वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 28
From जैनकोष
जित्थु णु इंदिय सुह दुहइं जित्थु ण मणवावारु ।
सो अप्पा मुणि जीव तुहुं अण्णु परिं अवदारु ।।28।।
आत्मा का शुद्धस्वरूप क्या है? वैसे सभी मोटे रूप से जानते हैं कि जीव वह है, जो चलता है, फिरता है, खाता है, सुखी है, दु:खी है । इसी रूप से दुनिया जानती है । पर आचार्यदेव कहते हैं कि जीव तो वास्तव में वह है जिसके इंद्रियजंय सुख दुःख नहीं है । मन में किसी प्रकार का विकार नहीं है । लोग तो जल्दी यों ही समझा करते हैं कि जो सुखी हो रहे हैं, जो दुःखी हो रहे हैं वे ही तो जीव हैं । जीव तो शुद्धज्ञानस्वरूप है । जैसे दर्पण है, आइना है, क्या किसी ने ऐसा दर्पण देखा है कि जिसमें छाया न हो, जिसमें प्रतिबिंब न पड़ता हो, ऐसा आइना क्या किसी ने देखा है? अरे जब कोई देखेगा तो उसमें प्रतिबिंब आ ही जायगा । ऐसा आइना किसी के देखने में नहीं आया कि जिसमें छाया न पड़ती हो ! छाया पड़ती हुई दिखती है फिर भी बतलावो कि दर्पण का क्या छाया स्वरूप है ? स्वरूप नहीं है । छाया तो आ पड़ी उपाधि के संबंध से मगर छाया स्वरूप नहीं है । दर्पण का स्वरूप तो उसकी स्वच्छता है छाया नहीं ।
इसी प्रकार यह इंद्रियजंय सुख दुःख और मन की कल्पनाएँ ये जीव में आ पड़ी है पर यह जीव का स्वरूप नहीं है । अपना स्वरूप यदि ठीक प्रकार से पहिचानने में आ जायतो समझो कि हमारा बेड़ा पार है । इस मोह में कुछ नहीं रखा, यह मेरा घर है, कुटुंब है, परिवार है । यह छोड़ा भी नहीं जा सकता, इसमें सार भी कुछ नहीं है । मगर देखो तो जिंदगी भर खूब श्रम कर रहे हैं । खूब कमा रहे है और कमा कमाकर खुश हो रहे हैं । यह मेरा बच्चा है, यह मेरा भाई है, यह मेरी स्त्री है, यही मान मानकर खुश हो रहे हैं । इससे पूरा नहीं पड़ेगा । क्या अंत में मरण नहीं होगा? अरे सबको छोड़कर जाना ही होगा । इनमें सार कुछ नहीं है । दूसरी बात यह है कि जितने भी बाहरी समागम हैं उन बाहरी समागमों में आनंद नहीं है, चैन नहीं है, उनमें दशों विकल्प लगे हैं ।
भैय्या ! ये विकल्प छूटे, गृहजाल मायाजाल छूटे तो कल्याण है, नहीं तो इसमें सार रंच भी नहीं है । पर यह छोड़ा भी नहीं जा सकता है । छोड़कर जीव कहां जायगा? रिश्तेदारी में रहेगा तो कितने दिन रहेगा? हां यदि ज्ञान है और हिम्मत कर सके तो साधु बन जाए, त्यागी बन जाय तो वह तो मार्ग है । और अगर ममता बनाए रहे और जबरदस्ती छोड़ भी दिया तो उसमें गुजारा नहीं है । जिसके ममता रही ऐसे साधु से तो गृहस्थ अच्छा है । तो यह बात चल रही है कि इसे गृहस्थजाल में रहकर भी कल्याण कैसे हो सकता है? यों हो सकता है फंसे हैं पर यहाँ वहाँ का ऐसा फंसना इस जीव का स्वरूप नहीं है । यह इंद्रियजंय सुख होता है, दुःख होता है तो होता हैं आत्मा में, पर यह जीव का स्वरूप नहीं है । शुद्ध आत्मस्वरूप इंद्रियजंय सुख दुःख नहीं है क्योंकि सुख दुःख अनाकुलतारूप वास्तविक सुख से उल्टा है । मेरा स्वभाव तो निराकुलता का देने वाला है । क्योंकि मेरा स्वरूप है केवलज्ञान, सिर्फ ज्ञान और ज्ञान की वृत्ति में आकुलता है ही नहीं । ज्ञान के साथ जो रागद्वेष की तरंगें उठती हैं उससे आकुलता होती है तो अनाकुलतारूप परिणामात्मक सुख से विपरीत आकुलताओं को उत्पन्न करने वाले इंद्रियजंय सुख और दुःख इस मेरे असली भाव में नहीं है । और जो संकल्प विकल्प की तरंगें चलती है वे मेरे स्वरूप में नहीं है । जैसे कोई खोटा मित्र आपकी ही आर्थिक जड़ काटने की सोच रह रहा हो तो कम से कम इतना तो जान लो कि मेरा खोटा मित्र है, मुझे धोखा ही देने के लिये है । यह तौ जान लो कि यह दगाबाज है, कम से कम इतना तो जान लो कि मेरा अहित करने वाला है । नहीं छूट सकते तो न छूटने दो पर जानते तो रहो । कर्मों का बंध अपने परिणामों के अनुसार होता है । विभावों के बीच में पड़े हो तो क्या, न पड़े हो तो क्या, इसका बंध तो परिणामों से होता है । विभाव कितने भी पड़े हुए हों और परिणाम निर्मल हैं तो बंध पापों का न होगा । और विभाव कुछ नहीं है । कर्मबंध तो परिणामों से होता है । इसलिये संकल्प विकल्प की तो तरंगें उठती हैं वे इसके उठती ही रहती हैं । कोई दुश्मन इस दुनियां में हमारा आपका नहीं है । हम आपने तो भ्रम से ही दुश्मन मान लिया । वह दूसरी आत्मा जिससे आपकी किसी प्रवृत्ति का निमित्त पाकर विषयों में बाधा पहुंचती है उसे आपने दुश्मन मान लिया । जिससे कषायों के अनुसार उसकी बात न बनी सो वह दुश्मन मान लेता है, आपके कषाय है कि मुझे इतना लाभ हो और उसमें वह बाधा तो नहीं डालता, मगर उसके भी कषाय है सो वह अपने कषायों का काम करता है और उससे कुछ बाधा अपनी समझता है तो यह जानता है कि यह मेरा दुश्मन है । किसी का कोई दुश्मन नहीं है । इसी प्रकार मित्र भी किसी का कोई नहीं है । अपना सद्विचार ही अपना मित्र बनता है और अपना खोटा विचार ही अपना दुश्मन बनता है । इस संसार में पुण्योदय पाकर ऊधम मचाने से कुछ लाभ न मिलेगा । यह पुण्य बना रहा तो रहेगा और खोटा परिणाम करेगा तो मिट जायगा । पुण्य का फल तो सब चाहते हैं पर पुण्य कोई नहीं करना चाहते हैं और पापों के फल से सब दूर होना चाहते हैं और पाप कर रहे हैं । यहाँ जो कुछ संपत्ति मिली है यह आपके हाथ पैरों के कमाने से नहीं मिली है । आपका उदय अच्छा हैं तो सब मिलेगा । उदय क्यों अच्छा है कि पूर्वजन्म में आपने सुकृत किए, धर्म कार्य किए, उदारता की, इसलिये पुण्य बंधा । तो तुम को कमाने वाला पुण्यकर्म है और पुण्यकर्म के बनाने वाले आप हैं । संपत्ति के कमाने वाले आप नहीं हैं । पुण्यकर्म के बना सकने वाले आप हैं और संपति के कमाने वाला पुण्य है । तो जिसकी यह चाह है कि मेरे बहुत संपदा हो तो उसका यह कर्त्तव्य है कि संपदा पर दृष्टि न डाले किंतु अपने धर्म पर पुण्य पर त्याग पर दृष्टि दे तो उसका परिणाम निर्मल होगा । देखो यह गजब का मोह है कि जगत के जितने भी जीव हैं―वे सब समान है, सबका स्वरूप बराबर है ना? अब घर में जो आपके चार जीव आ गए बताओ वे भी दुनियां के सभी जीवों के बराबर है कि नहीं? बराबर हैं । आपके वे कुछ लगते हैं क्या? कुछ नहीं लगते । मान लो सो मान लो पर लगते कुछ नहीं हैं । जैसे जगत् के और जीव हैं तै से ही घर में बसने वाले चार जीव हैं । कोई फर्क नहीं है । जितने भिन्न और जीव हैं उतने ही भिन्न तुम्हारे घर के जीव हैं । आपकी आत्मा का उनकी आत्मा के साथ कोई ऐसा संबंध नहीं है जो कि यह कहा जा सके कि ये मेरे कुछ हैं । हैं नहीं । मगर आप धन कमाते हैं, परिश्रम करते हैं, उन घर के चार जीवों में लगे हैं, उनमें ही अपना जीवन बर्बाद कर देंगे, मगर जो चार के अलावा और जीव हैं उनका क्या कुछ संबंध है, हिस्सा है? अगर मोह न हो तो यह विवेक हो कि मैं अनेक उपाय करके जो कमाता हूँ उसका आधा तो कुटुंब के लिये है और आधा जगत के और जीवों के लिए है । इतनी बात यदि पैदा हो तो समझो कि हमारा मोह मिटा यदि यह प्रेक्टिकल प्रयोग है तो समझो कि मोह मिटा, नहीं तो कौन उसमें बुद्धिमानी है कि श्रम करते हो कमाते हो और उन चार में लगाते हो तो यह विवेक नहीं है । मोह है, आसक्ति है और इस मोह का फल संसार में भ्रमण करना है, तो शुद्ध जीवों का स्वरूप बता रहे हैं कि जिसमें संकल्प विकल्प भी नहीं है, ऐसा शुद्ध ज्ञानमात्र मैं हूँ । मेरा स्वरूप तो निर्विकल्प है, निर्विकल्प परमात्मस्वरूप से यह बिल्कुल विपरीत चीज है संकल्प और विकल्प । सो यह सब जीवों में विकार है । यह मेरा स्वरूप नहीं है ऐसा अपना शुद्ध आत्मा मानो । कैसे मानोगे? निर्विकल्प समाधि में ठहर करके मानों, और तरह से मानना झूठी बात है । जैसे हरिहरदास सेठ की कथा है । वह सम्यग्दर्शन की बात बोल रहा है, चार सेठानियां तो कह रही है कि सब कथा सच है और छोटी सेठानी कहती है झूठ । राजा सुन लेता है और बुलाकर छोटी रानी से पूछता है कि क्यों झूठ है? छोटी रानी ने गहने फेंककर एक साड़ी पहिनकर जंगल को चल दी और बोली कि सच तो यह है और बाकी तो सब गप्पें हैं तो शुद्ध आत्मा का हित कैसे बने ? जब तक अपने विकल्प न हटें, और अपने में वह ज्ञानज्योति की झलक न आए तब तक वहीं मान सकते कि ओह मेरे असली आत्मा का स्वरूप यह है । मैं घरवाला हूं, में, परिवार वाला हूँ, ये सब झूठी कल्पनाएं हैं, जीव तो केवल ज्ञानस्वरूप है । तो मोह में लगे रहो पर मोह में मिलेगा कुछ नहीं । और कुछ ज्ञानमार्ग में लगे रहे, कुछ धर्म में रहे तो यह आपका लौकिक वैभव कुछ घटेगा नहीं बल्कि बढ़ेगा । धर्म में प्रीति रहेगी तो लौकिक वैभव में वृद्धि निश्चित है और मुक्ति का एक मार्ग भी मिल जायगा । तो ऐसा उपाय करो कि धर्म में चित्त लगे । धर्म में लगो, स्वाध्याय करो और बाह्य समागम तो विनाशीक है, असार है । अपना परिणाम तो ऐसा बने कि कोई यदि विवाद पैसों के प्रति हो तो पैसों का परित्याग कर दो । सार तो आत्मा का आनंद है । सो कुछ भी त्याग कर दिया, ज्ञान और आनंद पा लिया तो इससे धर्म में प्रीति अधिक बढ़ेगी मंदिर में आए? एक मिनट दर्शन किया तो क्या है, उससे क्या फायदा है ? मंदिर में दर्शन करने से मन में ऐसी बात उपजे कि मेरे में त्याग रहे, उदारता रहे जिससे कि ज्ञान में लगे, धर्म में लगे तो वह आपके लिये हितकर है । अगर तुम्हें अपना हित करना है तो घर के बच्चों से घर के लोगों से तुम्हें हित नहीं मिलेगा यदि तुम्हारे अंदर धर्म है तो तुम्हें सब कुछ मिलेगा । धर्म से तुम्हें प्रेम होता चाहिये क्योंकि धर्म से ही पूरा पड़ेगा । धन वैभव व घर के प्राणियों से ही तुम्हारा पूरा न पड़ेगा । सो एक अपने शुद्ध आत्मा को मानो और इस परमात्मस्वभाव से विपरीत जो इंद्रियों के विषय हैं उनको बाहर से ही त्याग दो याने अपना ज्ञान ऐसा बना कि मैं अकेला ही हूँ, मेरा कोई नहीं है । मैं शुद्ध ज्ञानस्वरूप हूं, ऐसा आपका परिणाम बने तो समझो कि आपने बहुत ऊंची बात प्राप्त कर ली, न ज्ञान प्राप्त किया, न अपने आत्मा पर दया किया, मोह रागद्वेष में ही रमे रहना चाहा तो इसका फल कठिन है । इसे कहते हैं वीतराग निर्विकल्प समाधि । कोई पूछे कि निर्विकल्प समाधि कह दिया इतने में काम न निकलेगा क्या ? कोई विकल्प नहीं है और समता परिणाम है सो उत्तर दिया है । यहां पर यह बताया कि वीतराग बन गया तो निर्विकल्प समाधि हों गई । रागद्वेष होते हुए समता परिणाम नहीं हो सकते । दो भैया थे । उन दोनों के एक-एक लड़का था । सो मान लो बड़े छोटे । सो बड़ा भाई बाजार अमरूद खरीदने गया । ले आया । तो सामने से वे दोनों लड़के आ रहे थे खुद का और भैय्या का । दाहिने हाथ में बड़ा अमरूद था और बायें हाथ में छोटा । वे दोनों भैय्या ऐसे आये कि बायें हाथ की तरफ खुद का लड़का और दायें हाथ की तरफ भैय्या का लड़का । वे दोनों एक साथ अमरूद मांगने लगे सो उनको दायें हाथ का बड़ा अमरूद अपने लड़के को व बायें हाथ का छोटा अमरूद अपने भैय्या के लड़के को दे दिया । यह हालत भैय्या ने देख ली । भैय्या बोला हमें न्यारा कर दो । दोनों भैय्या को परस्पर में बहुत प्रेम था पर । उस तुच्छ कार्य से उसका ध्यान बदल जाता है । छोटे भाई ने कहा भैय्या न्यारा न होओ तुम सब धन ले लो, हमें कुछ न चाहिये । उस बड़े भाई ने भी कहा कि हमें कुछ न चाहिये, हमें तो न्यारा न होना है । धन की वृत्ति नहीं थी फिर भी राग का कैसा कटुक फल मिला । कुछ हिम्मत करके देख लो, कोई धेला की चीज अपने लड़के को दे दिया और दूसरे के लड़के को ज्यादा दिया तो इससे कुछ लाभ नहीं हो जाता है । अपने लड़के को कम दिया और दूसरे के लड़के को ज्यादा दिया तो कोई बड़ी बात नहीं है, पर जो भीतर में बात बसी है वही होगी । कहां तक ख्याल करें ? बनावटी बात एक कहां तक बनावें । जो हैं सो होता है । जब तक वीतरागता नही आती तब तक निर्विकल्प समाधि नहीं बनती । किसी से रागद्वेष नहीं, अपने ज्ञानस्वरूप को देख रहा है और ऐसा ही ज्ञानस्वरूप परमात्मा का स्वरूप है सो अरहंतसिद्ध में दृष्टि दी तो यही ज्ञानपुंज नजर आया और अपने आत्मा को भीतर ज्ञानदृष्टि दी तो जानन स्वरूप नजर आया । उसको ही अपना स्वरूप मान लिया और जितने अपने विभाव हैं उन विभावों का त्याग करो । जो जीव विभावी हैं वे अगर कहते हैं कि हमारी निर्विकार समाधि होगी तो वह गलत बात है । इसलिये निर्विकार समाधि से पहिले वीतराग शब्द जोड़ दिया है । और दूसरी बात यह है कि हित से साधु लोग 24 घन्टे में समाधि लेते हैं, अपने को गड्ढे में बंद करवा दिया और 24 घन्टे में खुदवा लिया, उनमें निर्विकल्पता है । लेकिन लोगों में जो चित्त चल रहा है, तो वह निर्विकल्प समाधि नहीं है । वीतराग निर्लेप, निर्दोष परमात्मा का स्वरूप है और ऐसा ही शुद्ध प्रभु के समान हमारा स्वरूप है । कहां विकल्प फंसावें ? लड़के जो हैं तो उनके भी भाग्य लगा है । किंतु निरंतर उनकी चिंता कर रहे है । उनका भाग्य होता तो आप रात दिन उनके पीछे परेशान क्यों रहते? उनका अच्छा भाग्य है इसलिये रात दिन-परिश्रम करते हो, धर्म में रहो,, उमर बहुत हो गई, अब थोड़ी उमर रह गई तो अब तो धर्म में प्रीति लगाओ । चिंता, विकल्प, मायाजाल को छोड़कर निर्विकल्पसमाधि में रहकर अपने नित्यआनंदस्वरूप एक स्वयं ज्ञानमय अपने उस शुद्ध आत्मा को देखो । यह है तुम्हारा शुद्ध आत्मा का स्वरूप बाकी इंद्रियजंय सुख दुःख विकल्प ये सब बेकार जानों ये मेरे स्वरूप नहीं हैं । ऐसा तुम अपने आपका अनुभव करके मानो, यदि ऐसा अनुभव हो गया तो बहुत सी चिंताएँ दूर होंगी । सो भैय्या उपाय करके ज्ञानवृद्धि करो और धर्म में लगो, मोह कम करो ।