वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 47
From जैनकोष
णेयाभावे विल्लि जिमि थक्कइ णाणु वलेवि ।
मुक्कह जसु पय विंवियउ परमसहाउ भणेवि ।।47।।
जैसे मंडप के अभाव में कोई जो बाँस का मंडप छा देते हैं उस मंडप के बराबर बेल बढ़ जाती है, आगे नहीं बढ़ती है इसी प्रकार ज्ञेय के अभाव से यह ज्ञान ठहर जाता है पर यह नहीं कि इसके जानने की शक्ति कम है इसलिए केवल लोक और अलोक को जान पाता है और कुछ नहीं जान पाता है । हम अपनी सामर्थ्य को भूल गये हैं इसलिए विषयों में हम रम जाते हैं । शक्ति तो हममें अनंत है ।
जैसे कोई शेर का बच्चा छोटी उम्र का हो, गडरिये को मिल जाये और वह अपनी भेड़-बकरियों के बीच में उस बच्चे को पाले-पोसे तो उस शेर के बच्चे को यह ख्याल हो जाता है कि भेड़-बकरी जैसा ही मैं हूँ, और वह अपनी शक्ति को भूल जाता है । कुछ बड़ा होने पर जैसे गड़रिया जंगल में भेड़-बकरी ले जाता था तो उस बच्चे को भी ले जाता था । एक दिन उस शेर के बच्चे ने देखा कि दूसरे शेर ने दहाड़ मारी, जिसकी दहाड़ मारने से बकरी और गड़रिया दूर हो गये । दहाड़ से दहाड़ का मुकाबला किया और यह निश्चय किया कि ऐसी ही अद्भुत शक्ति हममें भी है सो उसने भी दहाड़ का प्रयोग किया तब गड़रिया और भेड़-बकरी ये भी सबके सब दूर हो गये । इसी प्रकार हम संसार के मोही जीव भ्रम में अनादि से पले हुए अपनी अनंत शक्ति को भूल गये हैं और ऐसा अंदाज कर रहे हैं कि स्त्री, पुरुष और धन है तो हमारा गुजारा है अन्यथा गुजारा नहीं । इतना धन है, इतनी आय है तो हम लोगों का गुजारा भी है । भ्रम करने से इतनी हीन दशा हो गई है । शक्ति तो हम और आप में इतनी ही है जैसी की अरहंत और सिद्ध में ।
भैया, ज्ञान स्वभाव इस आत्मा का भी है और प्रभु का भी है । जैसे टंकोत्कीर्णवत् निश्चल प्रभु है वैसा ही मेरा स्वरूप है । मेरा भी ज्ञान स्वभाग निश्चित रहता है, चलित नहीं होता । जैसे कि मूर्ति का अंगप्रत्यंग हिलता-डुलता नहीं है । दूसरी बात जैसे टाँकी से उकेरी गई प्रतिमा में कारीगर कहीं दूसरी चीज को मिलाकर जोड़कर, संचय करके नहीं बनाया । वह मूर्ति तो उस पत्थर में पहिले भी थी अर्थात् मूर्ति की अवस्था में निकला हुआ जो अंश है वह अंश तो उस पत्थर में ही था । उस अंश को ढकने वाले जो अगल-बगल के पत्थर थे, कारीगर ने उन पत्थरों को हटाकर वह प्रतिमा बनाई । वह मूर्ति कारीगर ने नहीं बनाई, वह अंश तो वहाँ था । उसको ढकने वाले पत्थरों को कारीगर ने हटाया और वह मूर्ति वहाँ पर प्रकट हुई ।
इसी प्रकार यह परमात्मस्वरूप अरहंत सिद्धस्वरूप हम और आपमें मौजूद है । जानने वाला जान सकता है । किंतु परमात्मा को जानने के लिए क्या करें? उस परमात्मतत्त्व को कहीं बाहर से लेकर कुछ बनाया जायेगा या मुझमें से निकल कर ही मुझमें आयेगा । किस तरह आयेगा? यह मेरा परमात्मस्वरूप कहीं बाहर से नहीं आयेगा । यह मुझमें ही स्वभावरूप से बसा हुआ है । पर दिखता क्यों नहीं । यह मूर्ति जो आज हम देख रहे हैं कई वर्ष पहिले भी ये अवयव बड़े पाषाण में थे जब कि यह मूर्ति नहीं दिखती थी । यह इस कारण नहीं दिखती थी कि मूर्ति के ढकने वाले पत्थर घने रूप में ढके हुए थे । इसी प्रकार यह परमात्मस्वरूप हमें दृष्ट नहीं होता इसका कारण यह है कि परमात्मस्वरूप को ढकने वाले विषय कषाय चिपके हुए हैं । यह विषय कषाय का आवरण जीव का साक्षात महान् आवरण है, कर्मों का तो पता ही नहीं है । इन 8 कर्मों का हम पर साक्षात् आवरण नहीं है, हम पर आवरण तो साक्षात् रागद्वेष विकल्प का है । वे कर्म तो इन रागद्वेषों को उत्पन्न करने के निमित्त कारण हैं । तो जब हम इन विषय कषायों की प्रज्ञा की छेनी से, भेदविज्ञान की छेनी से, प्रज्ञा का ही हथौड़ा मार कर हटा देंगे तो यह परमात्मतत्त्व प्रकट हो जायेगा ।
हम खुद विचार करें कि ये विषय कषायों के परिणाम क्यों हुए? अच्छा जरा खोज करें कि जगत में सबसे अपवित्र चीज क्या है? गाय का गोबर सबसे खराब होगा? गधे की लीद होगी, उससे भी खराब चीज मनुष्य का मल होगा । इससे भी बुरा क्या होगा? अरे नाली में बास देने वाला जो गंदा पानी है वह खराब होगा, माँस, पीप खराब होगा । खैर खराब है ये, मगर अपनी करतूत पर ध्यान दो कि इन पदार्थों को गंदा हमने किया है । ये पदार्थ खुद गंदे नहीं । इन पदार्थों का मूल आहारवर्गणायें हैं । याने शरीर की वर्गणायें हैं । इन्हें जीव पूर्वभव से आकर ग्रहण करता है तब इनका बढ़-बढ़ कर यह दृश्यमान रूप बनता है । शरीर को ग्रहण करने के पहिले ये आहार वर्गणायें, शरीर के स्कंध बहुत पवित्र थे, साफ थे । किंतु इन मोही जीवों ने इन आहार वर्गणाओं को ग्रहण किया तो वह मांस, खून, मल, मूत्र बन गया । यहाँ फिर जीव इस शरीर को छोड़कर अन्य शरीरों में पहुंचे तो ये शरीर सड़ गये । तो इन गंदगियों का मूल कारण तो मोही जीव हुआ ।
एक लड़के का पैर यदि भिष्टा में पड़ जाये तो लोग उसे नहीं छूते । और, वह लड़का दूसरे को छू लेता है तो लोग उस दूसरे लड़के को भी नहीं छूते और दूसरा लड़का अगर तीसरे लड़के को छू लेता है तो लोग उस तीसरे लड़के को भी नहीं छूते । ऐसे मानो 10 लड़के खराब हो गये तो यह तो बतलाओ जरा कि ये 9 लड़के क्यों खराब हो गये? उनका कारण मूल एक लड़का है । वे 9 लड़के तो संग में खराब हुए । इसी प्रकार ये सब मूलभूत पुद्गल हैं । नाली का सड़ा जो कीचड़ आदि है वह तो एक भिन्न पदार्थ है और उससे सब लोग नाक सिकोड़ते हैं । ठीक है किंतु यह भी तो पहिचानो कि उनको गंदा करने वाला यह मोही जीव है ।
इस मोही जीव ने शरीर धारण किया, कीड़े-मकोड़े की जिंदगी आने लगी । जीव के रहने पर ही यह मल और मूत्र बनता है, जठराग्नि और शरीर का ऐसा ही संबंध है । किंतु यह जठराग्नि कैसे हो गई? तैजस शरीर के संबंध से और यह तैजस शरीर कैसे हो गया? तैजस नामकर्म के उदय से । तैजस शरीरनामकर्म कैसे आ गया? इस मोहीजीव के राग, द्वेष, मोह के परिणाम के निमित्त से । तो मूल में फिर गंदा कौन रहा? यह मोही जीव ही बुरा है । ये मल, मूत्र तथा सड़े कीचड़ आदि पुद्गल गंदे नहीं हैं । इनको गंदा करने वाला यह मोही जीव है । सो यह जीव भी गंदा नहीं किंतु इस जीव में जो रागद्वेष भाव हैं वे गंदे हैं । सबसे गंदा है राग, द्वेष, मोह जिनके कारण ये पुद्गल स्कंध गंदे हो गये ।
जीव में विपत्ति और संकट रागद्वेष मोह से होते हैं । उन क्लेशों को मिटाने के लिए हम राग का उपचार करते हैं । सो भैया, सोचो जरा, खून का दाग क्या कभी खून से धुल सकता है? राग के कारण होने वाली पीड़ा में राग करता है, तो क्या राग की वेदना राग से मिट जायेगी? नहीं मिटेगी । परंतु देखो, इन समस्त जीवों को कि ये ऐसा ही उपाय कर रहे हैं, खोटी मान्यता से, ममताभाव से हुई वेदना और उस वेदना को मेटने के लिए ममता करते हैं, राग करते हैं । इस उल्टे उपाय को जिनका भवितव्य अच्छा नहीं है, वे करते रहते हैं । जिनका भवितव्य उत्तम हो उनको ही यह बात सूझती है कि राग को, वेदना को मेटने के लिये राग का यत्न न करें । इस मन को संयत करें, मन के बहकावे में आकर जैसी चाह हो वैसी प्रवृत्ति न करें । यह पाप बड़ा चालाक है । यह धर्म का नाम ले-लेकर जगत में अपना तांडवनृत्य करता है और धर्म को बदनाम करता है।
जैसे एक कथानक है कि एक किसान के तीन बैल थे, वह दो बैलों से तो खेत का काम लेता और एक बैल को घर के भीतर भींट के पास बाँध जाता था । उस भींट में एक अलमारी थी सो जो कुछ भोजन वह बनाये उसे अलमारी में रख जावे । किवाड़ बंद करके साँकल लगाकर चला जाये । एक बंदर रोज आता था, वह धीरे से खोलकर सब दाल-रोटी खाकर थोडीसी दाल-रोटी बैल के मुँह में लिपटाकर चला जाता था । जब किसान आता तो उसका मुख दाल से भीगा देख कर पीटे यह सोच कर कि यही दाल-रोटी खाता है । 10 दिन यह क्रम चला फिर एक पड़ोसी ने टोका । इसे क्यों मारते हो भैया? किसान बोला कि देखते नहीं, यह रोज-रोज खाना खा जाता है । भैया, यह इस अलमारी के किवाड़ कैसे खोल सकता है? मुझे तो इसका मुख दाल से भीगा हुआ रोज नजर आता है । उसने कहा कि उसे मत पीटो । छुपकर देखो कोई और बात होगी । किसान ने दूसरे दिन छुपकर देखा । क्या देखा? एक बंदर आता है और अलमारी के किवाड़ खोलता है, दाल-रोटी सब खा लेता है और खा चुकने के बाद बैल के मुख में लिपटा जाता है । किसान ने यह देखकर फिर आगे कुछ भी किया हो । इसका तात्पर्य यह है कि जैसे चालाक बंदर बैल का नाम लगाकर खुद दाल-रोटी रोज खाता था इसी तरह यह चालाक पाप धर्म का नाम लगा कर कितने उपद्रव करता है? लोग कहते हैं कि हरिद्वार में यह अमुक जगह में बड़ा गंदा वातावरण है, साधु लोग स्त्री को हर लेते हैं, या धन लूटते हैं इस धर्म के कारण भारत बरबाद हो गया । कहें, पर धर्म के कारण भारत बरबाद नहीं हुआ, इस पाप ने धर्म की ओट करके ऊधम मचाया है उससे देश बरबाद हुआ है । धर्म का स्वरूप तो स्वच्छ ज्ञानानंदमय है । भैया, शुद्ध चैतन्य इस परमात्मतत्त्व को निहारो, इस धर्म में ही वह सामर्थ्य है कि इस शुद्ध तत्त्व के प्रसाद से भव-भव के कर्म छूट जाते हैं ।
जिस परमात्मा के ये बंधे हुए कर्म यद्यपि सुख-दुःख को उत्पन्न करते हैं तो भी वह परमात्मतत्त्व न तो उत्पन्न किया जाता है और न नष्ट किया जाना है । इस अभिप्राय को ध्यान में ले करके इस सूत्र को श्रीयोगींद्र देव कहते हैं:―