वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 51
From जैनकोष
अप्पा जोइय सव्वगउ अप्पा जडुवि वियाणि ।
अप्पा देहपमाणु मुणि अप्पा सुण्णु वियाणि ।।51।।
श्री योगेंद्र देव कहते हैं कि तुम्हारे जो 4 प्रश्न हैं वे प्रश्न नहीं, सिद्धांत हैं । आत्मा सर्वव्यापी है, आत्मा जड़ भी है, आत्मा देह प्रमाण भी है व आत्मा शून्य भी है । चारों बातों के मानने की गली मिल जाने पर दोष नहीं है । कैसे दोष नहीं है? इसको आगे सिद्ध करेंगे । वस्तु के यथार्थ-जानन की विधि स्याद्वाद है, और सभी लोग अपने ज्ञान के लिए स्याद्वाद का उपयोग करते हैं, चाहे वे स्याद्वाद को मानते हों या न मानते हों किंतु स्याद्वाद का उपयोग सबके जीवन में चलता है । किसी का परिचय पाते हैं कि यह भाई कौन है? ये वकील साहब हैं, ये लालाजी हैं, इन्हीं एक के बारे में बता रहे हैं । ये अमुक के पिता हैं, अमुक के पुत्र हैं, अमुक गांव के निवासी हैं आदि आदि, पर क्या वे 10 बातें गलत हैं? नहीं । वे सब सही हैं । उन दसों बातों को जानने पर उस वस्तु का पूरा ज्ञान होता है ।
प्रत्येक पदार्थ द्रव्य क्षेत्र, काल भाव से जाना जाता है । जैसे यह चश्माघर है, द्रव्य में यह है जैसा कि आप लिए हुए हैं, पिंडरूप । क्षेत्र उसका वह है जितने प्रदेश में घेरे हुए हैं । प्रदेश जितने में होते हैं वह उसका क्षेत्र है । इसका काल वह है जो नया पुराना कुछ भी परिणमन है, और जिसमें जो भी शक्ति है वह भाव हुआ । यह भाव दो प्रकार से निरखा जाता है (1) भेदरूप भाव, और (2) अभेदरूप भाव । इस प्रकार यह आत्मा द्रव्यरूप में याने पिंडरूप में, क्षेत्र याने प्रदेशविस्तार में, काले याने पर्यायरूप में, भेदभाव याने गुणों के रूप में और अभेद भाव याने स्वभावरूप में यों 5 प्रकार में देखा जा सकता है । भावों से जीव को देखा जाता है किंतु ज्ञान का अनुभव कब होता है? पिंडदृष्टि में देखने पर आत्मा का अनुभव नहीं होता, क्षेत्रदृष्टि से व कालदृष्टि से देखने पर आत्मा का अनुभव नहीं होता है । भेदभावदृष्टि से देखने पर आत्मा आत्मानुभव के निकट पहुंचता है और अभेदभावदृष्टि से आत्मा का दर्शन होता है । पश्चात् प्रतीत होता है कि मैं मात्र चैतन्यस्वरूप हूँ एक होशियार लड़का है, उसे 4-6 आदमी मूर्ख, मूर्ख कहते रहें तो कुछ मूर्खता का अंश आ जाता है और कुछ थोड़ी मंदबुद्धि वाला भी है और उसको सभी के द्वारा बुद्धिमान बताया जाये तो संभव है कि कुछ बुद्धिमत्ता उसमें आ जाती है । यह सब भी अपनी दृष्टि से होता है । अभी किसी को कोई कहने लगे कि तुम बीमार से मालूम पड़ते हो, यदि वह अच्छा भी है तो वह बीमार सा हो जाता है । और किसी का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है और कहें कि आपका स्वास्थ्य अच्छा हो गया, दो चार आदमी कहें तो वह अपने में स्वास्थ्य दृष्टि करेगा और सुखी होगा । जब यह बात है कि अपने मन को जैसा बनायेगा, जैसी बात सामने आयेगी, जैसी योग्यता होगी तैसी ही परिणति सामने आयेगी । तो हम अपने को किस प्रकार से अनुभव करें कि हम सुखी हों और कैसा अनुभव करें कि हम दुःखी हो जायें । यह सब अपने ज्ञान के विभिन्न अनुभव पर निर्भर है ।
एक मनुष्य धनी होकर भी परिवार के बाल बच्चे सब होकर भी दुःख का अनुभव करता है और एक पुरुष जंगल में बैठा हुआ अकेला ही प्रसन्नता का अनुभव करता है । यह सब दृष्टि पर ही निर्भर है । जिनके बाह्य पदार्थों में विकल्प चल रहा है वे समागमों के बीच में भी दुःखी हैं और एक साधु पुरुष केवल अपने आपकी दृष्टि रख लेता है कि मैं परमात्मस्वरूप हूँ ऐसा एकत्व के ध्यान में लगा है तो उसको किसी प्रकार का क्लेश नहीं है । क्लेश लगा लेना अपने भावों पर निर्भर है । एक बार भी अपनी श्रद्धा में लेकर देखो कि जितना भी हमें क्लेश होता है वह सब मेरे अपराध से होता है दूसरे के अपराध से हमें कभी क्लेश नहीं हो सकता । इस बातपर विचार करो तो वे सब आफतें दूर हो सकती हैं । मेरा दुःख मेरे अपराध से होता है । कोई कहे कि मैं तो कमाता हूँ, उपकार करता हूँ, सदाचार से रहता हूँ पर घर में पुत्र नालायक निकल आये तो उस पुत्र के अयोग्य हो जाने के कारण ही तो दुःख है । भैया, पुत्र के कारण दुःख नहीं है, किंतु तद्विषयक राग बढ़ा हुआ है सो अपने आप ही दु:खी है । कोई भी प्राणी किसी तरह से दुःखी हो तो वह सब अपने कारण ही दु:खी होता है ।
आप कहेंगे कि सुकौशल आदि बहुत से मुनिराज उपसर्ग से पीड़ित हुए उस समय वे क्या अपराध कर रहे थे जिससे उन्हें क्लेश हुआ । सो सिद्धांत की प्रथम तो यह बात है कि पूर्व जन्म में किसी प्रकार के राग द्वेष कषाय की थी जिसमें उसी प्रकार के कर्म बंधे सो समय पर कर्मोदय के निमित्त से सुकौशल को दु:ख हुआ । वर्तमान में भले ही उपसर्ग हो रहा है, पर उन्हें दुःख तो है नहीं जरा शरीर में राग हो और यही दृष्टि हो जाये कि देखो मेरे को यह सिंहनी खा रही है, मेरे शरीर को बाधा पहुंचा रही है तो दुःख होगा सो ऐसा दुःख हो तो देखो उनका अपराध क्या है कि शरीर पर उनका झुकाव हो गया । सो यदि वह दुःखी है तो अपने ही कारण है । जितना भी क्लेश होता है वह सब अपने ही अपराध से होता है । सबसे बड़ा अपराध है राग भाव ।
अभी किसी को कैसे ही कुछ कह दिया जाये यद्यपि कहा वह है जो जनरल बात है मगर अर्थ लगा लिया उसने अपनी घटना का, जैसे कोई उपदेश ऐसा हो रहा है जिसमें व्यसनों के त्याग की बात कहीं जा रही हो और कड़े शब्दों में कही जा रही हो तो यदि कोई सुनने वाले व्यसनी हों तो वे समझते हैं कि यह मुझे कहा जा रहा है, मुझे कोसते हैं और इस प्रकार वे सोच कर दुःखी हो रहे हैं क्या उपदेश के वचनों के कारण उन्हें दुःख हो रहा है? उन्होंने अपने आपमें कल्पना यह दौड़ाई सो उन कल्पनाओं और विकल्पों से वे दुःखी हो रहे हैं । वह अपराध क्या है? राग है, उससे दु:खी है । वे किन्हीं चीजों के बिगाड़ने और सुधारने के यत्न में नहीं लगें किंतु कोशिश करें जानने की कि मुझमें कौनसा राग आया है, उसकी खोज कर लें, और जिस ज्ञानप्रकाश में राग मिटे उसका यत्न कर ले, शांति प्राप्त होगी । मोही जीव में ऐसी प्रकृति होती है कि मोह के कारण ही तो उसे कष्ट हुआ और उस कष्ट की पूर्ति के लिए मोह करेंगे तो कष्ट मिटेगा नहीं, बल्कि बढ़ेगा ही । राग करने से तो क्लेश होता है और राग को मिटाने के लिए राग कर रहे हैं, ऐसी प्रकृति मोह में रहती है । तो जैसे खून का दाग खून से नहीं मिटता इसी प्रकार राग करने से राग नहीं मिटता । यथार्थ भाव है तो उसके कारण अनाकुलता रह सकती है । उसी अनाकुलता के लिए ही ये प्रयत्न हैं कि हम यथार्थता को पहिचानें । इसी ज्ञान के लिए ये चार प्रश्न किये गये । वह आत्मा किसी नय से व्यापक है? किसी नय से शून्य है? किसी अभिप्राय से जड़ है व किसी आशय से देहगत है? इन चार प्रश्नों का उत्तर जो दे रहे हैं उनको उन प्रश्नों के स्वीकार रूप में ही जानो ।
आत्मा सर्वव्यापक कैसे है? कर्मरहित आत्मा केवलज्ञान के द्वारा लोक और अलोक को जानता है । इस कारण से इस ज्ञान के प्रसार की अपेक्षा यह आत्मा सर्वव्यापक है । कोई पूछे कि आत्मा कितना बड़ा है? तो उत्तर मिलेगा कि जितना बड़ा ज्ञान है उतना ही बड़ा आत्मा है । मगर, ऐसा नहीं मानते हो कोई तो उनसे पूछे कि आत्मा ज्ञान से बड़ा है कि ज्ञान से छोटा है? यदि यह मानोगे कि आत्मा बड़ा है और ज्ञान छोटा है तो ज्ञान तो हुआ छोटा और उससे अधिक हुआ आत्मा, तो जो ज्ञान से अधिक हो गया आत्मा, जो ज्ञान से परे हो गया है क्या उतने आत्मा का हिस्सा ज्ञान से रहित है । यदि ज्ञान से रहित है तो वह आत्मा ही क्या? और यदि ऐसा कहेगा कोई कि ज्ञान बड़ा है और आत्मा छोटा है तो आत्मा तो हो गया छोटा और ज्ञान बड़ा । तो आत्मा से जो ज्ञान बड़ा हो जाता है याने जितने ज्ञान में आत्मा नहीं है तो आत्मा के आधार बिना ज्ञान कहां रहा? इस कारण यह मानना होगा कि ज्ञान और आत्मा एक प्रमाण है । तब आत्मा ज्ञानप्रमाण हुआ सो ज्ञान चूंकि सर्वत्र है सो आत्मा भी सर्वव्यापक हुआ ।