वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 6
From जैनकोष
केवलदंषणणाणमस्य केवलसुक्खसहाव ।
जिणवर वंदउं भत्तियए जेंहिं पयासिय भाव ।।6।।
अभी तक सिद्ध भगवान का वर्णन किया गया । सिद्ध भगवान जो शरीर रहित हैं उन्हें नमस्कार करके अब सिद्ध स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले अरहंत भगवान को नमस्कार करते हैं । जो केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख के स्वभाव वाले है उन्हें मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ । जो आत्मा अपने ज्ञान दर्शन शक्तिमय हो गये हैं उन्हें ही तो जिनवर कहते हैं । वह अलौकिक शक्ति जो उनमें है, अपने में भी है किंतु हम उपयोग नहीं लगा रहे हैं । सबसे बड़ा क्लेश ममता है । कोई अपना दुःख सुनाने बैठे कथा सुनाये, आपको उस दुःख का कारण ममता ही मालूम होगा । जितना दु:ख होता है वह इसी ममता के कारण होता है । परपदार्थों में रागद्वेष की बुद्धि छोड़ दे तो ये सब दुःख क्षणभर में समाप्त हो जावे । त्याग का उपाय यही है कि अपने आपके सहजस्वरूप के दर्शन करे । अत: जो जीव अनंत चतुष्टयरूप हो गये उन्हें में नमस्कार करता हूँ । नमस्कार का अर्थ है नमना या झुकना । अत: मैं उन्हें, जो अनंतचतुष्टय को प्राप्त हो गये हैं, नमता हूँ, झुकता हूँ । मेरा सर्वस्व यही है । नमन का मतलब समवशरण में प्राप्त करना नहीं कहा हैं बल्कि अभेदरत्नत्रयात्मक जो भाव है उसे परिणत करना कह रहे हैं । उपदेश में जो कहा जावे, वे ज्ञान उपदेश नहीं, जो तत्व कहा गया है जो स्वरूप कहा गया है उसको ग्रहण करने का नाम ही उपदेश है । देशनालब्धि तत्त्वग्रहण की शक्ति को कहते हैं । कान से सुनने का अर्थ उपदेश नहीं बल्कि तत्त्व को पकड़ने का, धारण करने का नाम उपदेश है । अभेदरत्नत्रयात्मक परमात्मतत्त्व का सच्चा ज्ञान यही है । यदि कीचड़ वाले जल का स्वभाव कोई पूछे तो भी वही होगा जो स्वच्छ जल का स्वभाव है । अर्थात् जल का स्वभाव स्वच्छ हैं चाहे उस कीचड़ अगले जल में बिल्कुल भी स्वच्छता व्यक्त न हो । इसी प्रकार हमारा तुम्हारा भी स्वभाव सिद्ध भगवान के जैसा है ।
मोही जीव जिस शरीर में बैठा उसी को अपना समझता है । किंतु उसे नहीं मालूम कि यह शरीर उसी प्रकार है जैसे विष्टा से भरे हुए टोकरे पर स्वच्छ तौलिया ढका हुआ है । छहढाला में बताया कि―मलराधरुधिर मल थैली, कीकस वसादितैं मैली । नवद्वार बहैं घिनकारी, असदेह करै किमि भारी ।। अर्थात् हे प्राणी ! यह शरीर अनेक रोगों का घर है, इसमें खून, पीप, मांस, हड्डी आदि अनेक अपवित्र चीजें भरी हैं तथा नौ द्वार घिनावने बहते रहते हैं ऐसे घिनावने शरीर का तू क्यों कर स्नेह करता है । एक भंगिन थी वह विष्टे का टोकरा लिए जा रही थी । एक आदमी उसके पास को निकला, तो उसे बदबू आई, दूसरों को बदबू न आवे इसलिए टोकरे के ऊपर एक स्वच्छ कपड़ा ढक दिया । जब वह कुछ दूर चली तो तीन आदमी उसके पीछे लग गये कि न मालूम यह इसमें क्या लिये जा रही है? भंगिन बोली कि तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो इसमें तो विष्ठा है । उनमें से एक तो यह सुनकर ही वापिस लौट गया । फिर कुछ दूर जाकर वह बोली कि तुम भी लौट जावो इसमें कुछ नहीं है । उन्होंने कहा हमें विश्वास नहीं । अत: उसने कपड़ा उघाड़कर दिखा दिया । दूसरा आदमी देखकर वापिस हो गया । किंतु तीसरा व्यक्ति बोला कि नहीं मुझे विश्वास नहीं, मैं तो सूंघकर वापिस जाऊंगा, और जब उसे सूंघकर विश्वास हुआ तब वापिस लौटा ।
इसी प्रकार जगत के प्राणियों की दशा है । पहिले नंबर के तो वे हैं जो ऋषियों के उपदेश से ही अपनी आत्मा के कल्याण में लग जाते हैं । दूसरी श्रेणी में वे आते हैं जो जीवों की करुण दशा देखकर, जो कि कष्ट उठाये होते हैं, विषयवासनाओं में दुःखी रहते हैं, अपनी आत्मा के कल्याण में लग जाते हैं । किंतु तीसरी श्रेणी में वे हैं जो उनमें फंसकर, विषयवासनाओं को, विषयभोगों को भोगकर यदि वैराग्य हो गया तो अपनी आत्मा के कल्याण में लग जाते हैं अथवा उन्हीं में लिप्त रहते है । मेहतर का अर्थ है कि सबसे बड़ा । वैसे है वह काम की अपेक्षा सबसे छोटा किंतु छोटे को छोटा कहने में उसे दुःख न पहुंचेगा अत: महत्तर कह दिया । जो विवेकी हैं उन्हें यह शरीर सुंदर नहीं लगता । वे इसकी सुंदरता में अपना समय बर्बाद नहीं करते, किंतु जो अविवेकी हैं वे शरीर को बहुत सुंदर समझते हैं और उसे ही सजाने में लगे रहते हैं । अत: उस अभेदरत्नत्रय को प्राप्त करने का उपाय यही है कि देह की ममता छोड़कर सुख दु:ख में, जीवन मरण में, लाभ अलाभ में शत्रु मित्र में समानता का भाव रखे । अपने स्वभाव का जिसको ज्ञान हो गया उसे सब कुछ प्राप्त हो गया । यदि अपने से प्रतिकूल भी कोई बोले, निंदा भी करे, गाली भी दे तो भी समता धारण करें, द्वेष मन में न लावें । जीवन मरण में भी वह भावे कि इस जीवन से क्या और आगे मिलेगा उससे भी क्या ? मैं तो अमर हूं; चैतन्यस्वरूप हूँ । सम्यग्ज्ञान बना रहे तो यहाँ भी लाभ और आगे भी । यदि ज्ञान न रही तो कहीं भी सुख नहीं । आत्मा का अनुभव करने वाले को कितना ही कष्ट क्यों न मिले किंतु उसे के कष्ट से अमृत ही झरता है । ध्यान एकाग्र हो जाने पर तो ध्यान अवस्थायें होने वाली ध्यान वायु, वह श्वास नाभि के नीचे से होती हुई पीठ की ओर जाकर ब्रह्म छिद्र से बड़ी सूक्ष्मता से निकलती है, फिर वहाँ काग से जो पेय झड़ता है वही अमृत है । है तो वैसे वह भी पानी ही किंतु वह योगामृत है ।
भैया ! विपरीत अवस्था में भी समानभाव धारण करना चाहिए । ऐसा करने से निर्विकल्पक भाव प्राप्त होता है । जो निर्विकल्पसमाधि द्वारों अनंत चतुष्टय की धारणकर सिद्ध हो गये मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ । विशेषरूप से कर्मों का अभाव होने पर मोक्ष होता है । ऐसे मोक्ष का, सिद्धों का जिन्होंने प्रतिपादन किया उन्हें मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ । मैं अन्य कुछ नहीं, मैं तो चैतन्यस्वरूप हूँ, एक हूँ, ऐसी परिणति अभेदरत्नमय है । जिसने यह बताया उन जिनेंद्र भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ।
ये जिनेंद्रदेव किस पद्धति के अनुसरण से जितेंद्र हुये हैं? इन्होंने पहिले तो जिनेंद्र का उपदेश पाया जिसमें केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयस्वरूप परमात्मतत्त्व के सम्यक्श्रद्धानज्ञान और आचरणरूप अभेदरत्नत्रयात्मक होने का आग्रह किया गया है, जिसमें सुख-दुःख, जीवनभाव, लाभ, अलाभ, शत्रु, मित्र में समान परिणाम रखने रूप वीतराग निर्विकल्पसमाधि की शासना की गई है । पश्चात् इस अभेदरत्नत्रय के पालन के परिणाम में अनंत केवलजान, केवलदर्शन, केवलानंद व केवलशक्तिमय हुए । अनंतचतुष्टयस्वरूप जिनेंद्रदेव से निर्वांछिरिक उपदेश प्रकट हुआ जिसमें यथाविधिवत् जीवादिक पदार्थों का प्रकाशन हुआ, केवलज्ञानादि अनंतगुणमयस्वरूप के लाभरूपमोक्ष का वर्णन हुआ और शुद्ध आत्मस्वभाव के यथार्थ श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग का विवरण हुआ । ऐसे श्री जिनेंद्रदेव को मेरा भावपूर्वक नमस्कार हो ।
भैया ! अरहंतदेव के गुणों के स्वरूप की भांति शुद्ध आत्मस्वरूप ही उपादेय है―यह भाव इस गाथा के मर्मरूप जानना । अब इसके बाद भेदरत्नत्रय व अभेदरत्नत्रय के आराधक आचार्य उपाध्याय और साधु परमेष्ठी को नमस्कार किया जा रहा है ।