वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 70
From जैनकोष
देहहँ उब्भइ जर मरणु देहहं वष्णु विचित्तु ।
देहहं, रोय वियाणी तुहँ देहहं लिंगु विचित्तु ।।70।।
देह में ही जन्म होता, देह में ही मरण होता, देह में ही वर्ण होता व नाना प्रकार में रोग इस देह में ही होते हैं । और ये पुरुष, स्त्री, नपुंसकलिंग भी देह में ही होते हैं । श्रावकलिंग, गृहस्थलिंग
ये भी देह के होते हैं और चित्त मन भी देह के होते हैं । जीव का अपने आप सहजस्वरूप क्या है? इस पर दृष्टि दो तो ये सब अलाबला जीव के नहीं होते हैं, यह निर्णय मिलेगा । व्यवहारनय से वे जन्म-मरण आदिक धर्म जीव के हैं । अपने ये कर्मों के उदय से उत्पन्न होते हैं । और ये कर्म रागद्वेषमोह भाव से उपार्जित होते हैं । ये रागद्वेषमोह रत्नत्रय की भावना के प्रतिकूल हैं । रत्नत्रय क्या कहलाता है कि निज शुद्ध आत्मा का सम्यक्श्रद्धान हो, सम्यग्ज्ञान हो और आत्मा में ही सम्यक् प्रवृत्ति हो । इस स्वभाव के प्रतिकूल रागादिक भावों के द्वारा उपार्जित हुए कर्मों के उदय से उत्पन्न ये जन्म, जरा, मरण आदिक हैं । ये यद्यपि व्यवहारनय से जीव के होते हैं तो भी निश्चय से तो जीव के नहीं हैं । तो फिर निश्चय से किसके हैं? इसका दो टूक उत्तर दिए जाने की प्रेरणा हो तो बतलाओ कि ये जन्मादिक देह के ही होते हैं, जीव के नहीं होते हैं । जीव तो आकाश की तरह अमूर्त,रूप, रस, गंध, स्पर्श रहित एक पदार्थ है । फर्क इतना है कि यह आकाश तो है अनंतप्रदेशी और यह जीव है असंख्यातप्रदेशी और आकाश तो अचेतन हैं और यह आत्माचैतन्य है, देखन जाननहार है । इतना अंतर है आकाश में और आत्मा में; पर अमूर्तता के नाते जैसा आकाश है तैसा यह आत्मा है ऐसा कहा जाता है ।
भैया ! क्या आकाश की उत्पत्ति होती है? नहीं होती है । यों ही आत्मा की भी उत्पत्ति नहीं होती है । क्या आकाश का विनाश होता है ? नहीं होता है । ऐसे ही आत्मा का भी विनाश नहीं है । यह आत्मा ज्ञानमय है । सो उपाधि के सद्भाव से इससे में अनेक कल्पनाएँ जगती हैं और उन कल्पनाओं से यह दुःखी होता है । इसे न तो आग जला सकती है, न पानी गला सकता है । न हवा उड़ा सकती है और न शस्त्र छेद सकता है । यह तो परवस्तु से बाधारहित है । यह ईश्वर अपने आप ही अपने में भ्रम करके बाधाएं बनाता है । इस दोहे में यह शिक्षा दी गई है कि भाई ! ये जन्म, जरा, मरण, ये रूप, रंग, चिन्ह; ये सब देह में ही होते हैं । सो देहादि के ममत्वरूप विकल्पजाल को छोड़ो और छोड़ करके अपने वीतराग ज्ञानानंदमय एकरूप अपने आपको अनुभवो; जैसा कि यह सर्व प्रकार उपादेय है । सब द्रव्यों में जीव उपादेय है । उसमें भी शुद्ध आत्मा ही उपादेय है । सब संकटों से बचना है तो उसका उपाय क्या है? निज शुद्धआत्मा में रत होना । यदि जन्म-मरण की विपत्ति से बचना है तो उसका उपाय क्या है? यही तिल सहज शुद्धस्वरूप ज्ञानमय तत्त्व में लीन होना । यही शुद्ध आत्मा उपादेय है । श्रद्धा भी निर्मल रखना चाहिए कि मुझे कोई संकट नहीं है । मेरे को ग्रहण योग्य संसार में कोई भी वस्तु नहीं है । मेरा मात्र यह केवल चैतन्य स्वरूप ही शरण है। अब देह के बुढ़ापे को देखकर व मरण को देखकर हे जीव ! भय मत करो, ऐसा निरूपण करते हैं ।