वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 39
From जैनकोष
जोइय विंदर्हि णाणमउ जो झाइज्जइ झेउ ।
मोक्खहँ कारणि अणवरउ सो परमप्पउ देउ ।।39।।
जैसे विशाल मीठे के ढेर में से उसे कितना ही निकालते जायें और भीतर देखते जायें मिठास समाप्त नहीं होता है, नया-नया मिठास मिलता है । इसी तरह इस निजआत्मा में निर्विकल्प ढंग से व्यर्थ के राग द्वेष की उलझनों को हटाते हुए ज्ञान को निरखते जायें, उस परमात्मतत्त्व में, तो ज्यों-ज्यों गहरे पहुंचते जायेंगे त्यों-त्यों वहाँ अमृत आनंद झरता जायेगा । योगीजन निर्जन स्थान में बिल्कुल अकेले बड़ी शांत मुद्रा में विराजे हुए अपने आप में ऐसा तत्त्व निरखते रहते हैं कि उनको ऊब नहीं आती कि हाय हम इस जंगल में अकेले हैं, कोई साथी तो चाहिए । उन्हें साथी का मिलना अनिष्ट है । एक से कोई दूसरा हुआ तो उससे वह अपने काम में बाधा समझता है । तो योगी बाहर में भी एकाकी और अंदर में भी एकाकी रहना चाहता है ।
और देखो भैया, इस संसार के इन व्यापारीजनों को, एक दो बालक होकर भी कोई चाहता है कि और हो जायें, अभी तो एक बच्चा है, पांच-सात बच्चे दिखने लगें तब तो घर भरा हुआ कहलायेगा । बड़ी उम्र हो गयी और स्त्री गुजर गयी । स्त्री से सूना घर क्या घर है? तो वह विवाह करना चाहता है । कितना अंधेर है कि यह मोहीजीव पर द्रव्यों के संचय में उछल-उछल कर नाच कर रहा है और देखो, ये योगीजन पर संपर्क को रंच भी नहीं चाहते । साहसी गृहस्थ वह है जो जैसी आ पड़े की स्थिति है उस स्थिति में भी प्रसन्न रहे ।
जैसे लौकिकजन कहते हैं कि भगवान जिस स्थिति को दें हमें वही मंजूर है । भगवान को जो स्थिति मंजूर है, भगवान की वह मंजूर स्थिति हमको भी मंजूर है । ज्ञानीजन यों निरखते हैं कि कोई भी स्थिति हो वह पर है, इष्ट मिले तो, और अनिष्ट मिले तो, सब पर हैं, विनाशीक है । मेरा उनसे रंच भी संबंध नहीं है । हम अपनी कमजोरी की अवस्था में उस पर प्रसंग में कुछ काम निकाला करते हैं सो वह भी काम एक लौकिक है । ज्ञानी तो हर स्थिति में जैसी चाहे तैसा गुजारा कर सकता है जो भी स्थिति आये, आवे सबमें प्रसन्नता है । जो कुछ होता है वह भले के लिये होता है । यदि ज्ञान साथ है तो जो होता है वह भले के लिए होता है । एक ज्ञानी की बात कह रहे हैं कि ज्ञानी का कोई इष्ट गुजर जाये तो वह भले के लिए और कोई इष्ट मिल जाये तो भी वह भले के लिए, संपदा आ जाये, वह भी भले के लिए और विपदा आ जाये तो वह भी भले के लिए।
ज्ञानी संपदा में इतना मधुर रस नहीं चखता जितना विपदा में मधुर रस चखता है । संपदा में विकृत मौज मिलता है, परंतु विपदा में शुद्ध आनंद की भी झलक हो जाती है । जिन साधुजनों को उपसर्ग हुआ उन्होंने उस उपसर्ग के समय अपने में विशुद्ध उपयोग बनाया इसलिए शीघ्र अत्यंत निर्मल होकर मुक्त हो गये हैं । इतने शीघ्र निर्मल होना उपसर्ग बिना नहीं बन सकता था, यह भी संभव है । लौकिक सुख में रह कर विरले पुरुष को ही भगवान की और अपने आत्मा की याद रहती है । जब कोई अपने ऊपर कठिन बीमारी आ जाये या कोई आपत्ति आ जाये तो उस समय में यह जान लेते हैं कि यदि इस बीमारी से इस बार बच गया तो मेरा आगे का जीवन धर्म में ही बीतेगा । याद आती है, पर विपदा जैसे मिटती है, स्वास्थ होता है तो धीरे-धीरे वे सब बातें भूल जाता है । और जैसा था तैसा ही हो जाता है । एक भजन है गृहस्थावस्था में बनाया हुआ―
प्यारी विपदाओं आवो । रति निद्रा में सोये जनको बारंबार जगावो प्यारी0 ।।
मोह की नींद में सोये हुए इस पुरुष को बार-बार जगावो । बार-बार जगावो का अर्थ है कि है विपदाओं तुम आवो । जिसका लौकिक सुख से प्रयोजन नहीं है, लौकिक आनंद को जो आनंद नहीं समझता, आत्मा का यथार्थ सहज स्वभाव जिसके परिचय में आया उसके लिए तो संपदा नहीं विपदा अच्छी है । और मोहीजनों को संपदा भी विपदा और विपदा भी विपदा ही है । स्वप्न में कुछ धनलाभ देखकर स्वप्न देखने वाले का मन सुखीसा रहता है, पर उसके पास है क्या? कौन सी चीज है उसके पास? उसके पास केवल एक कल्पना है । जब अपना स्वप्न मिट जाता है तब यह या तो शोक करता है या ज्ञान भाव में आ जाता है ।
एक पुरुष था, उसको स्वप्न आया कि एक राजा से 100 गायें इनाम में मिली । स्वप्न देख रहा है कि मुझे 100 गायें राजा से मिल गयी । गायें खरीदने के लिए ग्राहक लोग आये । एक ग्राहक ने 10 गायें छांट लीं और पूछा कितने में दोगे? उसने कहा कि 100-100 रु0 में देंगे । अरे भाई 40-40 रु0 में नहीं दोगे ? तो कुछ वह कमा, कुछ वह बढ़ा, छिड़ गई बात 60 रु0 पर । इस पर गाय वाले ने कहा कि हम इनके सत्तर-सत्तर रु0 ही लेंगे । वह बोलता है कि हम तो 60-60 रु0 ही देंगे । क्या ऐसी इन गायों में कोई विशेष विशेषता है जिससे आप इन्हें 70-70 रु0 में दे रहे हैं और 60-60 रु0 में नहीं दे रहे हैं । उसी समय बातचीत तगड़ी हो जाने से उसकी नींद खुल गई । अरे यहाँ तो कुछ नहीं । न गाय, न ग्राहक । तो वह जबरदस्ती ही आंख मींचकर कहने लगा कि अच्छा इनके 60-60 रु0 ही दे जावो ।
यहाँ भी सब मोह की नींद का स्वप्न है । यह सब अच्छा है, आराम है, धन है । मैं परिवार वाला हूं, मैं बुद्धिमान हूँ, ये सब ख्याल है, ये मोह की नींद के स्वप्न हैं । जैसे कोई स्वप्न देखता है पर स्वप्न में उसके हाथ कुछ भी नहीं है इसी प्रकार हम मोह के स्वप्न में मान लेते हैं कि मैं बच्चे वाला हूँ, मैं बड़ा हूँ । क्या है इसका? व्यर्थ ही कह रहा है कि मैं बच्चे वाला हूं । इतना तो कुछ स्पष्ट मालूम कर कि मैं शरीर के अंदर एक ज्ञानमय तत्त्व हूं । पर में कल्पित अतथ्य को छोड़ । यह शरीर भी बच्चे वाला नहीं । यह मैं बच्चे वाला कैसा? मैं ज्ञानमात्र हूं, अमूर्त हूं । किसी से भिड़ भी नहीं सकता, छुवा भी नहीं जा सकता । कुछ समय से यहां हूँ, बाद में चला जाऊंगा । मेरे निकट यहाँ का कुछ भी नहीं रहेगा ।
दृश्यमान व भाव्यमान सब केवल स्वप्न का ख्याल है । परिवार, वैभव, इज्जत सब कोरा ख्याल ही ख्याल है । और उस स्वप्न में भी था क्या? कोरा हाल ही तो था । जब तक स्वप्न आ रहा है तब तक यह उसकी धुनि में है, उसके ही ख्याल में है । स्वप्न की बात गलत है । यह बात स्वप्न में हमारी समझ में नहीं आती पर यह तो नींद खुलने पर समझ में आती है, मालूम होती है । इस तरह मोह के सारे विचार गलत हैं पर यह बात मोह में समझ में नहीं आ सकती, यह तो मोह की नींद मिटने पर ही समझ में आती है कि यह सब बड़ा गलत काम किया । ज्ञानी साधु पुरुष तो सामायिक में खड़े होने में, हाथ चलाने में, नमस्कार करने में सोचता जाता है कि अब अज्ञान की चेष्टा है । ज्ञान की चेष्टा तो ज्ञानमय है । ज्ञान की चेष्टा मात्र जानना है, प्रतिभास है । जो मेरे ये विचार हो रहे हैं क्या ये विचार ज्ञान की चेष्टाएं हैं? कि मैं सामायिक कर रहा हूँ । यह रोग की चेष्टा है । विचारक हुए तो कोई आध घंटा लेट होने वाले विचारक होते हैं । किसी को गलतियों के करने के बाद आधे घंटे में मालूम पड़ती है कि मैंने गलती की है, किसी को 15 मिनट के बाद में मालूम पड़ती है और किन्हीं को तुरंत मालूम पड़ जाती है । तो तुरंत जिसे गलती मालूम पड़े ऐसा तो यह ज्ञानी पुरुष है ।
आत्मा ज्ञानमय है । उस ज्ञान का कार्य क्या है? ज्ञान का परिणमन क्या है? एक पांच-सात मिनट के लिए थोड़ी गहरी बात है इसलिये ध्यान लगा कर सुनो फिर सरल बात आ जायेगी । मैं ज्ञानमय हूँ । ज्ञान का कार्य क्या है? जानन के हाथ पैर नहीं होते । हाथ पैर चलाना ज्ञान का काम नहीं है । क्या ज्ञान का काम राग करना है? नहीं । ज्ञान का काम जानन है । राग करना ज्ञान का काम नहीं है । ज्ञान का काम क्या विचार करना है । धीरे-धीरे बढ़ रहा है कि ज्ञान का काम जानन है । क्या ज्ञान का काम विचार करना है? नहीं, जानन में और विचार में अंतर है ।
जानन राग द्वेष संकल्प विकल्प को छोड़ कर मात्र प्रतिभासरूप है और विचार जानन को अपने पेट में चबा कर उसको बिगाड़ देने वाले राग का काम है । कुछ भी विचार राग बिना नहीं होता है तो जितना मैं विचार करता हूँ, जितनी मैं शरीर की चेष्टा करता हूँ और जितने मैं वचन बोला करता हूँ, ये सब अज्ञान की चेष्टायें हैं, ज्ञान को छोड़ कर अन्य तत्त्वों की चेष्टायें हैं, ज्ञान की चेष्टा नहीं है । ज्ञान की चेष्टा निर्विकल्प, निष्कलंक, क्षोभरहित शुद्ध प्रतिभासमात्र है । यों ये अन्य तत्वों की चेष्टायें हैं । सारे आवश्यक कार्यों को करता हुआ भी साधु पुरुष यह जान रहा है कि यह सब अज्ञान की चेष्टा है, ज्ञान की चेष्टा तो शुद्ध जानना मात्र है । कहां तो ऊंचे-ऊंचे ज्ञानी पुरुष अपने इन आवश्यक कार्यों की चेष्टा में भी ज्ञानातिरिक्तता देखते हैं और कहां लोग घर में फंसे हुए यह मानते हैं कि हम बुद्धिमानी का कार्य कर रहे हैं, हम ज्ञान का काम कर रहे हैं । तब सोचो तो सही कि ज्ञानी और अज्ञानी के भाव में कितना अंतर है ।
भैया, गृहस्थ व साधु की श्रद्धा से कोई अंतर नहीं होता है । साधु की श्रद्धा और गृहस्थ की श्रद्धा एक तोल रहती है । इसमें अंतर नहीं है कि साधु की श्रद्धा कुछ बड़ी श्रद्धा कहलाती है और गृहस्थ की श्रद्धा कुछ हल्की कहलाती है । ज्ञान में अंतर पड़ सकता है, और चारित्र में तो अंतर होता ही है । साधु को उत्कृष्ट अवधिज्ञान हो जाये पर गृहस्थ को नहीं हो सकता । साधु के चारित्र में सकलसंयम होता है गृहस्थ में नहीं । किंतु श्रद्धा से रंच भी अंतर नहीं है ।
गांव में बरेदी लोग गाय चराने ले जाते हैं । गायों को दिन भर जंगल में चराते हैं । जंगल में शाम हो जाती है तो वह उन्हें छोड़ देते हैं, स्वतंत्र कर देते हैं, तो वे गायें अपने घर को धीरे-धीरे नहीं चलती, दौड़ करके आती हैं । उन्हें अपने बच्चों की याद है, और वे ऐसे ही दौड़कर नहीं आती, कुछ पूंछ को उठा कर, टांग करके दौड़ कर आती हैं, अपनी पूंछ को मोड़ कर बड़े उल्लास के साथ आती हैं, किंतु कोई गाय ऐसी हो जिसकी पूंछ आधी हो तो वह गाय भी अपने बच्चे की याद में अपनी आधी पूछ को ऊंचा करके आती है । चाहे पूंछ लंबी हो और चाहे पूंछ आधी हो, हरकत उतनी ही है । श्रद्धा गृहस्थ की और मुनि की दोनों की बराबर है । रुचि वही है पर गृहस्थ का कटी हुई पूंछ के बराबर आचरण है और साधु का अच्छा लंबा सुंदर वातावरण है ।
साधु-जन ज्ञान और आचरण को श्रद्धा के साथ में चर्चित कर लेते हैं, मिला लेते हैं और यह गृहस्थ अपने थोड़े संयम और थोड़ी कला के साथ में श्रद्धा को सज्जित कर पाता है । पर श्रद्धा दोनों में ही एक समान होती है । सम्यक्त्व का बहुत बड़ा प्रताप है । जिनका भवितव्य कल्याणमय है उनकी धर्मरुचि जगती है और वह उस धर्म रुचि में यत्न करता है, सत्संग करता है, समय देता है, बाहरी चीजों की परवाह नहीं करता । जो होता है सो होता है, उसका ज्ञाता द्रष्टा रहता है ।
बड़े-बड़े सेठ लोग आजकल भी देखे होंगे, सत्संग में अधिक रहते हैं तो घर छोड़े भी कई दिन हो जाते हैं, और उनके कारखाने का काम ठीक ढंग से चलता है । यदि सत्संग को छोड़ कर वे कारखाने में व व्यवसाय में निरंतर बसें तो उनसे कुछ घट बढ़ बोलचाल हो जाना संभव है । मैनेजरों, मुनीमों, कर्मचारियों के अधिक आकुलता होगी । काम भी बिगड़ जाता है । यह सोचना भ्रम है कि हम ज्यादह न फसेंगे तो कमाई पर असर लग जायेगा । पर वह तो अपने काम को कभी-कभी देखता है, बाकी शेष समय सत्संग, गुरूपासना व अन्य धार्मिक प्रसंग में लगाता है । जब पुण्य की प्रबलता है तो धन कहाँ जायेगा? लक्ष्मी कहाँ जायेगी? अच्छा विचारो इसका क्या कारण है? कि एक पुरुष जन्म से ही करोड़पति कहलाने लगे और एक पुरुष बड़ा श्रम करके भी थोड़ी सी संपदा का लाभ भी नहीं पाये? यह सब किसी अदृष्ट का अंतर है । उस अदृष्ट शब्द को किसी भी शब्द से कहो, यहाँ कर्म शब्द से कहा है । पुण्य कर्म के उदय में संपदा स्वयं प्राप्त होती है ।
ज्ञानी लोग उन सब पुद्गलों को मात्र जानते हैं । यह तो उन सबसे निराला है । परमार्थत: तो सदा निराला है और आगे भी निराला रहेगा । पर पदार्थ अपने ही स्वरूप में है, दूसरे के स्वरूप में नहीं है इसी कारण कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थरूप नहीं परिणमता है ।
भैया ! यदि सुखपूर्ण स्वतंत्र निज स्वरूप की भावना हो जाये और अपने आप में प्रकाशमान स्वगुप्त चैतन्य स्वरूप की अनुभूति की धुनि हो जाये तो किसी भी पर द्रव्य की विकल्पना नहीं करनी पड़ती । हम भगवान के दर्शन करने आते हैं और दर्शन कर लेते हैं, पर यह अपने आपमें श्रद्धा नहीं करे कि भगवान शुद्ध ज्ञानी हैं, शुद्ध आनंद वाले हैं, ऐसा ही शुद्ध ज्ञान, शुद्ध आनंद उत्कृष्ट है, मेरे लिए उपादेय है, इतनी बात जिनके मन में नहीं आ सकती और जिनके पूजा करने में भी ऐसा आशय बना है कि बुद्धिमान हूँ तो मैं ही हूँ, देखो ! मैं पूजा करके अपने काम को सिद्ध कर लेता हूँ, सो वह तो यह समझता है कि टोटका तंतों में पड़कर मैं अपनी बुद्धिमानी का लाभ लूटा करता हूँ । किंतु जब तक प्रभु का उत्कृष्ट स्वरूप दृष्टि में नहीं आये तब तक पूजा क्या? कर्मबंध तो हो ही रहा है ।
जैसा प्रभु का स्वरूप है तैसा ही स्वरूप मेरे में निहित है । जैसा कटोरी में निकलता हुआ घी है तैसा ही घी 5 सेर दूध में छिपा हुआ है । घी निकालने की विधि से कोशिश करो तो घी निकाल लो । जैसे व्यक्त स्वरूप अनंत अरहंत भगवान में सिद्ध भगवान में विराजमान है वैसा ही स्वरूप हम सब आत्माओं में निहित है । उसके देखने की पद्धति बना ली जाना चाहिए । उसके देखने को पद्धति सम्यक्त्व है, ज्ञान है, चरित्र है, यह परमात्मतत्त्व सर्वत्र एकस्वरूप है । जैसे अग्नि एकस्वरूप है । कोयले में आग लगी है, काष्ठ में लगी हुई है तो क्या काष्ठ में आग लंबी है और कोयले की अग्नि गोल है । हम पूछेंगे कि यह आग कैसी है? तो आप कहेंगे कि यह लंबी है । तो भैया क्या कोई आग लंबी होती होगी, और क्या कोई आग गोल भी होगी? यह तो नहीं है । यह अग्नि तो एकस्वरूप है उसका लक्षण उष्णता है । काठ का लंबा आकार है । वैसे ही कोयले का गोल आकार है । वह तो उष्णतामात्र है तो आग जो लंबी दिखती है, वह ईंधन का आकार है । जलती हुई आग की बात कह रहे हैं हम कि जलती हुई आग में जो आकार है वह ईंधन का लंबा आदि आकार है, आग का नहीं । आग तो उष्णतामात्र है ।
इसी प्रकार जो यह विचित्र शरीर दिख रहा है तो क्या यह आत्मा चार-छ: आठ, दस गज लंबा है नहीं यह इस शरीर का लंबा चौड़ापन है । आधार के कारण यह आत्मा इतने प्रमाण शरीर में फैला हुआ है । आत्मा का स्वरूप जाननमात्र है । जैसे गर्ममात्र आग उस आकार में फैला हुआ है इसी प्रकार जाननमात्र आत्मा भी विभिन्न आकार में फैला हुआ है इस आत्मा का बड़ा रहस्य है । इस आत्मा के स्वरूप को जानते हुए मैं किसी के वेदांत का असर आ जाता है किसी के बौद्धत्व का असर आ जाता है, किसी के सांख्यत्व का असर आ जाता है । यह सब कहानी बड़ी सुंदर है और जैसे किसी खेल में खेले हुए बालक जैसा चाहें फिरते हुए खेल खेल लेते हैं इसी तरह आत्मा के अनुभव के स्वाद का परिचय पाने वाला ज्ञानी इस सब आत्म रहस्य को लीलामात्र से समझ लेता है, अनुभूत कर लेता है । अपने आपके उपयोग को उस अमृत निधान के निज ज्ञान को जानना सबसे बड़े ज्ञानियों का काम है । जिस परमात्मतत्त्व का योगी ध्यान करता है वह तत्त्व क्या है? इसका प्रकाश इस ग्रंथ में किया जा रहा है ।
जो योगींद्र पुरुष निज निज आत्मा में वीतराग निर्विकल्प समता परिणाम से शुद्ध हो रहे हैं वे योगीजन किसका ध्यान करते हैं जिसके प्रताप से भयानक जंगलों में भी वे अमृत का स्वाद लेते रहते हैं । उनको सब अकेला रहते देखते हैं किंतु वे किसी अदृश्य परमात्मतत्त्व से विलक्षण पद्धति से विलक्षण बात करते हैं जिससे वे योगेंद्र महीनों भयानक जंगलों में प्रसन्न बने रहते हैं । ऐसा उन्हें क्या स्वाद मिला? वह स्वाद आत्मा में बसे हुए सहज शुद्ध चैतन्यस्वरूप के स्वभाव की दृष्टि का है । इन योगियों को अपने आपमें अनादि अनंत नित्य अंत: प्रकाशमान चैतन्य स्वरूप दृष्टिगत है, इस कारण वे योगी बहुत प्रसन्न रहते हैं । उनका अकाट्य निर्णय है कि यह मैं आत्मा केवल अपने स्वरूप में हूँ । मुझमें किसी दूसरे पदार्थ से कुछ नहीं आता और दूसरे पदार्थ में मुझसे कुछ नहीं जाता । मैं केवल अपने का कर्ता हूँ, अपने को भोगता हूँ, अपने आपके उत्पाद व्ययरूप से परिणत हुआ अपने में समाया रहता हूँ । बात भी ऐसी ही है कि कोई भी प्राणी किसी दूसरे के सुख को नहीं भोग सकता । दूसरे का सुख उस दूसरे का ही आनंद गुण का परिणमन है । वह उस दूसरे से बाहर कैसे जायेगा किंतु मोही जीव भ्रम से ऐसा मानता है कि मुझे अमुक चीज का सुख मिला । देखो भैया, यह अपने आपके ही आनंद गुण का परिणाम भोगता है । किंतु मोही मानता है कि मैं अमुक चीज का सुख भोगता हूँ । इस विकल्प से उसके आनंद की हानि ही है ।
एक बार एक घर बहुत गरीब हो गया । वे चार भाई थे । उन्होंने सोचा कि चलो भाई ! मौसी के यहाँ चलें सो 10, 15 दिन अच्छे कट जायेंगे । वे चारों भाई अपने कपड़े पहिन कर कुछ दाम लेकर मौसी के यहाँ चले गये । मौसी ने उनका बड़ा सत्कार किया कि आवो बेटे ! अच्छे आये । मौसी बड़ी कंजूस थी । उसने पूछा क्या खावोगे? उन्होंने कहा मौसीजी ! जो तुम बनाओगे वही खायेंगे । मौसी ने कहा अच्छा तुम तालाब में नहा आवो । वे सब अपने कपड़े उतार कर घर छोड़कर गये और एक-एक धोती लेकर गांव से बाहर तालाब पर नहाने चले गये । दो घाटे नहाने में लग गये, फिर मंदिर गये, क्योंकि नहाने के बाद सीधे मंदिर जाने की पद्धति थी । इस बीच 1।। घंटा में मौसी ने क्या किया कि उन लड़कों के कपड़े सब एक बनिया के यहाँ गिरवी रख दिये और बहुत ही जल्दी सामान लाकर हलुआ पूड़ी आदि पकवान बनाये । अब वे लड़के सीधे मंदिर से आये और रसोईघर में पहुँच गये । मौसी ने कहा आओ बेटे ! खूब खावो । वे लड़के खाना खाते जायें और एक दूसरे की ओर मुंह ताकते जायें कि कितनी अच्छी पूड़ी है, हलुआ में कितना मीठा स्वाद है और इन लड्डू बर्फी में कितना स्वाद है । मौसी ने कहा खाते जावो बेटे ! यह सब तुम्हारा ही तो है । उन युवकों ने कहा कि मौसी ने बहुत अच्छा भोजन बनाया और नम्रता से कह रही है कि बेटे ! यह सब तुम्हारा ही तो है । खिलाने वाले ऐसा कहा ही करते हैं कि यह सब तुम्हारा ही तो है । भोजन के बाद वे कपड़े पहिनने कमरे में गये । जब अपने कपड़े न मिले तो पूछा मौसी ! मेरे कपड़े कहाँ चले गये? तब मौसी ने कहा कि बेटा हमने कहा था कि यह सब तुम्हारा ही तो है । मतलब इसका यह है कि आप सबके कपड़े बनियाँ के यहाँ गिरवी रख दिये । तो देखो वे मौसी के यहाँ खाते समय मौसी का माल खा रहे हैं इस भ्रम में खुशी तो मान रहे थे, लेकिन वह माल था उन्हीं का ।
इसी प्रकार यह जीव दूसरों का आनंद नहीं लूट सकता, आनंद अपना लूटता है । कोई कैसा ही सिर पटके, मूंड़ फोड़े, कितना ही भाव बनाये कि हमें दूसरे पदार्थों का सुख मिल जाये तो यह तीन काल में भी नहीं हो सकता । अपने को जो सुख मिलेगा वह अपने ज्ञान से मिलेगा । इसको बज्र में लिखवा कर रख लो, पत्थर में खुदवा कर रख लो कि जीव को जो सुख होता है वह अपनी कल्पना से या अपने शुद्ध ज्ञान से होता है । दूसरे से सुख नहीं होता । लोग बड़े मिष्ठ भोजन करते हैं, दूध में मिठास है, घी में बड़ा मधुर रस है, शक्कर में मधुर रस है, पर खाने वाले प्राणी को जो सुख होता है वह दूध, शक्कर और घी के मिठास का सुख नहीं है । उस ज्ञान के साथ-साथ जो राग लगा है उसके कारण मनगढ़ंत कल्पना का सुख माना जाता है । सर्वत्र देख लो, जितना भी आनंद मिलता है वह अपने आनंद गुण के परिणाम से ही मिलता है ।
ये योगींद्र महापुरुष, जो भयानक जंगल में प्रसन्न रहा करते हैं उन्हें क्या मिला है? अरे उनके साथ में परमात्मा रहता है और इन लोगों के साथ ये हाड़ मांस के पिंडरुप दो चार छ: आदमी रहते हैं सो भैया, भयानक जंगल में परमात्मा जिनके साथ है उनको डर किसका? भय किसका? भय हो तो यहाँ इन जीवों को हो । परमात्मा जिनके निकट रहता है उनको भय किसका? परमात्मा किस तरह से निकट रहता है यह बहुत बड़े रहस्य की बात है । अरहंत सिद्ध भगवान अपना आसन छोड़कर उन योगियों के पास बसने आते हों यह बात नहीं है । भगवान क्या मोह वाले हैं? क्या स्त्री पुत्रों वाले हैं? नहीं । वहाँ तौ योगी पुरुषों के अपने आपके स्वरूप में बसे हुए परिपूर्ण ज्ञानघन शुद्ध चिज्ज्योति का दर्शन हो रहा है, वही परमात्मतत्त्व उसके उपयोग में है, निकट है । निकट क्या है? वह तो परमात्मत्वमय है । ऐसे जिस परमात्मतत्त्व का योगीजन ध्यान करते हैं उस तत्त्व को तुम परमात्मा जानो ।
भैया, हम सब जीव सत् हैं, पदार्थ हैं । जो पदार्थ होते हैं वे किसी दिन से होते हैं, पहिले नहीं थे, ऐसा नहीं है । हम सब जीव अनादिकाल से हैं और अनादिकाल से अनेकों तुच्छ भावों में, क्लेशों में निकृष्ट शरीरों में रहे आये । आज बड़ा सुयोग मिला । कितना बड़ा भाग्य बताया जाये इसके कहने को शब्दों में सामर्थ्य नहीं है । ऐसा बड़ा भाग्य कि आपने हमने, सबने मनुष्य जीवन पाया है और इस मनुष्य भव में भी कैसा उत्तम कुल पाया जहाँ कि धर्म की पद्धति है । जहाँ कि जिनेंद्र देव का शासन है । हिंसा मांस आदि इन पापों से हम कितने दूर हैं । आत्मा की चर्चा हम आप सब जब चाहें कर लेते हैं । ऐसा उत्कृष्ट अवसर पाया । अब ऐसे अवसर को पाकर थोड़ा इतना साहस और बना लें कि अंतर में यह श्रद्धा बन जाये कि कदाचित् सर्व समागम भी हट जायें, कुटुंब परिवार भी नहीं रहे तो भी यह स्थिति आत्मा का कुछ भी नहीं बिगाड़ेगी । यदि परिणाम निर्मल है और आचरण सही है तो हमारी खबर लेने वाले हजारों पुरुष होंगे ।
कदाचित् उस सर्व चेतन समागम से भी हम बिछुड़ जाये तो भी इस आत्मा की कोई हानि नहीं होगी । मुझे चाहिए परमात्म-स्वरूप का स्मरण और अपने आपके सहज स्वरूप का दर्शन । फिर कोई परवाह नहीं है । इनसे जब तक मेरा संग भी है तब तक मुनाफा क्या है? अपने आत्मा का लाभ क्या है? उत्कृष्ट साधुधर्म जब नहीं पाला जा सकता तो हमें गृहस्थधर्म में रहना पड़ा है और इस गृहस्थधर्म के कारण प्रेममय वातावरण, ज्ञान कलात्मक सारे प्रोग्राम इस गृहस्थी में हैं । जब तक जो समागम हो रहा है होओ, उस स्थिति में भी हम अपने योग्य व्यवस्था बनायेंगे कदाचित् बिछुड़कर बिल्कुल अकेले रहना पड़े तो भी हृदय में ऐसी श्रद्धा और साहस होना चाहिए कि तब भी इस मुझ आत्मा की कोई हानि नहीं है । जो होता है वह ठीक होता है । प्रत्येक पदार्थ है, उसका परिणाम होता है । हम उन सबके ज्ञाताद्रष्टा रह सकें यही हमारे जन्म की बड़ी सफलता है ।
योगींद्रजन किसका ध्यान करते हैं जिसमें पड़ने के लिए भोगियों का साहस नहीं होता, वह यही शुद्ध सहज सरल परमात्मतत्त्व है । जिस परमात्मा का ये मुनिजन ध्यान करते हैं वही परमात्मतत्त्व हम सबको उपादेय है । अब समझ में आया कि यह परमात्मतत्त्व की कृपा है कि इस आत्मा का सम्वेदन करके हम आप आर्त रौद्र ध्यान से, तीनों शल्यों से दूर हो सकते हैं । एक हार्ट के रोगी को, जिसका दिल घबड़ा रहा हो, उसके पास बैठा हुआ उसके मन माफिक कोई साहस दे दे, अजी वहाँ तो बड़ा अच्छा मील चल रहा है, अभी-अभी खबर आयी है कि दो लाख रुपये का लाभ हुआ है । तुम्हारे शरीर में बिल्कुल रोग नहीं है । डाक्टर उसे देख कर कहता है कि तुम्हारा हाल बहुत अच्छा है, रोग बहुत कम है तो वह स्वस्थ हो जाता है । उसे तो साहस चाहिए, क्योंकि वह केवल विकल्प की, ख्याल की, घबड़ाहट की ही तो विकट व्याधि थी ।
भैया, यहाँ का सब व्यवहार सट्टे के व्यापार से भी निःसार है । कुछ आना जाना होता है क्या? पुराणों की चर्चा भी पढ़ ली होगी―बड़े-बड़े पुरुष भी जो स्त्री में बड़े प्रेमी हुए, राज्य के बड़े लोभी हुए, जिन्होंने बड़े-बड़े संग्राम रचे, हजारों स्त्रियों का पाणिग्रहण किया किंतु जीवन का अंतिम परिणाम देखो कि वहाँ सब कुछ गुजर गया । उन्होंने अपनी सारी जिंदगी चीजों के जुटाने में, उनके सिलसिले बनाने में गुजार दी, लेकिन देखो उनके जीवन में अंत में क्या से क्या स्थितियाँ हुई । उन्होंने भी खूब सोचा था कि बुजुर्ग बनेंगे, बड़ा आनंद होगा, लड़के पोते होंगे, बड़ा ठाट बाट हो जायेगा लेकिन देखो कि अंत में यह सब कुछ बिगड़ गया । कोई किसी तरह बिछुड़ा कोई किसी तरह बिछुड़ा, कोई साधु होकर बिछुड़ा कोई नरक जाकर बिछुड़ा । रावण का इतना बड़ा भारी कुटुंब, उसमें कोई रामभक्त हो गया, कोई संग्राम में मारा गया । कोई किसी तरह मारा गया । राम अपने जमाने में कैसे रहते थे? पर उनका भी वह सब समागम बिछुड़ गया ।
यह सब स्वप्न है । अपन लोग छोटीसी जिंदगी में सारे सरंजाम रच रहे हैं पर कुछ ही समय बाद बिछुड़ जायेगा । जो चीज साथ नहीं रहेगी उसकी चिंता में, मोह में यदि यह जीवन बिता दिया तो जैसे अब तक के भव गुजर गये हैं उनमें यह मनुष्य भव भी शामिल हो जायेगा । इसमें लाभ कुछ नहीं मिलेगा । अब परमात्मतत्त्व को इस रूप में रख रहे हैं कि जो शुद्ध चैतन्यस्वभावी होकर भी कर्मों का निमित्त पाकर त्रस और स्थावर रूप को उत्पन्न करता है वही परमात्मा है ।