वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 71
From जैनकोष
देहहं पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहिं ।
जो अजरामरु बंभु परु सो अप्पाणु मुणेहि ।।71।।
देह का बुढ़ापा और मरण को देखकर हे जीव ! तू भय मत कर । जो अजर अमर ब्रह्म है, उत्कृष्ट है वही तो तू है, ऐसा मान । भैया ! सब लगन का खेल है । यदि आत्मा की आत्मा के स्वरूप में ही लगन बन जाय; मेरा कहीं कुछ नहीं है, कुछ शरण नहीं है, कुछ हितरूप नहीं हैं―ऐसा निर्णय करके केवल निजशुद्ध आत्मा में ही लगन लग जाय तो फिर उसे भय नहीं है और न कोई संकट है । ऐसी आत्मा की लगन बढ़ाने के लिए हम रोज पढ़ते हैं । मगर अमल तो करें । किसे नहीं मालूम है कि आत्मा की लगन पुष्ट बनाने का उपाय क्या है? पूजा के अंत में 7 बातों को बोलते हैं ना? ‘‘शास्त्रों का ही पठन सुखदा, लाभ सत्संगति का सद्वृत्तों का सुजश कहके दोष ढांकू सभी का । बोलूं प्यारे वचन हित के, आपका रूप ध्याऊं तौ लों सेऊं चरन जिनके, मोक्ष जौ लों न पाऊं ।।’’
भैया ! शास्त्रों का स्वाध्याय करो । अपनी-अपनी चर्चा देख लो । शास्त्रों में मन नहीं लगता । गधा में खूब मन लग जायगा और लोगों को बुला-बुलाकर गप्पें करेंगे । पर खाली हैं तो चलो शास्त्रों का स्वाध्याय करें । पुराने प्राचीन ऋषियों के ग्रंथों में मन नहीं लगता तो आधुनिक पद्धति की जो पुस्तकें हैं उनको पढ़ें और उनको पढ़ करके यह इच्छा बनायें कि हम ऋषिजनों के प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करें । अच्छा बतलाओ कोई रोज दो घंटे पढ़ता है? फिर यह शिकायत क्यों है कि हमें अभ्यास नहीं होता । हां, पुरुषार्थ करो और न बने तो उसका कुछ ख्याल करना चाहिए । तो यह पहली बात कही जा रही है ।
दूसरी बात क्या है कि सत्संगति का लाभ हो । अब दुकान में, बैंक में और जगह दफ्तर में सभी जगह कैसे-कैसे आदमी मिलते हैं ? क्या कोई विरक्त संत मिलता है? नहीं । कोई साधु मिलता है? नहीं । तो सबसे बातें करनी पड़ती हैं । यदि बहुत समय असत् पुरुषों से बातें करनी पड़ती हैं तो उसका चौथाई समय तो ऐसा निकालो कि सत् पुरुषों का संग बना रहे । जो असार संसार से विरक्त हुए ऐसे गृहस्थ भी होते हैं । साधु ही हों ऐसा नहीं है । गृहस्थों में भी कोई ऐसे पड़ोसी हों कि जो कल्याण के इच्छुक है; धर्ममार्ग में बढ़ना चाहते हैं, मंद कषाय वाले हैं, उनकी गोष्ठी बनावे ।
भैया ! उद्यम करो, उद्यम बिना सिद्धि नहीं है । कोई बालक कहता है कि मां हमें तैरना आ जायगा? हां बेटा, आ जायगा, चलो पानी में । अरे नहीं, पानी न छूना पड़े और तैरना आ जाय; तो यह कैसे हो सकता है ? उपाय सब बताएँ गए हैं, उनपर अमल करने की कसर है । जब धर्म के लिए आप इतना बड़ा परिश्रम कर रहें हैं, तब थोड़ासा आचार्यों ने जो 7 बातें बताई हैं, उनमें भी अधिक लगो और फिर लाभ ने मिले तो कहो । लाभ नहीं मिले यह हो ही नहीं सकता है । तो दूसरी बात है सज्जनों की संगति, ये सब बातें कही जा रही हैं । अपने मन संकल्प कर लो कि एक घंटा प्रतिदिन स्वाध्याय जीवन में करेंगे । जब तक यह शास्त्र प्रवचन होता है तब तक नियम से शास्त्रों में आओ तो स्वाध्याय की छूट समझलो । पर जब यह शास्त्र न हो या विधि न बैठे तो फिर 1 घंटा तो नियम से स्वाध्याय करो इसमें कसर न रखो । रही मन लगाने की बात तो आप पहिले बड़े-बड़े ग्रंथ न उठायें । छोटे सरल ग्रंथ जो आधुनिक ढंग से लिखे हुए हैं उन ग्रंथों के स्वाध्याय में लगिए । धीरे-धीरे चलकर ऊँचे ग्रंथों में प्रवेश करो । जिसे सुख शांति एवं आनंद की भावना हो वह ऐसा संकल्प करलो कि मुझे 1 घंटा प्रतिदिन ज्ञानार्जन करना है । कुछ भी सुनने को मिल जाय तो वह स्वाध्याय है और नहीं सुनने को मिलता तो खुद किसी नियत ग्रंथ का श्रमपूर्वक स्वाध्याय करें । दूसरी बात कही गई है सत्संगति की, सो अपने पड़ौसियों को ढूंढ़ लों । सत्पुरुष भी आपको मिलेंगे । हर जगह 2-4-10-15 सत्पुरुष मिलते है । अपनी गोष्ठी बना लो कि खूब परस्पर में स्वाध्याय कर लिया जाय, कुछ चर्चा कर ली जाय ।
तीसरा उपाय है सद्वृत्तों की गुणगणकथा । देखो बड़ा आनंद आयेगा गुणों की चर्चा में । गुणी पुरुषों की प्रशंसा करने में आत्मा में बड़ी उन्नति जगेगी । दूसरे की निंदा करना, यह बहुत बुरा दुर्गुण है । क्यों हम दूसरों की निंदा करने में उतारु हो जायें? अरे ! दूसरे की निंदा करने से अपन को क्या लाभ है? खुद की लाभ हों या किसी दूसरे को लाभ हो तो दूसरे की निंदा करो दूसरे की निंदा करने से कर्मबंध होता है और परिणाम खराब होता है, समय व्यर्थ जाता है । सो तीसरा उन्नति का उपाय है कि गुणी पुरुषों के गुण का बखान करें । खुद तो अपन चक्कर में फंसे हैं, कर्मों से बंधते हैं, शरीर में फंसे हैं, नाना प्रकार के विकारों की प्रेरणा है । खुद तो बड़े संकट में है । दूसरों के अवगुण क्यों बखानते हो? संकल्प बना लो कि हमें इस तरह से चलना ही है, फिर डिगो नहीं । देखो, फिर जीवन में उन्नति आती है या नहीं?
चौथा उपाय है सबके दोषों को ढांकना । किसी के दोषों को बखानने में पहली हानि तो यह है कि हमने अपने उपयोग को दोषों में डाल दिया । फिर उसके बाद में दूसरे स्टेज की बीमारी यह है कि हम अपने मुख को और जबान को गंदी कर लेते हैं और तीसरी स्टेज, फिर यह है कि फिर किसी के लात घूंसे का इनाम मिल जाय । किसी के अवगुण कहने में निंदा करने में तीसरे स्टेज की टी0 बी0 हो जाय तो फिर क्या होगा? निंदा करने के प्रसंग में तीसरे दर्जे की टी0 बी0 हो जाय तो फिर पछताना पड़ता है । शुरु में तो दूसरों की आलोचना और निंदा सुहाती है । फिर उसके परिणाम में जब संकट घेर लेते हैं तब रोना आता है । अत: दोषवाद में मौन रहो ।
पांचवाँ उपाय है, बोलूं प्यारे वचन हित के । मैं सबसे प्रिय-हित के वचन बोलूँ, यह उतार लो जिंदगी में । क्रोध आता है तो सारी बातें भूल जाते हैं । तब प्रिय वचन बोलने की याद नहीं रहती है । लेकिन कोशिश की जाय तो क्रोध में कमी आ जायेगी । और फिर प्रिय-हित वचन बोलने की आदत बन जायेगी बताओ आप यदि किसी को धन नहीं दे सकते, तन से श्रम नहीं कर सकते तो जो मुफ्त की चीज है भले वचन बोलना, उसमें क्यों कंजूसी की जा रही है? अच्छे वचन बोलो तो खुद भी सुखपूर्वक रह सको और दूसरे भी सुखपूर्वक रहें । कैसी चुनी-चुनी बातें पूजा में रोज बोल जाते हे । पर उसका अमल, पालन नहीं हो पाता तो ज्यों के त्यों रह जाते हैं ।
भैया ! एक पंजाबी के घर एक तोता पला था तो उसको सिखा रखा था इसमें क्या शक? तोता बोलता है ना? बोलता है । उसके घर एक ब्राह्मण आया । उस तोते का रंग भी बड़ा सुंदर था । तोते वाले से बोला क्या यह तोता बेचोगे? हां, हां, बेचेंगे । कितने में बेचोगे? 100 रु0 में बेचेंगे । अरे आठ-आठ आने के तो मिलते हैं । 100 रु0 में यह क्यों बेचते हो? कहता है―तोते से ही पूछो कि क्या इसकी कीमत 100 रु0 है? तोते से पूछा कि तुम्हारी कीमत 100 रु है? तो बोला तोता कि इसमें क्या शक? उसे प्रमाण हो गया कि इसकी कीमत 100 रु0 है । खरीद लिया । अब अपने घर लाकर उसे खूब दूध पिलाया खिलाया । चार-छ: दिन के बाद वह ब्राह्मण रामायण लेकर बैठ गया । सोचा कि तोता तो विद्वान् है? कहो राम-राम । बोला इसमें क्या शक? सोचा यह हम से भी ज्यादा विद्वान् है । इसे राम के नाम से भी दिलचस्पी नहीं है । इसको तो ब्रह्मस्वरूप का पता होगा । फिर कुछ चरित्र बोलने लगा तो बोला इसमें क्या शक? फिर ब्रह्मस्वरूप की बात बोलने लगे कि वह एकस्वरूप है, अखंड है, कहो तोते । बोला―इसमें क्या शक? जब बहुत बातें कर चुका तो उत्तर केवल यही मिले, इसमें क्या शक? तो उसको शक हो गया कि यह तो मूढ़ मालूम होता है । तो ब्राह्मण पूछता है कि क्या हमने 100 रुपये पानी में डाल दिए? तोता बोला―इसमें क्या शक? वैसे ही हम-आप पढ़कर जाया करते हैं पर पढ़ने मात्र से हमारी-आपकी आत्मा में कुछ अंतर न पड़ेगा । हम छुपे-छुपे गुप्तरूप से आत्महित के लिए इन बातो का पालन करें और आत्मस्वरूप पर दृष्टि दें तो हमें उन्नति का उपाय प्राप्त हो सकता है ।
छठा उपाय यह है कि भगवान् की भक्ति करें । भगवान् के जो गुण हैं, उनका जो स्वरूप है, जो शुद्ध ज्ञानप्रकाश है उसका अंदाजा लगाओ कि कैसा है? यही प्रभु की उत्कृष्ट भक्ति है । सो इस प्रकार प्रभु के गुणों का अनुराग बढ़ाओ । सातवां उपाय है अपने आत्मा का ध्यान करों । आत्मा का ध्यान कैसे बने? तो उसके उपाय दो हैं । एक तो यह कि परवस्तुओं को अहित जानकर भिन्न समझकर उन सबका ख्याल छोड़ दो और कुछ क्षण तो बड़े विश्राम से स्वस्थित हो जाओ, आत्मा का ध्यान बन जायगा। और दूसरा उपाय यह है कि अपने बारे में ऐसा ध्यान बनाओ कि यह मैं केवल जाननमात्र हूँ, प्रतिभासमात्र हूँ । जानन का जो स्वरूप होता है, जानन का जो लक्षण है, साधन है उस रूप अपना उपयोग बनाओ कि यह मैं जाननमात्र हूँ । यदि जानन का जानन बन गया तो जानन की अनुभूति हो जायगी और जानन की अनुभूति में ही आत्मा की अनुभूति होती है । इस तरह जरा अपने आत्मा की लगन तो बढ़ाओ, कुछ भी भय न रहेगा । भय होता ही तब है जब हम आत्मा की दृष्टि छोड़ते हैं और परपदार्थों में दृष्टि फंसाते हैं, तब क्लेश होते हैं । अभी यह काम पड़ा है, अभी यह काम पड़ा है, इन विकल्पों से ही तो दुःखी है और जिसके ज्ञान में यह है कि मुझे कोई काम नहीं पड़ा है, सर्व परपदार्थ हैं, उनका परिणमन उनके कारण उनमें है, फिर भय की क्या बात है
हे जीव ! इस देह के बुढ़ापे को देखकर मरण को देखकर भय मत करो । यद्यपि व्यवहारनय से जीव के बुढ़ापा और मरण है तो भी शुद्ध निश्चयनय से यह बुढ़ापा और मरण देह के ही होता है, जीव के नहीं होता है, ऐसा मानकर हे मुमुक्षुसंत ! रंच भी भय मत करो । तेरा आत्मा तो केवल अपने स्वरूपमात्र है । जो कोई भी अजर है, अमर है, जन्म, जरा, मरण से रहित है, ब्रह्म शब्द से जो वाच्य है ऐसा यह चैतन्य सूत तेरा शुद्ध आत्मा है । कैसा है यह तेरा पवित्र आत्मा? यह आत्मा सर्वोत्कृष्ट है । अपने आपकी उत्कृष्टता अपने आपको विदित हो तो अपने में आत्मजागृति होती है ऐसे सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मस्वभावरूप अपने आत्मा को जानो । कै हम आत्मा को पूर्णरूप से स्पष्ट जान सकते हैं? पंचेंद्रिय के विषयादिक समस्त विकल्प जालों को छोड़कर, परमसमतारूप में स्थित होकर इस शुद्धआत्मा की भावना करो । सामने भोजन रखा है, इमरती बनाकर रखें दिया है और कहें कि जरा इसका स्वाद जानो और एकदम साफ जान लो कि इसमें क्या स्वाद है? तो क्या करते हो? खा लिया और जान गए । सामने रखी हैं, अब क्या कसर है? इसी प्रकार इस शुद्ध आत्मा को जानना है तो विकल्प छोड़ो समाधि में आओ तो शुद्ध आत्मा का जानन होगा ।
भैया ! खुद के किए बिना खुद का काम तो नहीं निपटेगा । दुकान का हिसाब-किताब चार महीने से पड़ा है तो वह आपके करने से ही तो पूरा पड़ेगा झुकने से तो काम न निकलेगा, काम करना ही पड़ेगा । कदाचित् घर के आंगन में भींत का कोई हिस्सा गिर गया हो? आंगन में ढेर लग गया हो तो रोने से सफाई न होगी, खुद के कराने या करने से ही सफाई होगी । खुद के कुछ किए बिना सफाई न होगी, झांकने से सफाई न होगी । इसी तरह मोक्षमार्ग का आनंद गप्पों से न मिलेगा, झुकने से न मिलेगा । साहस हो तो क्रिया से आचरण में, श्रद्धान में, ज्ञान में उतर जाओ तो उसका आनंद मिले । हे भव्य पुरुष ! विकल्पजालों को छोड़कर परमसमाधि में स्थित होकर अपने केवल शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना करो ।
अब योगेंद्रदेव यह अभिप्राय मन में रखकर कि चाहे देह छिद जाये, चाहे देह भिद जाये तो भी शुद्ध आत्मा की भावना ही करो । सदा के लिए संकटों से छूटने का उपाय करने में बहुत बड़ा त्याग करने की आवश्यकता है और यह त्याग मूल से भी ज्ञानस्वरूप है । अर्थात् अपने को ज्ञानमात्र निरखो, इसमें ही अन्य सर्वपदार्थों का त्याग आयेगा । फिर इसे सहज त्याग पर इतना दृढ़ आग्रह करें कि चाहे देह छिद जाये या मिट जाय तो भी इस शुद्ध आत्मा की अर्थात् ज्ञानात्मक अपने आपकी भावना हो करें ।