वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 40
From जैनकोष
जो जिउ हेउ लहेवि विहि जयु वहु विहउ जणेइ ।
लिंगत्तयपरिमंडियउ सो परमष्पु हवेइ ।।40।।
जो जीव कर्मों का निमित्त पाकर नाना प्रकार से जगत को रचता है; पुरुषलिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग इन तीनों लिंगों से मंडित होकर रहता है वह परमात्मा है । उसमें तुम एक ज्ञायकस्वरूप को देखो । यह दर्शन तब होता है जब अपने को आत्मा अकिंचन स्वीकार कर लेता है । अकिंचनत्व की स्वीकारता में महती प्रभुता इष्ट होती है । गुणभद्रस्वामी ने लिखा है अकिंचन हमित्यास्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवे: । योगिगम्यं तब प्रोक्तं रहस्यं परमात्मन: ।।
हे योगी ! देखो तुम्हें परमात्मा के रहस्य को बताऊं । बहुत धीरे से कहा कान में कहा । जब बहुत मर्म की बात होती है तो धीरे से कही जाती है, उसी बात को बहुत जोर से कहने सुनने में उसका महत्व कम रह जाता है । अच्छा भैया, सुनो । धीरे-धीरे से कान में सुनना । आचार्य महाराज योगी से कहते हैं कि सुनो, तुम्हें कुछ परमात्मा का राज बतायें, कुछ परमात्मा का रहस्य बतायें । हाँ हाँ मुझको जरूर सुनाइये प्रभो । तो और निकट आवो देखो परमात्मा तीन लोक का अधिपति है, तुम्हें ऐसा ही बनना है ना? तो इसकी उपाय बतायें ।
मैं अकिंचन हूँ, मेरा कहीं कुछ नहीं है । इस प्रकार विचार कर, इस सत्य को आग्रह कर अपने आपमें बैठ जावो, इससे तुम तीन लोक के अधिपति हो जावोगे । यह बात तुम्हें सुना तो दी है लेकिन यह बात बड़े-बड़े योगियों द्वारा गम्य है । किसी मर्म की बात को व्याख्यानों के रूप में जोर-जोर से चिल्लाकर कहने की अपेक्षा गुप्तरूप से, धीरे से, विश्राम से, शांतिपूर्वक बताना हितकर होता है । तीन लोक का अधिपति वही होता है, जगत में उत्कृष्ट महान वही बन सकता है जो अपने आपको अकिंचन मान सकता है । लोगों में भी देख लो, सभा में, समूह में जो अपने को अकिंचन कहेगा, मानेगा, मैंने कुछ नहीं किया, सब आपका आशीर्वाद है, आपकी दया दृष्टि हो गई, इस तरह जो अकिंचन रूप में उपस्थित होगा उसकी सर्वत्र शोभा होगी, मान होगा और आप 10 लाख रुपया लगाकर कोई मंदिर अथवा अनाथालय खोल दें और सभा में आकर कह दें कि इस देश में अनाथ बहुत हो गये थे, उन अनाथ लड़कों के लिए मैंने यह अनाथालय खोला है, आप इसमें अनाथों की भर्ती करें तो 10 लाख क्या, कितने ही 10 लाख लगा दो, वह सब बेइज्जती में गया । अपने को आकिंचन्यमय प्रकट करता तो उसकी सर्वत्र शोभा होती, मान होता ।
उक्त तो लौकिक बात है पर अपने आपमें अंत: देखो―यह है ही ऐसा, यह आत्मतत्त्व ज्ञानज्योतिर्मय है, आनंदस्वरूप है, भावात्मक है । यह पकड़ा नहीं जा सकता, यह छेदा नहीं जा सकता । कोई इसको जानता भी नहीं है । किसी का इससे कुछ संबंध ही नहीं है । यह मैं आत्मा केवल अपने ज्ञानात्मक परिणाम को करता हूँ और ज्ञानात्मक परिणाम को भोगता हूँ । इस अपने में अपने उत्पाद व्यय ध्रौव्य भाव के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । यह केवल अपने स्वरूपमात्र है, शुद्ध है । यदि ऐसा ही भाव हो जाये कि मैं अकिंचन्य हूँ तो देखो तुम तीन लोक के अधिपति हो जावोगे । ऐसे आकिंचन्य भावस्वरूप की भावना से चैतन्य स्वरूपमात्र के जब दर्शन होते हैं तब परम विश्राम होता है । ज्ञानावरणादिक कर्म भस्म हो जाते हैं और ज्ञान प्रकट हो जाता । जिस ज्ञान के द्वारा तीन लोक और अलोक का प्रसार व सब कुछ परिणाम एक दम दृष्ट हो जाते हैं उस ज्ञान की प्राप्ति ही तीन लोक का अधिपतित्व कहलाता है ।
कोई सोचे यह तो सभा की बात है, व्याख्यान की बात है, हम लोगों की शान, इज्जत, पोजीशन ऐसी ही चर्चा करने में सही रहती है । तो भैया, इसकी यह सब बात नहीं है । यह तो योगिगम्य बात है । यह रहस्य जंगलों के अपने आपमें बड़े प्रसन्न रहने वाले संत योगीजनों द्वारा गम्य हैं । कर तो लें ऐसा, फिर न आनंद अनुभव में आये तो दूसरा मार्ग अपना लें । कैसा अमूल्य मनुष्य जीवन पाया है । इसको पाकर यदि विषय में इसे गवा दिया तो मनुष्य भव पाना व्यर्थ है । जो मेरे साथ नहीं रहेगा उसके उपयोग में ही समय बिता दिया तो समझो बहुत बड़ा अमूल्य अवसर खो दिया । मरण होकर कीड़े-मकोड़े हो गये तो फिर उत्थान का अवसर ही न रहा । जितना समय अपनी कमाई में और पालन-पोषण में, अन्य बातों में लगाते हैं उसका चौथाई भी समय ज्ञान, ध्यान, पूजा, भक्ति की चर्या में लगायें तो सफलता मिलेगी । किन के लिए हम समय खोते हैं? जो विषय कषायों में 24 घन्टे लगे हुए हैं उन्हीं के साथ खोते हैं, उनसे कुछ लाभ नहीं मिलेगा । भीतर में कुछ तो यह बात जमायें कि हम अपने लिए कुछ करें, अंदर में पुरुषार्थ करें, शुद्ध आनंद की दृष्टि करें ।
एक कथा है कि एक घुड़सवार सड़क से चला जा रहा था । मार्ग में एक प्रवचन हाल में कथा हो रही थी । वहाँ जाने वाले लोगों से पूछा कि यहाँ क्या हो रहा है? तो बताया―एक पंडितजी कथा कहते हैं, उसे सुनने जा रहे हैं । तो उसने घोड़े को सड़क पर छोड़ दिया और चला गया कथा सुनने । उस दिन कथा वैराग्यपूर्ण थी । सो उसे भी वैराग्य आ गया । चला गया जंगल को घोड़ा छोड़कर और फिर 5-7 वर्ष में आया, और लोगों को वहीं जाते फिर देखा, बोला कहां जा रहे हो ? वे बोले कथा सुनने जा रहे हैं । तो वह बोला धन्य है तुम्हारे साहस को जो सालों से कथा सुन रहे हो । मैं तो एक दिन पहुंचा, पर उस दिन की कथा को भी सहन कर न सका और सबको छोड़कर यह वैराग्य की वृत्ति लेनी पड़ी । आपको कथा सुनते-सुनते कितने वर्ष हो गये? अजी हमें तो 20-25 साल हो गये । सो भैया ! आयु की हानि तो हो ही रही, कुछ प्रगति भी तो हम करें । बतलाओ तुमने इन चालीस वर्षों में क्या किया कुछ भी तो कल्याण की बात न कर पायी । हम सर्व विकल्पों को छोड़कर अपने आपके शुद्ध प्रतिभासस्वरूप में यह मैं हूँ ऐसा अनुभव करें, चाहे वह एक सेकेंड को ही सही, फिर समझ लीजिये कि हमने अपने लिए कुछ कार्य किया । अन्यथा लड़कों को कुछ पढ़ा लिखा दो, चाहे मोही पुरुषों में अपनी कीर्ति फैला लो, संपदा जोड़ लो, पर अपने हित में अपना किया कुछ नहीं ।
जो ज्ञानावरणादिक कर्मों का निमित्त पाकर त्रस स्थावररूप इस चराचर जगत को उत्पन्न करते हैं वे ही इस लोक में परमात्मा कहे जाते हैं । अन्य कोई स्वतंत्र अधिकारी एक परमात्मा नहीं है जो अन्य जीवों की और अन्य पदार्थों की सृष्टि करे । इस प्रकार इस परमात्मा के रहस्य को जो जानता है वह अंतरात्मा कहलाता है । यह आत्मा शुद्ध द्रव्यादि में से शुद्ध है फिर भी अनादि परंपरा से बंधनरूप चला आया । ज्ञानावरणादिक कर्मों के जाल से यह आत्मा ढका हुआ है अर्थात् उस जाल के निमित्त से उत्पन्न होने वाले रागादि विकल्पों में आनंद के स्वाद को नहीं प्राप्त कर पाता है । यह आत्मा व्यवहार से त्रस होता है, स्थावर होता है, पुरुष होता है, नपुंसक होता है, इस कारण यह आत्मा जगत का कर्ता कहा जाता है ।
भैया, आत्मा के विशुद्ध स्वरूप की अर्थात् अपनी सत्ता के कारण जिस स्वरूप से रह सकता है उस स्वरूप की दृष्टि है तो परमात्मा का मर्म ज्ञात होता है, और उस स्वरूप के अनुभव से ज्ञान व आनंद का पूर्ण विशुद्ध विकास हो जाता है । तो इस प्रकरण में यह जानना चाहिए कि मेरे में जो सहज स्वरूप चैतन्य भाव है, प्रतिभास स्वरूप है वही उपादेय है । इस प्रभु में दृष्टि पहुंचे तो कर्मों की निर्जरा होती है । सब चाहते हैं कि मेरे कर्मों की निर्जरा हो, किंतु कर्मों का ध्वंस कैसे होगा? इन हाथ पैरों के चलाने से कर्मों का ध्वंस नहीं होगा । कर्मों का ध्वंस भगवान से रक्षा की भीख मांगने पर भी नहीं होगा । कर्मों का ध्वंस अपने आपमें बसे हुए अनादि अनंत सहज चैतन्य स्वरूप के अनुभव से होगा । यही चैतन्य स्वभाव शुद्ध आत्मा कहलाता है ।
कोई भाई अपने को कुछ भी नहीं कहता हो कि मैं अमुकचंद हूँ, मैं अमुकलाल हूँ, मैं अमुक सेठ हूँ, साधु हूँ इतने परिवार वाला हूँ, मिनिस्टर हूँ, आफीसर हूँ, कुछ नहीं कहता हो पर अपने को यों मानता हो तो यह आशय ही तो बंधक है । बस, अपने को कैसा मान लूँ तो कर्मों से मुक्त हो जाऊं? और अपने को कैसा मान लूं कि मैं कर्मों से बंधता रहूँ । सिर्फ मूल में इस मानने पर ही सर्व भवितव्य निर्भर है । मैं सेठ हूँ, साधु हूँ, पंडित हूँ आदि आदि यह सब आशय कर्मों का बंधक है । मैं सबसे निराला शुद्ध चैतन्य प्रतिभासमात्र हूँ, चिन्मात्र हूँ, यदि दृढ़ता से यह भावना बन गयी तो कर्मों की निर्जरा है । सो यह शुद्ध आत्मा, याने जिस रूप अपने को मानने पर कर्मों का ध्वंस होने लगता है, वही शुद्धआत्मा उपादेय है । यही आत्मा जब निर्विकल्प समाधि के द्वारा रागादिक को समाप्त कर देता है तब यह मोक्ष का साक्षात् मार्ग बनाता है, इसलिये यह आत्मा उपादेय है ।
भैया, मोह की विपदा सबसे बड़ी विपदा है । चाहे मोही जानें कि हम चौकन्ना रहते हैं, चोरों की तरह से सावधानी रखते हैं, आजीविका का कार्य सब ठीक प्रकार से रखते हैं, सब आनंद ही आनंद आ रहा है । पर यह सब अंधेरा है, धोखा है । भीतर में इस उपयोग को अपनी ध्रुवस्वभाव की दृष्टि में न लगायें तथा अध्रुव, असहाय बाह्य की दृष्टि कर लें और उसमें अपने को बड़ा सावधान समझ लें अन्यथा तो विकट धोखा है । जब स्वप्न आता है और उस स्वप्न में लड़ाई की घटना या किसी जंगल में जा रहे हैं या ऐसा कोई दृश्य भी दिख गया जिससे आपत्ति आ सकती है वहाँ (स्वप्न की बात कह रहे हैं) अपने को लाठी से सजा हुआ देखता है, छाती चौड़ी कर चलता है, अपने को बड़ा सावधान समझता है । अपने को सुरक्षित मानता है मगर है क्या वहाँ? यह सब तो केवल कल्पना है ।
जैसे बच्चे लोग बरसात के दिनों में जो पानी ऊपर से टपकता है जिसे उर्बतिया कहते हैं, उस उर्बतिया के पानी के टपकने से बबूला उठ जाता है । पाँच, सात बबूला उठ गये तो कोई बच्चा कहता है कि यह मेरा बबूला है तो कोई बच्चा कहता है कि यह मेरा बबूला है । जिसका बबूला बहुत देर तक रह सकता है उसी का बबूला श्रेष्ठ माना जाता है और खुशी उसे होती है कि यह मेरा बबूला अब भी है । थोड़े समय को प्राप्त हुआ यह संसार का सारा समागम पानी के बबूले की तरह है । तो जैसे बच्चों का बबूलों में राग है वैसे ही यह बड़ा बच्चा भी केवल कल्पना करके बबूलों में रागी होता है । इस प्रकार मोहीजन वैभव में समाये रहते हैं । उनको इस आत्मा से मिलता कुछ नहीं है । उनको उलटा नुकसान है, पापों का बंध है । सारा सरगम व्यर्थ बिगाड़ रहा है, अपने अगले भव को भी बिगाड़ रहा है, क्योंकि यह तो सब मोह की कल्पना मात्र है ।
भैया, कर्म के उदय में उत्पन्न हुए रागादिक विकल्पजालों को नष्ट करके जो साक्षात् उपादेयभूत मोक्ष सुख है, उसका साधक निज शुद्ध आत्मा का दर्शन ही है । इस आत्मा की शुद्धि इस मूल पर निर्भर है कि यह निश्चय कर लो कि मैं वास्तव में क्या हूँ? इसको यथार्थ जान जायें तो मोक्ष मिला ही मिला है और मैं क्या हूँ? यह समझने की गड़बड़ी की, यही संसार में अपने को रुलाना है । मैं घर वाला हूँ क्या यह बात यथार्थ है? घर जड़ है और मैं चेतन हूँ । मेरा कोई संबंध घर से नहीं । आज कहते हैं मेरा घर है, कल के दिन अगर बिक गया तो जिंदे ही लो मेरा घर नहीं रहा, बिक गया । तथा गुजर गया तो मेरा घर मेरे किस काम का? पूर्वभव का घर भी मेरा आज कुछ नहीं है । उसका पता नहीं कि कहाँ है । ऐसे ही वर्तमान घर का नाम निशान भी नहीं रहा होगा ।
मैं परिवार वाला हूँ क्या यह यथार्थ है? नहीं । बिछुड़ गया तो क्या रहा पास? यहाँ रहते हुए भी बच्चों का दूसरा परिणाम हो गया और आपका दूसरा परिणाम हो गया तो अब यह कहने लगेगा कि मेरे तो बच्चे ही नहीं हैं । मैं शरीर हूँ क्या यह यथार्थ है? क्या मैं वह हूँ जो जल जायेगा? जो मिट जायेगा? मैं तो वह नहीं हूँ । जितने भी सत् होते हैं वे त्रिकाली होते हैं । किसी समय उनकी उत्पत्ति हुई हो और कभी विनाश होता हो ऐसा तो कुछ है ही नहीं मैं नष्ट होने वाला पदार्थ नहीं हूँ । और यह शरीर पुद्गल परमाणुओं की अवस्था है । सो मैं शरीर हूँ यह बात भी गलत है । और मैं क्रोधी हूँ, मानी हूँ इत्यादि बातें भी गलत हैं । क्रोध मान भी मेरा स्वरूप नहीं है । वह विकार है और कारण पाकर होता है, और कारण न होने पर विनशता है । पर मैं विनशने वाला नहीं हूँ । अत: मैं क्रोधी आदि भी नहीं हूँ । जैसा अभी ज्ञान हो रहा है न ऐसा अपूर्ण ज्ञानवाला भी नहीं हूँ ।
इस तरह से सब परिणमनों में आत्मीयता की बुद्धि न करते जाइए तब फिर अपने आप शुद्ध ज्ञानप्रकाश में अपना अनुभव स्वयं जान लेगा । उसके बाद आप स्वयं निजस्वरूप जान जायेंगे कि लो मैं ऐसा शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वरूप हूँ, चैतन्यमात्र हूँ इस श्रद्धा से यह भव्य पुरुष मोक्ष के मार्ग में प्रवेश करता है । अपूर्व समता, निर्विकल्प समाधि प्राप्त करने का उपाय ही यह है कि अपने आपको समझ जाये कि मैं यथार्थ क्या हूँ? दूसरों के बच्चों को आप जानते हैं कि यह मेरा नहीं है तो उन बच्चों के प्रति आपका राग नहीं रहता है । जब आप अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप के अलावा अन्य सब पदार्थों को यह जान जायेंगे कि यह मैं नहीं हूँ, यह मेरा नहीं है तो उनके प्रति भी राग द्वेष न रहेगा, समता उत्पन्न हो जायेगी ।
हम जितना भी जो कुछ करते हैं वह सब अपने को ही करते हैं, अपना ही परिणाम कर रहे हैं । जानते हैं तो अपने आपको ही जाननरूप से परिणमाते हैं । सुख होता है तो अपने को ही हम आनंदरूप से परिणमाते हैं जो कुछ करते हैं वह अपने को ही स्वयं करते हैं । जितना सुख आपको खाने का है, पैसे कमाने का है परिवार के बीच में बैठकर राग करने से उत्पन्न होता है, मंदिर में आकर भगवान की भक्ति करने से आनंद होता है और चाहे शुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान करने से आनंद उत्पन्न होता है, सब जगह स्वयं के आनंद का भोग करते हैं, दूसरे पदार्थों का भोग दूसरा नहीं करता । आप किसी बाह्य पदार्थ का भोग नहीं कर सकते, अपने ही ज्ञान और आनंद को भोगते रहते हैं पर उस विकृत ज्ञान और आनंद को, जिनमें बाह्य पदार्थों का आश्रय बने, जिनमें आपने उपयोग दिया उनको देखकर आप कहते हैं कि इनसे आनंद मिला । यह सब उपचार कथन है ।
कुत्ता सूखी हड्डी को ले आता है और उसे चबाता है, उसे चबाने के कारण कुत्ता के दांतों के मसूड़े फूट जाते हैं, उनमें से जो खून आता है वह उस खून का स्वाद लेता है, किंतु जानता है यह कि स्वाद इस हड्डी से आया है, सो जब दूसरा कुत्ता आ जाये तो उस सर घुर्राता है । कितना भ्रम है कि खुद के मुख के मसूडों से तो खून निकल रहा है और उसी का स्वाद लेता है किंतु भ्रम यह हो गया कि मुझे तो इस हड्डी से स्वाद आ रहा है । इसी प्रकार जगत के सब प्राणी अपना आनंद लेते हैं । अपने में ज्ञान और आनंद के समय उपभोग्य हुए उस पदार्थ में यह भ्रम कर लेते हैं कि मुझे आनंद तो इस पदार्थ से मिला, सो वह इस बाह्य पदार्थ को सुरक्षित रखने का यत्न करता है । सो भैया बाह्य तो बाह्य ही है । उसमें दूसरे लोग भी बाधक बनेंगे, तब चारों ओर क्लेश ही क्लेश हो जायेगा । यदि सत्य मान लिया जाये कि मेरा ज्ञान और आनंद इस आत्मा से प्रकट होता है तो इसको चैन मिलेगा, विश्राम प्राप्त होगा ।
देखो भैया, सब जगह साधन खोजे, आनंद खोजा, अंत में मिला खुद ही सब कुछ । एक पुरुष था, वह जरा व्यसनी था, कोई व्यसन लग गया । उसकी स्त्री ने बहुत समझाया, नहीं माना, तब दो चार दिन खूब सेवा करके स्त्री बोली कि अच्छा एक काम तुम्हारे लिए बताती हूँ, उसे कर लो । देखो यह बटरिया लो, इसकी रोज पूजा कर लिया करो, सिर्फ चौबीस घन्टे को व्यसने का त्याग कर दिया करो । उसने बिना सोचे ही कह दिया कि अच्छा यह काम हम कर लेंगे । तुम्हारे देवता की रोज पूजा कर देंगे और व्यसन का 24 घन्टे का त्याग कर दिया करेंगे । अभी कोई महिमा न आ जाये या आपके त्यागी आ जायें 10 दिन को, उनसे कहें कि आप 10 दिन और ठहर जायें तो वह महिमान व त्यागी नहीं ठहरता है क्योंकि उसे 10 दिन का रहना भार लगता है और एक-एक दिन ठहरा कर 20 दिन भी ठहरा लो । सो यहाँ भी स्त्री ने 24 घंटे को सिर्फ त्याग करना बताया । अब वह रोज पूजा करे और 24 घंटे व्यसन का त्याग कर दे । एक दिन उसने देखा कि इन चावलों को चूहा खा गया । सो सोचा कि यह चूहा तो भगवान से भी बढ़कर है । अब वह चूहा की ही पूजा करने लगा । उस चूहे को बिल्ली ने डराया तो सोचा यह बिल्ली चूहे से भी बढ़ कर है । सो वह उस बिल्ली की पूजा करने लगा । जब बिल्ली को कुत्ते ने खदेड़ा तो उसने समझा कि कुत्ता तो बिल्ली से भो बढ़ कर है । सो वह, कुत्ते की पूजा करने लगा । एक दिन कुत्ता घर की रसोई में घुसने लगा तो स्त्री ने उसके एक बेलन मारा । सोचा अरे ! इन सबसे तो बड़ी मेरी स्त्री है सो वह उस स्त्री को पूजने लगा । सबकी पूजा का ढंग वही करता जाये, घंटी बजा दी और नमस्कार करके चावल चढ़ा दिया अब स्त्री को घमंड हो गया कि मेरी भी पूजा होती है । अब बाद में क्या हुआ? एक दिन दाल में नमक अधिक डाल दिया तो उसने स्त्री को डाटा । तो स्त्री बोली कि क्या हो गया? तुम उसमें पानी डाल कर खा लो । इस पर उसने स्त्री के दो चार तमाचे मारे । तब वह स्त्री रोने लगी । उसने सोचा कि अरे स्त्री से तो बड़े हम ही हैं ।
सो भैया, कहाँ-कहाँ आनंद, संतोष ढूंढ़ते हो? संतोष और आनंद तो मिलेगा अपने में । दुःखी कोई नहीं, जितने ये बैठे हैं और सड़क पर घूम रहे हैं दुःखी एक भी नहीं हैं पर जिद बना ली है, हठ बना ली है उससे ये दुःखी हैं । पर पदार्थों से ही मेरा सुख है, महत्व है, मैं पर को जो चाहे सो कर सकता हूँ । इत्यादि, रूप में हम उनमें जिद्द का परिणाम रखते हैं उसके परिणाम से दुःखी हो रहे हैं । अभी कहा जाये कि छोड़ दो इन विकल्पों को, ये तो तुम्हारे हैं ही नहीं । अरे कैसे छोड़ दें । ये तो हमारे अच्छे हैं । कभी कुछ ज्ञान की ओर मन चला तो कुछ क्षण बाद फिर लौट आता है । तो ऐसी दशा हो गई, जिद हो गई, हठ हो गई कि पर पदार्थों में लगा है, यहाँ सार कुछ नहीं है ।
साधुजन जिसके लक्ष्य से रागादिक विकल्प नष्ट कर देते हैं वही शुद्ध आत्मा मोक्ष का साधक है । इस प्रकार इस शुद्ध आत्मतत्त्व के विषय में यह जगत जानता है कि कोई ईश्वर सृष्टि को रचता है । यही ज्ञानमय आत्मा संसार की सृष्टि को रच रहा है और यही सम्यग्ज्ञान जगने पर शिवसृष्टि को रचेगा । इस रूप में वर्णन करके अब यह बतलाते हैं कि जिस परमात्मा के केवलज्ञान के प्रकाश में यह सारा जगत् बसता है तो भी परमात्मा जगजाल रूप नहीं हो जाता, ऐसा कहते हैं।