वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 46
From जैनकोष
जसु परमत्थे बंधु णवि जोइय णवि संसारु ।
सो परमप्पउ जाण तुहुँ मणि मेल्लिवि ववहारु ।।46।।
इस परमात्मा के परमार्थ से न तो बंध है और न संसार है । संसार का अर्थ है भ्रमण होना । संसार पाँच प्रकार का है―द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार भवसंसार और भावसंसार । इन जीवों ने अनादिकाल से परिभ्रमण करके कितना समय व्यतीत किया है, उस समय को पंच परिवर्तनों के द्वारा समझा जाये तो अनंते पंच परिवर्तन हो जाते हैं । इन परिवर्तनों में सबमें सुगम स्वरूप है क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन व भवपरिवर्तन का । क्षेत्र परिवर्तन के भेद दो हैं―एक तो स्वक्षेत्रपरिवर्तन और परक्षेत्रपरिवर्तन ।
परक्षेत्रपरिवर्तन में―जैसे कोई जीव सूक्ष्म शरीर की अवगाहना लेकर इस लोक के ठीक बीच में उत्पन्न हुआ । इस दुनियां का बीच कहाँ है? मेरु पर्वत की जड़ में । उसके ठीक मध्य में अष्ट प्रदेश हैं, वे इस लोक के मध्य हैं । इन आकाश के प्रदेशों की संख्या बड़ी है, अपूर्ण नहीं, पूर्ण है । आकाश के प्रदेश अनंत हैं अर्थात् जिनका अंत नहीं है इतने हैं फिर भी संख्या पूरी है अर्थात् दो चार छ: आठ ऐसा जिसमें दो का भाग चला जाये इस संख्या में है । तो जो संख्या पूरी होती है उसका बीच नहीं पड़ता है । जैसे चार अंगुली है तो बतलाओ कि बीच की अंगुली कौनसी है? एक अँगुली नहीं बता सकते । 5 में से पूछेंगे तो बीच की एक अँगुली चार का बीच पड़ेगा आठ में बीच पड़ेगा दो और सौ में भी बीच पड़ेगा दो । तो इस आकाश के प्रदेश सर्व तरफ पूरी संख्या में हैं । तो पूर्व और पश्चिम की लाइन में बीच पड़ा दो का । और दक्षिण उत्तर की लाइन में बीच पड़ा दो का । ऊपर से नीचे में बीच पड़ा दो का । चारों और से दो बीच पड़ने में 8 प्रदेश मध्य के माने गये हैं । उन 8 प्रदेशों में यह जीव इस तरह पैदा हो कि इस जीव के बीच जो 8 प्रदेश हैं वे उन 8 पर आ जायें । इस तरह की सूक्ष्म अवगाहना लेकर कोई जीव वहाँ पैदा होकर जितने प्रदेशों को दाबकर इस जीव का देह समाया है इतने ही बार उस ही जगह उतनी अवगाहना लेकर पैदा हो ।
भैया, कोई यह नियम नहीं है कि मरकर यह वहीं व उतनी अवगाहना में पैदा हो । कहीं अन्यत्र जन्म हो जाये उसको गिनती में न लो । कभी उस ही स्थान में पैदा हो तो उसका नंबर दूसरा पड़ जायेगा । जब असंख्यात बार उस जगह पैदा हो ले फिर उसके बाद किसी भी दिशा में एक प्रदेश और बढ़कर पैदा हो, फिर एक प्रदेश और बढ़कर पैदा हो, लोक की उस दिशा में सर्वत्र इस तरह एक-एक प्रदेश बढ़कर उत्पन्न हो ले, फिर अन्य-अन्य दिशाओं में उसी तरह वह उत्पन्न हो ले, इस तरह के क्रम से उत्पन्न हो होकर 343 घन राजू प्रमाण लोक के सर्व प्रदेशों में उत्पन्न हो ले, इसमें जितना समय बीते उतने समय को एक परक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । ऐसे-ऐसे इसने अनंत परक्षेत्रपरिवर्तत व्यतीत किये हैं ।
कालपरिवर्तन को भी समझना सरल है । कोई जीव उत्सर्पिणी काल लगते ही पहिले समय में उत्पन्न हुआ, कहीं भी उत्पन्न हो यह इसका प्रयोजन इस परिवर्तन में नहीं है । बाद में उत्सर्पणी काल आये उसके दूसरे समय में उत्पन्न हो ले । कितनी ही उत्सर्पिणी व्यतीत हो जाये उसके बाद ही सही किसी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में वह उत्पन्न हो । इस तरह फिर किसी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हो । यों एक-एक समय बढ़ाकर सारी उत्सर्पिणी के समयों के क्रम में उत्पन्न हो ले । इसी प्रकार अवसर्पिणी के पहिले समय में उत्पन्न होकर आगे अवसर्पिणियों के क्रमश: एक-एक समय में उत्पन्न होकर अवसर्पियियों के समस्त समयों में उत्पन्न हो ले । इस तरह इसमें जितना काल व्यतीत हो जाये उसे कहते हैं एक कालपरिवर्तन । ऐसे अनंतकाल परिवर्तन इस जीव के गुजर चुके ।
वहाँ कब से यह जन्म लेता चला आ रहा है । अनंते भवों में अनंते कुटुंब हो गये, पर आज इन चार जीवों में जिनका अपने घर में सहवास है उनको मानता है कि ये मेरे सर्वस्व हैं । और, जगत के अन्य जीवों में उसकी दृष्टि ही कुछ नहीं है । यह मोह की सब महिमा है । कुछ भी तो ख्याल किया जाये कि जैसे घर में चार जीव हैं ऐसे ही जीव तो जगत के सब हैं । जितनी तन से सेवा आप घर की करते हैं उतनी सेवा सब जीवों में भी तो कर लो । घर में आपके 500 रु0 चार जीवों में खर्च हो गये तो 500 रु0 अन्य जीवों में भी खर्च करलो । एक तराजू के दोनों पलड़ों पर आपके घर के चार जीव बैठें और दूसरे पलड़े पर बाकी अन्य जीव बैठें तो भी आपकी निगाह में उन चार जीवों का पलड़ा भारी है । उन पर कोई दृष्टि ही नहीं है । कौन से जीव ऐसे हैं जो आपके किसी भी प्रकार कुटुंबी नहीं बन गये हैं? सर्व जीवों में यह परमात्मतत्त्व बस रहा है ।
हम अपने में देखें तो शुद्ध ज्ञायकस्वभाव मात्र के रूप में देखें । दूसरों में भी शुद्धज्ञायकस्वरूप देखें चाहे वे किसी तरह की मलिनताओं से मलिन हो गये हों । हम तो सर्वजीवों में जो अनादि अनंत अहेतुक परमात्मस्वरूप है उसको निहारें । हम जैसी अपनी दृष्टि बनायेंगे उसी प्रकार गुजरेंगे । यदि हम इनकी कषाय परिणति में ही ध्यान रखें तो हममें वैसा प्रभाव होगा और जीव में बसे हुए शुद्ध परमात्मस्वरूप में ध्यान देंगे तो हमें निराकुलता होगी । जैसी हमारी दृष्टि होगी वैसी ही हमारी सृष्टि बनेगी । हम बुरे विचार में होंगे, हम दूसरों के अनिष्ट चिंतवन में होंगे तो हमारा अनिष्ट अवश्य होगा ।
सर्वजीवों के सुखी रहने की भावना में होंगे तो हम भी सुखी हो सकते हैं । यद्यपि हमारे विचार करने के कारण अन्य जीव सुखी नहीं होते । यह तो उनके कर्तव्य के अधीन है किंतु भला विचार करने से हम तो सुखी हो ही गये । आप किसी सभा में किसी के प्रसंग में आप किसी की बड़ाई कर रहे हैं तो आपके खुशी से वचन निकल रहे हैं और किसी की निंदा करने पर उतारू हो जायें तो आपका पहिले ही दिल दुःखेगा, भय होगा, संकोच होगा । और, अपनी कषाय की बुरी परिणति से निंदा के वचन कहे जायेंगे और निंदा की जाने वाले के कानों तक निंदा पहुंचेगी तो वह भी आप से बदला लेने का यत्न करेगा । जितने लोगों के सामने निंदा के वचन कहे हैं उन लोगों की दृष्टि में गिर जायेगा, किंतु किसी भी मनुष्य की प्रशंसा करने में आपको क्लेश नहीं होगा, खुशी होगी । जैसी दृष्टि बनाते हैं वैसा ही अपने आपमें आप गुजर जाते हैं । जैसे अब भादों का महीना आ रहा है, उन दिनों में जैन लोग हरी नहीं खाते, कोई बालक छुप करके ककड़ी खा आये और मुख साफ करके अपने बीच बैठ जाये तो कुछ आपको संदेह हो जायेगा और जब कहेंगे कि यह देखो मुख में किसका बीज लगा है तो वह अपने मुख पर हाथ फेरने लगेगा तब सब लोग जान जायेंगे कि इसने ककड़ी खाई है । जैसी दृष्टि है उसके अनुकूल बाह्य में प्रवृत्ति हो जाती है ।
एक बार चोर चोरी करने जा रहे थे तो रास्ते में एक आदमी मिला और कहा कि भैया कहाँ जा रहे हो? कहा चोरी करने जा रहे हैं । अभी पराया माल एक क्षण में अपना हो जायेगा । तो भैया, हमें भी ले चलो । अब चार चोर हो गये । चोरी करते हुए में उस घर के बाबा की नींद खुल गई, तो तीन चोर तो जल्दी से भाग गये और वह नया सिखा अकेला रह गया । उसे जब कोई जगह न मिली तो घर के ऊपर एक मोटी लकड़ी न्यारी लगी थी उसके ऊपर जाकर बैठ गया । पड़ोस के आदमी आये और बाबा से पूछने लगे कि चोर कहाँ है? किधर से आये? किधर को गये? तो उस बाबा से उन चोरों के बारे में दसों ने दसों बातें पूछी । तो बाबा कहता है कि मुझे नहीं मालूम यह सब तो ऊपर वाला जाने । ऊपर वाले का मतलब भगवान से था । तो ऊपर वाला नया सिखा चोर कहता है कि हूँ, ऊपरवाला ही क्यों जाने? और साथ में जो तीन चोर थे वे क्यों न जानें? देख लो―हुई ना, दृष्टि के अनुसार सृष्टि ।
जैसी दृष्टि हुई वैसी ही प्रवृत्ति हो जाती है । हम जगत में क्या कर सकते हैं? सिवाय इच्छा करने के और कुछ ज्ञान करने के और कुछ नहीं जान सकते हैं । खूब भीतर निहार कर देखो जो जीव है उसकी बात कह रहे हैं । यह सोचना गलत है कि यह मकान बना लेता है, तिजोरी खोल लेता है, अनेकों काम कर डालता है । यह जो मैं आत्मा हूँ यह ज्ञान और इच्छा के सिवाय और कुछ करने में समर्थ नहीं है । ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध है कि इसमें इच्छा होती है और इसके अनुकूल इसमें योग भी चलता है, प्रदेशपरिस्पंद भी होता है और प्रदेशपरिस्पंद होता है तो उसके अनुकूल इस शरीर की वायु चलने लगती है और जैसे ही वायु चलती है वैसे ही अंग हिलते हैं । और हिलते हुए अंगों के बीच में चीज आये तो उसका भी हिलना होता है, निमित्तनैमित्तिक संबंध में प्राकृतिक व्यवस्था में सारे काम हो रहे हैं पर जीव तो केवल ज्ञान और इच्छा ही करता है, अपने परिणाम ही करता है । यह जीव अपने परिणाम को ही करने में समर्थ है तो हम अपने ऐसे परिणाम क्यों न करें जिनके परिणामस्वरूप हमारे भविष्य का परिणाम उज्ज्वल हो । यह बात ज्ञानी विवेकी ही सोच सकते हैं, अज्ञानी मोही को तो इन बाह्य पदार्थों में इतना तीव्र आकर्षण है कि इतना सोचने की उसे फुरसत नहीं है ।
अच्छा 5 प्रकार का संसार है । अन्य परिवर्तनों के लक्षण नहीं बताए जा रहे हैं । भैया, अभी वे जरा कठिन हैं, इसमें भी अभी कुछ भाइयो को हिचकिचाहट होगी और जब द्रव्य परिवर्तन, भावपरिवर्तन का वर्णन सुना जायेगा तो उसका वर्णन तो और कठिन लगेगा । सब परिवर्तनों का सारभूत मर्म यह जान लो कि हमने इस संसार में भटकते-भटकते इतना समय समाप्त किया ।
भव संसार―जैसे कोई जीव नरक गति में सर्वजघन्य आयु लेकर उत्पन्न हुआ, नरक गति में कम से कम आयु होती है 10 हजार वर्ष की । 10 हजार वर्ष की आयु लेकर कोई जीव नारकी बना । 10 हजार वर्षों में कितने समय हैं? एक मिनट में अनगिनते समय होते हैं । 10 हजार वर्ष में जितने समय हैं उतनी ही बार वह 10 हजार वर्ष की आयु लेकर नारकी बन ले । प्रथम तो नरक से निकल कर नरक में जाता नहीं, कभी नरक में भी जाये तो ऐसा निश्चित नहीं है कि फिर 10 हजार वर्ष की आयु लेकर पैदा हो । और-और आयु लेकर उत्पन्न हो तो वह उसकी गिनती में नहीं । फिर कभी 10 हजार वर्ष की आयु लेकर नारकी बन गये । इस तरह 10 हजार वर्ष के समय प्रमाण बार उस आयु में नारकी बने, फिर एक-एक समय बढ़कर दो तीन चार पाँच सागर आदि आयु लेकर यह नारकी 33 सागर तक की आयु लेकर बन जाये, इसमें जितने काल व्यतीत हो जायें उसको कहते हैं एक नरकभवपरिवर्तन । फिर और-और गति होगी उनका उस आयु में ऐसा ही होगा । अब केवल अंदाज करलो, यह अनुमान में आ जायेगा कि मेरा इतना काल संसार में रुलते―रुलते व्यतीत हो गया । तो भैया, यह जीव इस संसार में रुला तो है पर इसका जो सहजस्वरूप है वह स्वरूप नहीं रुला, बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से विचारने की बात है ।
एक भगोना भर पानी में आपने पीला रंग डाल दिया तो पानी पीला हो गया । वह क्या पानी पीला हो गया? पीला तो रंग होता है । पानी तो अब भी ज्यों का त्यों है । और तो क्या भीतर भी उस पानी में पीला रंग विशिष्ट ढंग से समा गया, पर पानी का स्वभाव पीला न हुआ । इस प्रकार इस जगत में चाहे यह जीव कितना ही भटक जाये पर जीव का स्वभाव नहीं भटका । जो जीव का स्वभाव है वही परमात्मतत्त्व है । जैसे औषधियाँ दो तरह की हैं―एक डाक्टरी और दूसरी आयुर्वेद की । डाक्टरी दवा तुरंत काम करती है ऐसा लोगों का ख्याल है और देखा भी जाता है किंतु यह भी बताते हैं कि तुरंत कार्य करने वाली डाक्टरी दवा से रोग तो उस समय दूर हो जायेगा पर मूल से नष्ट नहीं होगा । डाक्टरी दवा का नाम दवा है जो रोग को दबा दे, भीतर से दबा दे और आयुर्वेद की औषधि महीने भर में काम करती है पर उस रोग को मूल से निकाल देती है ।
इसी तरह इन्सानियत की धुनि में रहकर नैतिक सदाचार की बात बनाना और प्रसारण करना यह एक डाक्टरी दवा जैसा काम है । और अपने आपके सत्यस्वरूप परमात्मतत्त्व की अनुभूति के कारण जो नैतिक सदाचार बनेगा वह उफान का काम नहीं होगा, इससे च्युति नहीं हो सकती । यह मौलिक सदाचार किसी आयुर्वेदिक औषधि की तरह विकारभाव को मूल से उखाड़ डालता है जब कि आत्मानुभूति के बिना फैलाये हुए इन्सानियत के आचरण के कारण आत्मा के विकार भाव मूल से नष्ट नहीं होते, या तो हममें यह भाव रहता है कि हम समाज में बड़े कहलाते हैं इसलिए ऐसा ही कहना योग्य है, कदाचित् क्षणिक वैराग्य के वे आचरण भी बन जाते हैं तो उनका भविष्य में टिका रहना कठिन है । किंतु आत्मस्पर्श करने वाले जीव को आचरण की ओर प्रेरणा होगी तो वह मूल से, प्रारंभ से सदाशय से उसकी प्रेरणा होगी । जिसके जाने बिना इस जीव को 5 प्रकार का संसार बनता चला आया है, उसका परमार्थ से बंध नहीं होता । स्वभाव से देखने पर न बंध है, न संसार है । वह तो सर्वदोषरहित है । यह सब विचार कर यह एक मुमुक्ष स्वभाव दृष्टि में जाता है ।
अच्छा देखो गर्म पानी है । आप से पूछें कि यह पानी गर्म है कि ठंडा है? उत्तर क्या होगा कि यह पानी गर्म भी है और ठंडा भी है । ठंडा है, तो क्या पी जाओगे? अरे जीभ जल जायेगी । पीने के लिए पर्याय का ठंडा पानी चाहिए । वह गर्म जल ज्ञानी को स्वभाव दृष्टि में ठंडा समझ में आ रहा है कि जल तो ठंडा है । अग्नि के संबंध से इसमें गर्माहट है । कुछ देर अलग रख दो, सब गर्मी स्वत: ठंडी हो जायेगी । जैसा है वैसा ही रहेगा, ऐसी स्वभाव की दृष्टि करने वालों को उस गर्म पानी में ठंडापन नजर आ रहा है । पर्यायदृष्टि में कोई ठंडा माने तो पीकर अनुभव कर ले । इसी तरह हम आप सबके सहजस्वरूप की दृष्टि में प्रभु है परंतु पर्याय की दृष्टि से काम ले तो हमारे अपने आपके प्रभु पर संकट है ही । और, जब तक पर्यायबुद्धि रहेगी संकट तो आयेंगे ही । इन संकटों से मुक्त होने के लिए आचार्य देव ने यह दृष्टि दी है कि हम अपने आपमें ही उस गुप्त स्वरूप को खोज लें । यह चीज कठिन है, रहने दो, कठिन ही सही, किंतु सारी जिंदगी भी यत्न करने के बाद यदि अंत समय में भी इस अपने आपके गुप्त, सुरक्षित इस ऐश्वर्य स्वरूप का अनुभव हो जाये तो सदा के लिए संकट चले जायेंगे । तभी तो हमारा यह ज्ञानार्जन का श्रम सफल है । हम यदि ज्ञान का अर्जन नहीं करते तो हम कैसे सफल हो सकते हैं । दुकान चलाने के लिए बड़ा परिश्रम करते हैं, आयोजन करते, व्यवस्था बनाते, सजावट आदि बड़े-बड़े प्रोग्राम बनाते, पर अपने ज्ञानार्जन के लिए, आत्महित के लिए क्या करते हैं सो विचार कीजिये ।
साधु के पास जाने से भी अनेक भाई डरते हैं कि कहीं चक्कर में आकर नियम न ले बैठें । साधुजनों का तो कर्तव्य है कि हित-अहित का उपदेश दे देवें, नियम लेना न लेना तो स्वहितैषी की निजी बात है । आर्षग्रंथों के ज्ञान में उपयोग दौड़ाते, स्वाध्याय भी करते, किंतु अल्मारी खोली, पुस्तक खोली, किसी भी जगह खोलकर पढ़ने लगे, कोई लक्ष्य ही न रखा, यह न होना चाहिए । किसी ग्रंथ का स्वाध्याय करो तो क्रम से मनन करो । भैया, ज्ञानार्जन के लिए हमारी आपकी धुनि होना चाहिए । जितना स्वाध्याय करें बाँच कर फिर ग्रंथ बंद करके तुरंत उसे जितना बन सके मुहजबानी दुहारा लें । ऐसे प्रयोग से ज्ञानार्जन में चलें तो कभी यह ज्ञानार्जन फिट बैठ जायेगा ।
एक बाबूजी ने कुम्हार को एक पायजामा इनाम में दे दिया । पायजामा का मतलब पा और जामा, अर्थात् जिसमें पाँव जम जाये । अब कुम्हार उसे कमर में लपेटे तो फिट न बैठे, एक बार उसने पैर डाल दिया तो पैर डालते ही कुछ फिट होने लगा, फिर दूसरा पैर डाल दिया, लो पूरा फिट बैठ गया । तब कुम्हार ने समझा कि यह यहीं फिट होने वाली चीज है । सो हम ज्ञान के लिए श्रम करते हैं किंतु अभी ये समय, व्रत, तप, पूजा, स्वाध्याय आदि फिट नहीं बैठ रहे, फिट बैठने की निशानी शांति है, सो नहीं मिली । किंतु, घबड़ाने की बात नहीं, धैर्य पूर्वक धर्मपालन में लगे रहो कभी तो यह उद्यम फिट बैठ ही जायेगा । जब फिट होगा तब बेड़ा पार है । ज्ञान का उद्यम करे तो फल उसका अच्छा होगा ।
किसी भी पदार्थ का स्वरूप यथार्थतया तब जाना जा सकता है जब कि उस पदार्थ के अस्तित्व के ही कारण बिना किसी दूसरे के संबंध के अपने आप जो कुछ पाया जाता है उसे समझें । अपने आपको अपनी सत्ता के कारण जैसे कुछ हो सकता है उस रूप में निरखें । यह आत्मा ज्ञानाभावस्वरूप है । हम इसकी यदि स्वरूप में उपासना करें कि यह मैं मात्र ज्ञानस्वरूप हूँ, जाननमात्र हूं; जानन का जो स्वरूप है उसको लक्ष्य में लेकर जाननमात्र ही अनुभव करें तो हमें इस परमात्मा का अनुभव हो सकता है । तो इस आत्मा का शुद्ध स्वरूप ज्ञानदर्शन और आनंद स्वभाव का है । और, जब यह स्वभाव प्रकट होता है तो केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनंत आनंद और अनंतशक्ति प्रकट होती है । जब तक यह जीव संसार में है तब तक इसके प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध स्थितिबंध व अनुभागबंध, ये चारों बंध चलते हैं यह बंधन क्या है? इसे एक दृष्टांत के आधार पर निरखिये ।
जैसे भोजन पेट में पहुंच गया तो अब भोजन में चार बातें होने लगती हैं । यह भोजन किस प्रकृति को उत्पन्न करे अर्थात् भोजन का यह अंश लोहू आदि बनेगा, यह उस भोजन में प्रकृति बन जाती है । उससे हड्डी, मूल मूत्र इत्यादि बन जाते हैं । इस भोजन का अश इस शरीर में 6 महीने तक रहेगा, जो मलरूप अंश है वह भी 8 घंटे तक रहेगा, जो मूत्ररूप अंश है वह भी तीन घंटे तक रहेगा । तो इस प्रकार उस भोजन की प्रकृति भी बन जाती है और स्थिति भी बन जाती है । और भोजन के प्रदेश तो हैं ही । अनुभाग देखें तो भोजन की वीर्यरूप परिणति शक्ति है, उसमें अनुभाग सर्वाधिक है, जो हड्डी बनी इसमें अनुभाग कम है, और जो मल बना उसमें शक्ति उससे भी कम है, जो मूत्र बना उसमें शक्ति उससे भी कम है और जो पसीना बना उसमें शक्ति उससे भी कम है । तो भोजन में नाना शक्तियाँ भी बन जाती हैं । यों भोजन में प्रकृति स्थिति, प्रदेश व अनुभाग हो गया ।
इसी प्रकार यह जीव कषाय अग्नि में जलता है तो वहाँ उसके कर्मबंध होता है । और, उस कर्मबंध में चार बातें बन जाती हैं । यह कम ज्ञान को घातेगा, यह कर्म दर्शन को घातेगा, यह कर्म सुख-दुःख का कारण बनेगा, यह कर्म शरीर में जीव को रोके रखने का काम करेगा, यह कर्म शरीर की रचना बनायेगा, यह कर्म ऊँच-नीच कुल बनायेगा, और यह कर्म दान लाभादि में विघ्न करेगा यह प्रकृति बन जाती है और साथ ही स्थिति बन जाती है । यह कर्म करोड़ों वर्ष रहेगा यह कर्म हजारों सागरों तक रहेगा ऐसी स्थिति पड़ जाती है । प्रदेश अर्थात् परमाणु तो वहाँ है ही । उनमें अनुभाग शक्ति भी पड़ जाती है । यह कर्म इतने दर्जे में बँधा रहेगा, यह इतना ज्यादा सतायेगा, यह उससे कम सतायेगा तो इस प्रकार 4 प्रकार के बंध पड़ जाते हैं । और, मोक्ष में चार अनंतचतुष्टय प्रकट हो जाते हैं ।
अब इन सब अवस्थाओं में प्रभु को देखो―जिस ज्ञानस्वरूप परमात्मा के ये चार बंध नहीं हैं, हे प्रभाकर भट्ट ! तुम व्यवहार को छोड़कर ऐसे परमात्मा को जानो । जानन होता है रागद्वेषरहित निर्विकल्प समता परिणाम में ठहरने से, परम विश्राम लेने से । जैसे मिश्री का स्वाद या मिठाई का विशद जानन होता है मुख में रखकर चबाने से । इसी तरह परमात्मा का जानन होता है रागद्वेष रहित निर्विकल्प समता का उपयोग करने से । शुद्धात्मा के अनुभव से विपरीत जो संसार और बंधन है, उनसे जो रहित है ऐसा यह परमात्मतत्त्व अनुभूत होने से मोक्ष का साधक होगा, वही यह उपादेय है । हमने जन्म पाया है, कभी बच्चे थे, जवान हुए, फिर बूढ़े होंगे । और जब इन अवस्थाओं को छोड़ेंगे तब अपने करने लायक काम क्या है? जो सार है, शरण है वह केवल एक है अपने आपके घट में विराजमान अनादि अनंत अहेतुक असाधारण ज्ञान स्वभाव है, इसका विशुद्ध अनुभव करें बस यही काम हमारे लिए सार है और शरण है ।
अब आगे यह बतलाते हैं कि जब यह आत्मा शुद्ध हो जाता है, विषय कषाय के परिणामों से रहित हो जाता है तब इस अपने आत्मा का ज्ञान कितना फैलता है? जितना कि जगत में समस्त ज्ञेय पदार्थ है उतना फैलता है । जैसे कोई लता कहीं बैठ तो सकती नहीं, उसे किसी लकड़ी आदि का सहारा लेना पड़ता है । लता को जहाँ तक काँटों का, पेड़ का सहारा मिलता है वहाँ तक फैलती जाती है । इसी प्रकार यह ज्ञान ज्ञेय को विषय करता है इस कारण जहाँ तक इसको ज्ञेय मिलता है वहाँ तक यह ज्ञान फैल जाता है । दुनियाँ में सबसे बड़ी क्या चीज है? ज्ञान । ये जितने पुद्गल हैं व अन्य समस्त द्रव्य हैं वे सब ज्ञान के एक कोने में समाये हैं । ज्ञान के अविभागी प्रतिच्छेद अर्थात् जानने की शक्ति के अंश उसमें अनंत हैं । इस ज्ञान में धर्मादिक समस्त अजीव अमूर्त पदार्थ और अनंतानंत पुद्गल ये सब ज्ञान में डूब गये और जितने अनंते जीव हैं वे सब भी इस ज्ञान में आ गये हैं । ऐसे असीम शुद्ध ज्ञानमय अनंत परमात्मा समस्त लोक को जानते हैं । ऐसे-ऐसे समस्त परमात्माओं का ज्ञान भी प्रत्येक में समाया हुआ है । और फिर इस लोक के बाहर जो है वह सब इस ज्ञान में समाया हुआ है । इतना सब कुछ ज्ञान में समाया हुआ भी ज्ञान अब भी निरंतर भूखा रहता है कि ऐसे-ऐसे अनंत लोक भी हों तो उसका पेटा न भरे तो ज्ञान समस्त ज्ञेयों से बड़ा है । यह ज्ञान जहाँ तक ज्ञेय मिलता है वहाँ तक फैलता है । जब यह ज्ञेय नहीं मिला तो अपने आप थम जाता है । पर ज्ञान जो असत् को नहीं जानता सो ज्ञान की शक्ति कम है इसलिए नहीं जानते, यह बात नहीं है, किंतु ज्ञान का विषयभूत ज्ञेय नहीं मिला तो वह थम जाता है । इस ही बात को इस 47 वें दोहे में कह रहे हैं ।