वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 50
From जैनकोष
किवि भणांति जिउ सब्बगउ जिउ जडु के वि भणंति ।
किवि भणंति जिउ देहसमु सुण्णुवि केवि भणंति ।।50।।
कोई पुरुष तो इस जीव को सर्व व्यापी मानते हैं । एक ही जीव है वह सारे लोक में व्याप्त है ऐसा मानने वालों की बात बिल्कुल गलत नहीं है । यह भी एक नय-दृष्टि मिश्रण का सिद्धांत है । केवल एक नय का सिद्धांत नहीं है और न सापेक्षनय का सिद्धांत है । जैसे इतनी तो बात है ही कि इस लोक में सर्वजीव ठसाठस भरे हैं । यहाँ जो पोल दिख रही है इसमें भी बराबर भरपूर भरे हुए हैं । तो यह लोक जीवों से व्याप्त है ही । इस जीव ने भिन्न-भिन्न सतों पर दृष्टि न देकर जीव के स्वरूप पर दृष्टि दें तो जीव का स्वरूप क्या है? चैतन्यस्वभाव । चैतन्य स्वभाव लंबा होता है कि मोटा होता है? बता सकते हो? चैतन्य स्वभाव को क्या बतलायें कि वह कितना लंबा चौड़ा है । चैतन्यस्वभाव का क्षेत्र नहीं होता । और जीव का स्वरूप है चैतन्यभाव । तो चैतन्यभाव की दृष्टि से देखें तो सब कुछ एक ही समझ में आया तो सर्वव्यापकता की बात तो पहले भी भरी हुई ही थी, अब जीव के एकत्व की दृष्टि और जुड़ गई । तो यहाँ यह मतलब निकला कि यह जीव सर्वव्यापी है ।
सर्वथा सर्वव्यापी एक जीव को मान लेने पर आगे एक समस्या आती है कि एक जीव तो सर्वव्यापक है किंतु यहाँ सामने एक भिन्नता जो नजर आ रही है कि आप अलग हैं, हम अलग हैं, ये अलग हैं, हम आपकी बात नहीं समझ सकते और ये हमारी बात नहीं समझ सकते, यह भिन्नता नजर आ रही है । इस भिन्नता का क्या मतलब है? तो उसका उत्तर उन्हें अन्य प्रकार से देना पड़ता है कि जैसे समुद्र का जल एक है पर उस जल को भिन्न-भिन्न घड़ों में भर दिया तो उसकी सीमा हो जाती है कि यह घड़े का जल है, यह टंकी का जल है किंतु यह दृष्टांत तो यहाँ घटता ही नहीं क्योंकि जो समुद्र का लबालब भरा हुआ जल है वह एक नहीं है । एक वह है जिसके टुकड़े न हों । यदि कहीं अलगाव हो जाता है तो समझो कि वहाँ अनेक चीजें थीं । जो कुछ यह आगे आ गया है कुछ वहाँ रह गया है । वह जल एक नहीं है किंतु उसका जो अविभागी बूंद हो उसको एक मानकर बोलें ।
यदि यह सारा जीव प्रदेशत: भी एक है तो फिर देह में आने का अर्थ यह होगा कि जीव का अंगूठे का हिस्सा आपमें है, छिगुली का हिस्सा इनमें है । एक-एक हिस्सा बंटवारे में बैठेगा क्या? नहीं, प्रत्येक जीव परिपूर्ण है, कोई अधूरा नहीं है । तब इसका समाधान क्या है? स्वभाव दृष्टि में जीव एक है किंतु अर्थक्रियाकारिता की दृष्टि में जीव अनेक हैं । जैसे हजारों मनुष्य बैठे हैं तो मनुष्यपने की दृष्टि से सब एक हैं किंतु कर्म करने की दृष्टि में सब भिन्न-भिन्न हैं, तो कोई पुरुष मानता है कि यह जीव सर्वगत है और कोई यह मानता है कि यह जड़ है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु का संयोग होने से एक जीव तत्त्व प्रकट हो जाता है । अनुभव व युक्ति से निरखो जड़ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु से यह जीव कैसे उत्पन्न हो सकता है । उसके संयोग से तो जड़ ही निकलेगा । अपने आपका अनुभव स्वयं कर सकते हैं इसके लिए हमें अपना पूरा ज्ञान करना चाहिए ।
कोई पुरुष मानते हैं कि यह जीव देहगत है । जितनी देह है उतने में ही बसने वाला है, और कोई पुरुष मानते हैं कि यह शून्य है याने जीव कुछ ही नहीं, मात्र कल्पना से इसे जीव मान लिया गया है । कोई इसे शून्य बोलते हैं, कोई इसे जड़ भी बोलते हैं । वे लोग कहते हैं कि जीव का लक्षण चैतन्य स्वरूप है और चैतन्य ज्ञान नहीं करता किंतु ज्ञान का जब चैतन्यमय संबंध होता है तब यह जीव ज्ञान करता है, स्वयं तो जड़ कहलाता है । इस चैतन्य में ज्ञान का समवाय है तो जो कोई ज्ञान से भी भिन्न अपने आपको समझता है, वह ज्ञानी कहलाता है, वह मोक्षमार्गी है? अब जरा इस पर विचार तो करें हम अपने में क्या अनुभव करें? जो सहज स्वरूप है वही तो अनुभव में आना चाहिए । मैं जड़ हूँ ऐसा अनुभव करने पर कुछ अनुभव भी नहीं होगा । पर ज्ञानस्वरूप हूँ, जाननमात्र हूँ, राग द्वेष की तरंगे मैं नहीं हूँ, जाननमात्र केवल मैं हूँ, ऐसे जाननस्वरूप का अनुभव करें तो आत्मा का यथार्थ अनुभव होता है ।
भैया, कल्याण सब चाहते हैं, शांति आनंद की सबको उत्सुकता हैं । अगर आनंद और शांति परिवार में मिलती हो तो कुछ बात नहीं है । आनंद ही तो चाहिए । आनंद मिले तो परिवार से आशक्ति कर लो । वहीं धर्म हो जायेगा, पर निर्णय तो कर लो कि क्या मिलता भी है आनंद परिवार आदि पर वस्तुओं से? किसी दूसरे पदार्थ के आश्रय में थोड़े समय तक काल्पनिक मौज मिलती है सो कषाय से कषाय मिले तो वह क्षणिक मौज हो, सो यह हो नहीं सकता । और इस प्रकार जब मिलेगा भी तो वहाँ भी क्षोभ है, संक्लेश होगा । तो न परिवार से आनंद है और न धन से आनंद है । इसी कारण ये तीर्थंकर, रामजी, हनुमानजी, भरतजी आदि इसी कारण सबसे आगे गये, सर्व आनंदनिधान निजपरमात्मतत्त्व के आलंबन में रहे, देखो हमारे पुराण की पद्धति यह है और उनके हम पूत होकर उनके मार्ग से विपरीत चल रहे हैं पर वस्तुओं में विमूढ़ हो रहे हैं । यह कितने कुमार्ग की और विषाद की बात है ।
हम कर नहीं सकते हैं, ठीक है, न करें, किंतु श्रद्धा तो हमारी स्पष्ट रहे कि परद्रव्यासक्तिरूप कुमार्ग से हमारा हित नहीं है । अगर श्रद्धा सही होगी तो आकुलता नहीं होगी । और श्रद्धा विपरीत है तो आकुलता अवश्य होगी । अपने-अपने आत्मतत्त्व के संबंध में और कल्याण के लिए इतनी तो दृढ़ता रखनी ही चाहिए कि मैं सर्व पर से न्यारा हूँ, जो कुछ कर सकता हूँ अपने में कर सकता हूँ, अपने के लिए कर सकता हूँ, अपने में कर सकता हूँ । मेरा कुछ भी काम मेरे से बाहर नहीं होगा । जो विकृत कार्य होता है वह सब निमित्तनैमित्तिक भाव की बात है । इस प्रकार इसमें 4 प्रकार के प्रश्न किये गये हैं क्या आत्मा सर्व व्याप्त है? क्या आत्मा देहप्रमाण है? क्या आत्मा जड़ है? क्या आत्मा शून्य है? इन्हीं चार प्रश्नों के स्वीकार रूप आगे के दोहा में सिद्धांत स्थापित करते है:―