वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 29
From जैनकोष
देहादेहहिं जो वसइ भेयाभेपणयेण ।
सो अप्पा मुणि जीव तुहुं किं अण्णे वहुएण ।।29।।
कहते हैं यह निज शुद्ध आत्मा या कारणपरमात्मा जिसकी नजर करने मात्र से सारे संकट दूर होते हैं वह कहां रहता है? इस बात को इस दोहा में कहा गया है । भेदनय से तो यह परमात्मदेव इस शरीर में बसता है और अभेदनय से यह परमात्मा अपने स्वरूप में रहती है । जैसे पूछा जाय कि बतलावो यह घड़ी कहा हैं? तो भेदनय से तो पर यह घड़ी मुट्ठी के अंदर है और अभेदनय से घड़ी में घड़ी है अपने आपमें है, हाथ में घड़ी नहीं है और भेदनय से हाथ में घड़ी है, जैसे मानो तुमसे पूछा जाय कि तुम कहा रहते हो? तो क्या उत्तर दोगे ? हम मुरेना में रहते हैं । यह भेदनय का उत्तर है हम घर में रहते हैं यह भेदनय का उत्तर हैं और हम पतलून कोट मैं रहते हैं यह भी भेदनय का उत्तर है और शरीर में रहते हैं यह भी भेदनय का उत्तर हैं, पर हम अपने ज्ञानानंदस्वरूप में रहते हैं यह अभेदनय का उत्तर है । यह परमात्मा देह में बसता है और देह में नहीं बसता है । भेदनय का नाम है व्यवहारनय और अभेदनय का नाम है निश्चयनय । व्यवहारनय दो तरह के हैं [1] असद्भूतव्यवहार और [2] सद्व्यवहार । जिस आत्मा के ज्ञानदर्शन गुण हैं यह सद्भूत व्यवहार है और आत्मा के शरीर है यह असद्भूत व्यवहार है, हैं तो नहीं भिन्न चीजें ? और आत्मा के शरीर है यह है अनुपचारित असद्भूतव्यवहार क्योंकि आत्मा शरीर में है ना? अभी आपसे कहें कि शरीर तो वहीं बैठा रहने दो और आपकी आत्मा कुछ यहां खिसक आए तो क्या आ जायगी? और आपका मकान है यह उपचारित असद्व्यवहार हैं । बिल्कुल झूठा, संबंध भी कुछ नहीं तो यह आत्मा देह में बसता है यह है अनुपचारित असद्भूतव्यवहार और शुद्ध निश्चयनय से अपने देह से भिन्न जो स्वात्मा है, निज आत्मद्रव्य है उसमें बसता है तो हे जीव ! तुम अपने स्वरूप में बसने वाले अपने ज्ञानप्रकाश को देखो वहीं परमात्मा है । परमात्मा का स्वरूप एक समवशरण को मन में सोचकर उनकी गंधकुटी में विराजमान एक मुद्रा को देखकर कहते हैं कि हमने परमात्मा को देख लिया । और कोई उस गंधकुटी विराजमान उस मुद्रा के भीतर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतसुख, अनंतशक्तिसंपंन एक आत्मद्रव्य को देखकर कहते हैं कि हमने परमात्मा को देखा तो कोई ऐसे अनंत विकास का मूल आधारभूत चैतन्यशक्ति को ही मात्र उपयोग में लेकर अन्य विकल्पों से हटकर उस भव में स्थिर होकर जो निर्विकल्प चित् प्रकाश अनुभव में आता है उसको देखकर कहते हैं कि हमने परमात्मा को देख लिया । ये तीन भूमिकायें परमात्मा में उत्तरोत्तर उत्कृष्ट रूप से देखने की है । किसी भी चीज को जानो जब तक अपने ज्ञान में न उतर जाय तब तक उसका जानना नहीं होता । ऐसे परमात्मा को हम निर्विकल्प समाधि में स्थिर होकर भावों का जैसा वह परमात्मदेव अपने स्वरूप में है इसी प्रकार यह कारणपरमात्मदेव मेरे स्वरूप में विराजमान हैं? जो अपने को छोटा अनुभव करे उससे छोटी ही बात प्रकट होगी और जो अपने को महान् अनुभवता है उससे बड़ी बात ही प्रकट होगी । छोटे कुल वाले चूँकि अपने मैं छोटेपन का अनुभव करते हैं और अपनी छोटी अवस्था को अनुभवते हुए भी अपने को महान् माने तो उससे बड़ी बात प्रकट नहीं होती । जैसा मेरा महान् स्वरूप है उस रूप यदि मैं अपने को अनुभऊँ तो उससे उत्तम बात प्रकट होगी । जैसे जो अपने को ऐसा मानता है कि मैं स्त्री हूँ और उससे कहीं व्याख्यान देने को कहें तो उसके तो शब्द आयेंगे मैं गई, खाई, सुनी । ये स्त्रीलिंग के शब्द आयेंगे । शब्द बोलने में उसे ऐसा विश्वास है कि मैं स्त्री हूं । पुरुष को पकड़कर नाटक में जब स्त्री का पार्ट करवाया जाता है तो पहले उसे बोलना सिखा देवेंगे तब बोल पायगा और उसमें भी मौके पर गया, चला आदि शब्द बोल देगा । जो अपने को कुटुंब का पालनहार हूं ऐसा भ्रम किये हुये है वह कुटुंब के पालने का श्रम करेगा । थककर भी करेगा, अपने जीवन को आफत में डालकर भी करेगा क्योंकि हम विश्वास ऐसा बनाए हैं कि वह अपनी स्वतंत्रता का अनुभव नहीं कर सकता । जो अपने को ऐसा अनुभवता है कि मैं मनुष्य हूं तब वह मनुष्य के योग्य व्यवहार करेगा और जो इस मनुष्यदेह को भी पा करके ज्ञानबल से अपने अंतर में चैतन्यस्वभाव मात्र मैं हूँ, ऐसा तकेगा उसके शुद्धज्ञानवृत्ति की बात जगने लगेगी । सम्यक्त्व में सही होता है कि वह अंतर में अपनी प्रतीति में यह विश्वास बनाए हुये रहता है कि मैं एकस्वरूप एकाकी चैतन्यस्वभावमय चेतनसत् हूँ, यह विश्वास मेरे अंदर से बनता नहीं है । इस कारण अनेक काम करके भी जितना रागांश है उतना तो उसका बंध है पर जितने सम्यक्त्व के कारण स्वरूपाचरण हैं उतना वह बंध से रहित है, तो कल्याण के लिये दो बातों का स्पष्ट निर्णय होना चाहिये और अंतर का उत्कृष्ट निर्णय होना चाहिये कि मैं क्या हूँ और मुझे वास्तव में करना क्या है? इन दो बातों का स्पष्ट निर्णय हो तो फिर चाहे करने में गृहस्थी के भी काम रहे हों फिर भी वहां शांति व लाभ मिल सकता है क्योंकि विश्वास उसका यथार्थ बना हुआ
है । श्री रामचंद्रजी महाराज बलभद्र भाई लक्ष्मण के वियोग में कितना परेशान रहे फिर भी
विश्वास के रूप में निजशुद्धज्ञायकस्वभाव की प्रतीति बनी थी । यद्यपि राम का इतना तीव्र उदय
था कि अप्रत्याख्यानावरण के इस राग की प्रीति को व्यवहारिक रूप नहीं होने दिया फिर भी
प्रतीति अंत: छिपी हुई प्रबला थी । इस कारण सुनते ही एकदम सुलझ गये । अपने आपको सोचो कि मैं क्या हूं ? में इतने बच्चों वाला हूं यह सोचना तो अपने को खतरे में डालना है, अपने को पतन की ओर ले जाना है । यह उपयोग और लौकिक व्यवस्था के नाते हमारा पालन होता है, पर और तत्त्व जुदा है । कर्म जुदा है । जैसे जगत के अन्य जीव मेरे स्वरूप से अत्यंत भिन्न हैं इसी प्रकार घर में पैदा हुए ये जीव भी मेरे स्वरूप से उतने ही अत्यंत भिन्न हैं । मैं तो इन सबसे न्यारा एक शुद्ध चैतन्यस्वभावमय हूँ प्रतीति अंतर में यह होनी चाहिये । यह बात नहीं है कि ऐसी प्रतीति साधु के जुम्मे है, यह तो आत्मा से संबंध रखने वाली बात है । घर में रहते हुए कभी बच्चों को गोद में लिये हुए भी प्रतीति बनाओ कि मैं तो सबसे न्यारा शुद्ध चैतन्यमात्र हूँ । ऐसे प्रतीति और ऐसा उपयोग बनाने में बड़ा पुरुषार्थ करना पड़ता है ? बीच में बाधक अनुमान होने वाले इन परपदार्थों को पार करते हुए जाना पड़ता है । उपयोग में अंत:स्वभाव की दृष्टि करके विश्राम करना होता है । हे जीव ! तू नित्यानंदस्वरूप रागद्वेषरहित निर्विकल्प समाधि में ठहरकर ऐसी भावना तो भा कि मैं अपने स्वरूप में रहता हूँ । देखो ध्यान के अभ्यास से समय जो पृथ्वीधारणा, अग्निधारणा, जलधारणा और वायुधारणा उपाय से ध्यान किया जाता है वह क्या है? कोई ध्यानी ऐसा सोचे कि इस दुनियां के बीच में जंबूद्वीप के बराबर एक समुद्र है और उसमें मेरुपर्वत के बराबर एक कमलकर्णिका है उसमें सिंहासन है उसमें मैं आकार विराजमान हूँ, ध्यान कर रहा हूँ । यद्यपि ऐसा सोचते हुए जमीन की सुधि भूल जाती है । शरीर की भी सुधि भूलकर भाररहित बिल्कुल हल्का, एक ज्ञानप्रकाशमात्र अपने को तकता है फिर भी बतलावो क्या वहाँ समुद्र है? क्या वहाँ सिंहासन है? केवल ध्यान में पृथ्वी, ध्यान में पद्धति को अपनाकर उपयोग में वह बहुतसा लाभ ले चुका है । यह उपयोग वृक्ष की तरह आपको मनमाना फल देने वाला है पर इस उपयोग से विपत्ति की ही भीख मांगी जाय तो विपत्ति मिलती है और समृद्धि मांगी जाय तो समृद्धि मिलती है । परपदार्थों की चिंता करके उनकी प्रतीक्षा करके जो चीज चाही जाती है वह विपत्ति की भेंट चाही जा रही है । एक कोई मुसाफिर था । गर्मी के दिन थे । नीचे गर्मी, ऊपर गर्मी, अब चलता हुआ यह देखता है कि कोई छाया का पेड़ हो, छाया का वृक्ष मिला, वह ठहर गया, वह था कल्पवृक्ष । उसे कुछ पता नहीं? सो सोचता है कि छाया तो मिल गई, थोड़ी हवा चल जाय तो बड़ा अच्छा हो जाय । हवा चल गई । अब सोचता है कि हवा भी चलने लगी अगर थोड़ा जल मिल जाय तो अच्छा हो जाय । जल से भरा लोटा भी आ गया । अब सोचता है कि पानी भी मिल गया यदि भोजन के लिये कुछ फल मिल जाते तो अच्छा था, फलों से सजा सजाया थाल भी आ गया । सोचा कि यहाँ कोई दिखता भी नहीं है यह सब कैसे आ जाता है? कोई भूत तो यहाँ नहीं रहता, सो भूत भी आ गया । सोचा कि मुझे खा न जाय तो खा भी गया । जैसा सोचे तैसा मिलता है ना ? यही उपयोग है कल्पवृक्ष का । भिन्न-भिन्न जो सोचो सो मिले ऐसी बात नहीं है पर जिस जाति की बात सोचो उस जाति की बात मिलती है । हम परपदार्थों की बात सोचें, विपत्ति की बात सोचें तो विपत्ति मिले और अपने स्वरूप की बात, परमात्मस्वरूप की बात सोचे तो आत्मा और परमात्मा मिलेगा । जो चाहो सो मिलेगा । वह आपके उपयोग के आधीन बात है । तब हमें क्या चाहना चाहिये? शुद्धस्वरूप की दृष्टि यथार्थ बात का ज्ञान । क्या घर आपका है? आपका होता तो आपके साथ जाता । घर के संबंध में ऐसी धारणा न बनावो कि यह मेरा है । यह कुछ दिन के लिये है । यह छोड़कर जाना होगा, मेरा यह कुछ नहीं है, जैसी बात है तैसी समझकर चलो तो उसमें शांति मिलेगी अन्यथा शांति न मिलेगी । घर में जरा भाई-भाई में, देवर जेठानी में छोटी-छोटी बातों में विवाद हो जाता है, इतना धैर्य नहीं है कि जो कुछ मिला है वह पुण्य के प्रताप से मिला है । सब कुछ पुण्य का प्रसाद है यह मेरी कुछ भावना का प्रसाद नहीं है । पूर्वकृत भावना का प्रसाद है । पूर्व समय में पुण्य का कार्य किया था उसका प्रसाद है । अगर जाता है तो जाने दो इतना धैर्य नहीं हों पाता तो यह क्या है? यह मूर्छा का परिणाम है । इतनी कठिन मूर्छा कि मेरा मात्र मैं ही हूँ ऐसा समझे बिना ममता नहीं हट सकती और जब तक ममता न हटेगी लाखों यत्न करो वे सब फंसाने के ही यत्न होंगे, निकलने के यत्न न होंगे । निकलने का यत्न तो मेरा ज्ञान का मार्ग है, सो शुद्ध आत्मा से भिन्न रागादिक बातों से क्या लाभ है? देह में बसने वाले इस आत्मतत्व को निरखो । किसी मित्र से आपकी मित्रता है और वह आपके पास बैठा हुआ है, बातचीत आपस में चल रही है कोई समय में मित्र के कोट पर कोई चींटी दिख जाती है तो उस चींटी को निकाल देते हैं । क्या आप कोट के प्रेम से चींटी हटाते हैं? आप तो मित्र के प्रेम से चींटी हटाते हैं । तो इस देह में बसने वाला जो आत्मतत्व है उसकी प्रीति के कारण इस देह को भोजन देते हैं । यह ज्ञानी पुरुष प्राय: देह की प्रीति के कारण देह को भोजन नहीं देता है । ज्ञानी पुरुष तो इस पुरुष देह में बसने वाले निज आत्मतत्व की प्रीति के कारण भोजन देते हैं । यह नरजीवन टिका रहे तो में अपने आत्मतत्व की और उपासना कर लूं । अज्ञानी, तो इस देह को ही सब कुछ समझकर भोजन देता है । ज्ञानी और अज्ञानी की वृत्ति में यही अंतर है । ज्ञानी आत्मा कल्याण के लिये जीता है पर अज्ञानी आत्मा, खाने के लिये जीता है । तो खूब खावो । यह भी खाने को मिले, वह भी मिले खूब विकल्प बनाकर मौज मानकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं । एक कुत्ता और शेर दोनों जानवरों को तो जानते होंगे? कुत्ता कितना उपकारी जानवर है? वह रोटी के दो टुकड़ों में कितनी रात दिन सेवा करता है, बड़े विनय से रहेगा चोरों से रक्षा करेगा । और सिंह को देखो वह कितना अपकारी जीव है कि जिसके देखने से मनुष्य जान छोड़ता है, कहीं वह शेर खा भी डाले । तो दोनों जानवरों में अच्छा कौन जानवर है, कुत्ता । क्योंकि कुत्ता बड़ा उपकारी है, विनयशील है । शेर तो दूसरों की जान भी खतम कर देता है । पर किसी मनुष्य की अगर तारीफ करो, अगर कहो कि फलाने सेठ तो कुत्ते के समान है । वैसे कुत्ता बड़ा उपकारी जानवर होता है, इसमें प्रशंसा ही सेठ की हुई, पर सेठ खुश होंगे क्या ? नहीं । सेठजी गाली देने लगेंगे । और अगर सेठजी को यह कह दो कि सेठजी तो शेर के समान हैं तो यद्यपि यह गाली हुई क्योंकि शेर बड़ा अपकारी होता है, दूसरों की जान भी ले लेता है पर सेठजी उसे सुनकर खुश होंगे । और कुत्ते के समान कहने में कोई नहीं सुनना चाहता । वैसे कुत्ता बड़ा उपकारी है, रोटी के दो टुकड़ों पर बड़ा उपकार करता है पर उसकी उपमा कोई नहीं सुनना चाहते है । यह फर्क क्यों आ गया? यह फर्क है विवेक और अविवेक का । कुत्ते में अनेक गुण हैं पर एक अविवेक है । उसे लाठी से मारा जाय तो वह लाठी को चबाने लगता हैर । वह समझता है कि लाठी ही मेरा दुश्मन है, वह यह नहीं समझता है कि मुझे मारने वाला मनुष्य है । और शेर को लाठी से मार से, तलवार से मारो तो वह तलवार और लाठी से न बोलकर मनुष्य पर ही प्रहार करता है । क्योंकि उसके विवेक है, वह जानता है कि मेरा मारने वाला मनुष्य है । इसी प्रकार से अविवेकी पुरुष यह सोचता है कि मेरे ऊपर संकट डालने वाले ये दूसरे हैं पर विवेकी पुरुष यह जानता है कि मेरे ऊपर संकट मेरे ही भावों से होते हैं । वे कर्म भी मेरे ही द्वारा उपार्जित हैं । इसलिये मेरे दुःख का कारण मैं ही बना करता हूँ । दूसरे जीव मेरे दुःख के का,रण नहीं हैं । कोई यह निश्चय कर लें कि मेरे अपराध से ही मुझे दुःख होते हैं तो उसे इस जीवन में बहुत शांति है । और अगर यह निश्चय है कि मुझे दुःख दूसरों के द्वारा होते
हैं तो अशांति है तो इसमें यह तात्पर्य बताया है कि देह में बसता हुआ भी यह आत्मा निश्चय से देहरूप नहीं होता है । ऐसा ही अपने अस्तित्व से रचा गया यह निज शुद्ध आत्मतत्व उपादेय है ।