समयसार और वह इसही शक्ति में दृष्ट हो तो उसका नाम है कारणसमयसार । और जैसा आत्मा का स्वभाव है तैसा ही पूर्ण व्यक्त हो जाय तो उसको कहते हैं कार्यसमयसार ।
भैय्या ! इस लोक में अब तक पंचेंद्रियों के विषयों में और मन के विषयों में ही अनुराग किया, विषयों की ही बात सुनी, विषयों की ही बात परिचय में आई और विषयों की ही बात अनुभव में आई किंतु अपने आपके स्वरूप में अंत:प्रकाशमान ज्ञायकस्वरूप यह देव अपने ज्ञान में न आया, यह आत्मा स्वयं, स्वयं के लिये महान् है यह समझ में न आया और पर से कुछ भिक्षा मांगता हुआ, ऐसा बना हुआ यह भिखारी रहा । परिवार से आशा की, उनका ही भिखारी रहा, देश से आशा की, वहाँ भी भिखारी रहा और यहाँ तक कि कभी देव शास्त्र गुरु का प्रसंग आवे तो वहां भी विषयसाधना की आशा रखी । वहाँ भी भिखारी रहा ।
भैय्या ! प्रसंग के समक्ष हमें भिखारी नहीं बनना है किंतु प्रभु का भक्त बनना है । भक्त और भिखारी में अंतर हैं । प्रभु के स्वरूप की उपयोग से सेवा करना भक्ति है । यह कार्यसमयसार का स्मरण कारणसमयसार का स्मरण याद दिलाने के लिये है । किंतु ये विषयसाधनों की मांग के लिये उपासनीय नहीं है । जैसे यह प्रभु भावकर्म, द्रव्यकर्म नोकर्म से रहित है, इसी प्रकार यह स्वयं सहजस्वरूप भावकर्म, द्रव्यकर्म नोकर्म से रहित है । जैसे जल में डूबे हुए कमल के पत्र को हम इस दृष्टि से भी देख सकते हैं कि यह पानी में डूबा हुआ है, पानी से छुवा हुआ है, पर उस डूबी हुई हालत में भी केवल कमल के पत्र पर दृष्टि दें और कमलपत्र के स्वभाव को निरखें तो, यह ज्ञात होगा कि यह कमलपत्र पानी से छुवा हुआ नहीं है उसही प्रकार इस आत्मदेव को कर्म नोकर्म शरीर और बाह्य वातावरण से बंधा और फंसा अनुभव किया तो शरीर के बंधन में है, अनेक बंधनों में हैं तथा इस ही आत्मद्रव्य को यदि हम इसके सहजस्वरूप की दृष्टि से देखें अर्थात् यह चैतन्यसत् अपने शुद्धसत्त्व के कारण इस स्वरूप को लिये हुए हैं, इस दृष्टि से देखते हैं तो यह समस्त परउपाधियों से अछूता है ।
यह सब प्रज्ञा की महिमा है । जैसे हड्डी का फोटो लेने वाला एक्सरा क्या उसके नीचे पड़े हुए मनुष्य के न कपड़े का फोटो लेता है, न चमड़ी का फोटो लेता है, न खून का, न मांस का इन सबको छोड़कर केवल हड्डी का फोटो ले लेता है इसही प्रकार यह प्रज्ञा सर्वकर्म, रागादिक विकार सबको छोड़कर केवलज्ञान स्वभाव को ग्रहण कर लिया करता है ।
एक चुटकुला में कहते हैं कि राजा और मंत्री सभा में बैठे हुए थे । राजा ने मंत्री से मजाक किया, नीचा दिखाने के लिये अथवा इसी प्रकार व्यवहार चला करता था । राजा बोला मंत्रीजी आज रात को मुझे एक स्वप्न आया कि हम दोनों घूमने जा रहे थे, रास्ते में दो गड्ढे मिल गये एक गड्ढा था गोबर का और एक था शक्कर का सो आप तो गोबर के गड्ढे में गिर गये और मैं शक्कर के गड्ढे में गिर गया । तो मंत्री बोला महाराज ठीक यही स्वप्न मुझे आया है, कि आप तो शक्कर के गड्ढे में हैं और मैं गोबर के गड्ढे में हूँ । हमारा और आपका चित्त एकसा है ना? पर एक बात इससे ज्यादा मैंने देखी कि आप मुझे चाट रहे थे और मैं आपको चाट रहा था । अब बतलावो कि गोबर के गड्ढे में गिरा हुआ व्यक्ति स्वाद किसका ले रहा था? शक्कर का और शक्कर के गड्ढे में पड़ा हुआ व्यक्ति स्वाद किसका ले रहा था? गोबर का । इसी प्रकार यह बंधन, लगाव, फंसाव, गृहस्थी का समागम, कुरता टोपी के बीच में फंसा हुआ ज्ञानीपुरुष समस्त माया रूपों को पार करके अंत: बसे हुए ज्ञानस्वभाव को लखता है तो बतलावो कि गृहस्थी के कीचड़ में अथवा गोबर के गड्ढे में पड़ा हुआ वह ज्ञानी स्वाद किसका ले रहा है? ज्ञानस्वभाव का, परमात्मस्वरूप का, सहजआनंद का और सर्व कुछ छोड़कर त्यागकर एक बाह्य में त्यागी बनकर यदि ज्ञानदृष्टि से विषय और कषाय, प्रतिष्ठा रीति, अथवा किन्हीं प्रकार के विषयों में चित्त जाता है तो वह किसका स्वाद लेता है? कीचड़ का, गोबर का ।
यदि कला है, प्रताप है तो दृष्टि का है और हम आप सब तिर सकते हैं तो इस ही दृष्टि के बल से तिर सकते हैं तो इस ही प्रज्ञा द्वारा यह देखा जा रहा है कि जैसे परमात्मस्वरूप भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्म से रहित है इस ही प्रकार यह अपने अस्तित्व में सदा विराजमान अपने ही सत्त्व के कारण जिस सहज स्वरूप में रहता है उस ज्ञायक स्वभाव को निरखकर देख तो यह मैं भी परमात्मा की तरह एक शुद्ध चैतन्य हूँ । इस देह में रह रहा हूँ पर भेद न करूँ, केवल स्वरूप और स्वभाव को लखकर एक शुद्ध आनंद की दृष्टि करूँ । यह सब एक ज्ञानदृष्टि की लीला है, जिस दृष्टि से स्वरूप पथ से चलकर यह आत्मा प्रगति की ओर जा रहा है । उसही कला को देखिये । अन्यथा जिसने इंद्रियों द्वारा जैसा जाना है वैसा ही अपने को देखा तो वहाँ शंका हो जायगी कि यह तो शरीर, कर्म और विकारों से तो बंधा है और कहा जा रहा है कि हमारा स्वरूप सिद्ध के समान है ।
यह कारणसमयसार जो परम ध्येय है, आचार्य साधु उपाध्याय भी जिस कारणसमयसार का ध्यान करते हैं, जिस कारणसमयसार का ही आश्रय लेकर अरहंत और सिद्धरूप में परमात्मात्मपद प्राप्त करते हैं वह कारणसमयसार महापुरुषों से भी नमस्कार करने योग्य है । भैया ! हमारा और आपका शरण क्या है? जैसे बच्चे को किसी ने डांटा तो दौड़कर झट वह अपनी मां की गोद में बैठ जाता है और अपने को निरुपद्रव अनुभव कर लेता है । उस बच्चे को कोई कष्ट आने पर शरण है मां की गोद, इसी प्रकार हम आप सब कितने क्लेशों में पड़े हैं? धन है तो क्लेश, नहीं है तो क्लेश, समागम है तो क्लेश, समागम नहीं है तो क्लेश, बहुत से बच्चे हैं तो क्लेश, अकेला ही है तो क्लेश इत्यादि क्लेशों का सबको अनुभव हो रहा होगा । सब अपने आप में दुःख पा रहे हैं । ऐसे दुःख संकटों से घिरे हुए हम किसकी शरण जाएं कि ये संकट तत्क्षण खतम हो जाएं? फिर चाहे उस शक्ति से हम हटे तो संकट आ जावें, पर एक बार तो जिसकी शरण में पहुंचकर संकट दूर हो जाएं ऐसा शरण कौन है? किसके पास जावोगे? किस लखपति के पास जाकर निर्मलता का अनुभव करोगे? किसके पास जाकर अपने को संकटरहित अनुभव करोगे? परद्रव्यों की पकड़ से एक क्षण भी अपने को संकटरहित नहीं पा सकते ।
एक अपने आपके प्रकाशमात्र सहजस्वरूपमय कारणपरमात्मा की शरण पहुंचो । देखो यदि अपने सहजस्वरूप की शरण पहुंच पाते हो अर्थात् रागद्वेषादि के विकल्परहित (समता परिणाम रूप में) वृत्ति में रह पाते हो तो तत्क्षण सर्वसंकट दूर हो जाते हैं । हां यदि तुम अपने केंद्र से चिग जावोगे तो फिर संकट पाने लगोगे । इसका कारण यह है कि संकट परपदार्थों से नहीं आया करते हैं ।
यदि संकट परपदार्थों से आते होते तो ये संसारी रोगी बेइलाज हो जाते फिर इसका दुनिया में कोई इलाज नहीं रहता कि जिस उपाय से संकटों से मुक्ति हो सके कोई भी संकट परपदार्थों से नहीं आते । एक भी संकट आप बतायें । पर से संकट आते ही नहीं । संकट खुद को ही विचारधारा बनाकर कल्पना बनाकर कुछ का कुछ सोचकर मान लिया करता है, बड़ी परेशानी अनुभव करता है । किंतु भैया ! दूसरों के संकटों की कथा सुनकर जैसे तुम्हें बीच-बीच में हंसी आती रहती है कि कैसी मूर्खता भरी बात करता है कि हम संकटों में हैं । छोड़ दे यदि मोह को तो संकट टला ही टला । इस प्रकार अपनी मुक्तता अपने को अनुभव में नहीं आ पाती ।
संकट केवल अपनी कल्पना है । हमारी ऐसी कच्ची गृहस्थी है कि यह तो छोड़ी ही नहीं जा सकती है । यह तो सरासर संकट है यह तो पुण्यफल की उद्दंडता है । सुकौशल स्वामी के कच्ची गृहस्थी न थी क्या? स्त्री की भी उम्र छोटी थी । पुन के वियोग में मां बड़ी दुःखी थी । हम आपसे भी कच्ची गृहस्थी सुकौशल स्वामी की थी पर उनके ज्ञान जगा और संकट मिटे । उस समय समझाने वाले हजारों व्यक्ति समझाते थे । कोई समझाता कि तुम घर के लोगों को छोड़ दोगे तो इन बेचारों की क्या हालत होगी? हम आप यह नहीं जानते हैं कि घर में रहने वाले लोगों की अधिक पुण्य है जिसकी वजह से हमें इनकी नौकरी करनी पड़ रही है । वस्तुस्वातंत्र की दृष्टि करो, क्लेश न रहेगा ।
यह जीव किसी पर का कर्ता नहीं है । यह केवल अपने विकल्प बनाया करता है । विकल्प बनाने के अतिरिक्त इसका कोई काम नहीं है । तो ऐसी शरण कौन है कि जिसकी शरण में जाएँ तो तत्क्षण आराम मिले? वह शरण है अपना शुद्ध ज्ञानस्वरूप किंतु इसका दर्शन किरना इसकी चर्चा करना, इसके ज्ञान में लगना यह बहुत बड़ा कठिन मालूम हो रहा है । कठिनाई मालूम होती है इस कारण कि इसके समीप नहीं पहुंचे और जो आत्मज्ञ पुरुष हैं उनकी सेवा में नहीं रहे, अथवा सत्संग में नहीं रहे । अथवा ज्ञान के अर्जन का यत्न नहीं किया । केवल कनक कामिनी यही इनके सब देव रहे, गुरु रहे । देव गुरु को माना लोकव्यवहार से, रूढि से । मैं कुछ ठीक कहलाऊँ, बड़ा कहलाऊं, न जाने कितने आशयों से देव को माना ।
आत्महित बुद्धि के कारण सहजसिद्ध आत्मा की ओर व आत्मज्ञों के सत्संग में न पहुंचा इसलिये यह बात कठिन मालूम हो रही है किंतु है यह खुद के घर की बात है । अपने आत्मा के स्वरूप की बात कैसे कठिन हो सकती है? कठिन है । कठिन है पैसा कमाना उस पर आपका अधिकार नहीं । आना होता है तो आता है वह आपके पूर्वकृत पुण्य का फल है । दुकान में ही बैठे-बैठे सोचते जायें कि इसकी जेब का पैसा हमारी दुकान में आ जाय तो क्या इस परिणाम के फल में पैसा आ जायगा । यह कैसे हो सकता है? जैसे कौवा के सोचने से ढोर नहीं मरा करते इसी प्रकार आपके पर के संबंध में सोचने से पर में परिणति नहीं हुआ करती । केवल विकल्पों के ही हम कर्ता बनते हैं ।
इन विकल्पों से विराम मिले, इस बात को जीव नहीं सोचता है और मोह से उत्पन्न हुए दुःख को मिटाने के लिये मोह करने का ही इलाज करता है । राग का उत्पन्न करना राग बढ़ाने का ही यत्न करना है । यह उद्यम उनका ऐसा है कि जैसे खून से भिड़े हुए कपड़े को धोने के लिये खून से ही धोते हैं । सत्यदृष्टि से देखो तो जो मानी ज्ञान के स्वरूप का जान करतार है वह ज्ञान ऐसा ज्ञान है कि जिस ज्ञान में से ज्ञान की शुद्धवृत्ति उत्पन्न होती है और ज्ञान के पूर्णविकास को ज्ञान कर लेता है । जो ज्ञान अपने स्वरूप को छोड़कर बाहरी पदार्थों के जानने में जुटा रहता है उस ज्ञान को अज्ञान कह दिया जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं । इस ज्ञान के द्वारा हम जगत् के पदार्थ की ऐसी व्यवस्था कुरते हैं और हम स्वयं को नहीं समझना चाहते हैं, यह अपने आप पर कितना बड़ा अन्याय है ।
यह मेरा प्रभु मुझमें अनादि काल से मेरे उद्धार के लिये विराजमान है और इसकी भूल के कारण भूले भटके हम फिर रहे हैं । जब तक हमारे मूढ़ता छाई है तब तक हम लाचार हैं, हम अपना उद्धार करने में समर्थ नहीं हैं । पर यह अपने आपके प्रभु को देखना ही नहीं चाहता और इन इंद्रिय और मन के द्वार से बाह्य-बाह्य में ही रमता है ।
कोई बाबू थे अपने आपकी सुंदर व्यवस्था में ही लगे रहे थे । उचित-उचित स्थान पर चीजें रख रहे थे । घड़ी की जगह घड़ी रख दिया, छड़ी की जगह छड़ी रख दिया और लिख दिया । जूते रख दिये और लिख दिया जूते । जहाँ जो चीज रखना चाहिये वहां वह चीज रख दिया और लिख दिया । यही तो सुंदर व्यवस्था है । व्यवस्था करते-करते नींद आने लगी, पलंग पर लेट गया । व्यवस्था की धुन में जिस पलंग पर लेट गए वहां पर लिख दिया मैं सो गया, जब सुबह हुआ जगे तो देखा कि जो चीज जहाँ रखी थी वह वहाँ है कि नहीं । देखा―घड़ी की जगह घड़ी, यस, ठीक । छड़ी की जगह छड़ी ठीक और जब पलंग पर देखा तो उसमें मैं लिखा था । देखा तो मैं है ही नहीं । पलंग को लट्ठ से झाड़ा, शायद कहीं नीचे टपक जावे, मैं तो मिला ही नहीं, इस भ्रम से दुःखी होने लगा, झट नौकर को पुकारा, अरे गजब हो गया, मेरा मैं गुम गया । बाबू साहब की बात सुनकर नौकर हँसने लगा । बाबूजी ने कहा अरे तू तो मजाक समझता है । मेरा मैं गुम गया । नौकर बोला बाबू साहब आप थक गये होंगे, आप 5 मिनट विश्राम कर लीजिये तो आपका मैं अभी मिल जायगा । बाबू साहब थके हुए थे, वे पलंग पर लेट गए और नींद आ गई । जब थोड़ी देर बाद सोकर उठे तो नौकर ने कहा बाबूजी आपका मैं पलंग पर मिल गया । पलंग पर अपने को टटोला तो बोले―ओ यस मेरा मैं मिल गया ।
इसी प्रकार जो जीव ज्ञान और आनंद को पर में खोजता है वह मानो अपने को ही पर में ढूंढ़ता है, क्योंकि ज्ञानानंद में और मैं में कोई अंतर नहीं है । जो ज्ञानस्वरूप है, आनंदस्वरूप है वही तो मैं हूं? यदि मैं पुस्तकों में ही ज्ञान और आनंद को खोजता हूँ तो खोजता ही रहता हूँ । अपने ज्ञान और आनंदस्वरूप की ओर तो मुड़कर नहीं देखता । जो धन वैभव परिवार में ही आनंद खोजते हैं वे अपना मैं अपनी कल्पनाओं से खोकर बाहर में ही ढूँढते रहते हैं । अपने आप में वह सहज ज्ञानानंदस्वरूप अपनी दृष्टि में आ जाय तो सच समझो कि आपने वह विभूति पायी जिसके आगे तीन लोक की संपदा भी झुक जाती है । वैसे तो देखा इस जीव ने कई भवों में अरबों की संपदा पाई और उसे छोड़ा, पर आज हजार या थोड़े लाख की विभूति को पाकर ऐसा समझते हैं कि यह मैंने अपूर्व निधि पायी, पर क्या पाया ।
अच्छा आप मान लो कि तीन लोक की जितनी संपदा है वह मेरी है, क्या हुई? क्योंकि आपके घर की जो तिजोरी रखी है उसे भी तो कल्पना से ही माना कि यह मेरी है सो केवल कल्पना ही तो करना है । तीन लोक की सारी संपदा को मान लो कि यह मेरी है । केवल कल्पना से ही मानकर सुख का अनुभव करते होना सो और अधिक मान लो । मानने के अतिरिक्त तो कोई कुछ काम नहीं कर पाता, इन विकल्पों से पूरा न पड़ेगा । जन्म लिया, मरण किया, यही चक्र लगा रहेगा ।
भैय्या ! जन्ममरण के मेटने वाली जो दृष्टि है, प्रज्ञा है उसका आदर करो । मोह में रहे, राग में रहे, दुकान में रहे, परिग्रह में रहे, सवेरे 8 बजे मंदिर में पहुंच गए वहां पर भी वही धुन रही तो उससे क्या लाभ है? जब तक लगन के साथ एक चित्त होकर 5 मिनट भी सर्वविकल्पों को तोड़कर न बैठे तो क्या लाभ मिलेगा? 5 मिनट के लिये तो ऐसी हिम्मत बनाओ । ऐसी कमर कसकर बैठो कि मन में रंच भी किसी चीज का ध्यान न रहे तो इस प्रकार से एक अलौकिक आनंद प्राप्त होता है और कुछ समय के लिये एक विशेष प्रकार की शांति मिलती है ।
आत्महितैषिता के बिना धर्म के नाम पर कोई विधान रच दिया, उत्सव रच दिया तो इससे क्या शांति मिलती है? उद्देश्य विहीन यह बात कही जा रही । जगह-जगह निमंत्रण पत्र बांट दिया, हजारों आदमियों को निमंत्रण दे दिया, व्यवस्था करने में क्रोध भी आ रहा है । हमारी नाक न कटने पावे यह भावना भी मन में रखी हुई है । कितनी ही बातें मन में आती है तो बतलावों इस प्रसंग में धर्म क्या किया? इसमें बतलावो आपके हाथ कुछ रहा? कुछ नहीं । हां केवल यह बड़ाई मिल जायगी कि इस विधान में 10 हजार का खर्चा किया । भैया ! इस बात से पूरा नहीं पड़ेगा । यह तो हो गया मगर आत्मा में निराकुल ज्ञानस्वभाव परमात्मस्वरूप कारणसमयसार, जिसकी दृष्टि के प्रताप से अनगिनते भवों के बांधे हुए कर्म खिर जाया करते हैं उस आत्मदेव की दृष्टि नहीं की तो धर्म कुछ भी नहीं होगा ।
भैय्या ! अब इस जीवन में धर्म के लिये अपनी कमर कसो । यदि इस संसार से छुटकारा पाना है तो आत्मा का जो विषय है, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र इन सबका साधन है सच्चा ज्ञान । जानो तो सही कि मैं क्या हूं? क्या करता हूं? क्या स्वरूप है? कैसा हूँ इस बुद्धि को मिलाने की सच्ची विधि सम्यग्दर्शन है, सम्यक्चारित्र भी है और सम्यग्ज्ञान भी है । रूढ़ि में विडंबना चाहे पाई जाय किंतु मर्म नहीं पाया जाता ।
एक सेठ ने पंगत की । उसमें सोचा कि लोग पत्तल की सींक निकालते हैं दांत कुलयाने के लिये । सो मेरी ही पत्तल में खायेंगे । और उसी पत्तल में ही छेद करेंगे । अत: पत्तल में 4-4 अंगुल की सींके अलग परोस दी जायें, सेठ ने 4-4 अंगुल की सींकें परोसी । सो अब वह तो मर गया । लड़के लोगों ने कोई उत्सव मनाया तो सोचा कि हम तो बाप का यश बढ़ायेंगे, घटायेंगे नहीं । बाप ने तो 4 मिठाई बनवाई थी हम 12 बनवायेंगे और 4 अंगुल की सींक रखी थीं हम 12 अंगुल की सींक रखेंगे । सो ऐसा ही किया । सो अब तो रूढ़ि चल गई । अब उसके लड़कों ने भी अपनी कीर्ति के लिये ऐसा ही किया, उत्सव मनाया और पत्तलों के साथ-साथ एक हाथ का मोटा डंडा भी परोसा, देखो मर्म जाने बिना क्या अनर्थ हो गया ।
लोग यह न कह दें कि कुछ नहीं किया सो कीर्ति के लिये लोग ऐसा ही दिखाऊ धर्म करते हैं । अरे यह धर्म का काम नहीं है । धर्म का काम तो नम्र परिणाम से विनय से गुप्त ही गुप्त छिपे हुए अपने आपमें कुछ रुकने के लिये है । धर्म दिखाने की चीज नहीं है । धर्म तो कारणसमयसार की दृष्टि ज्ञप्ति व चर्चा है । कारणसमयसार की दृष्टि हो तो ये संकट हमारे टल सकते हैं ।