वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 74
From जैनकोष
अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ ।
सो छंडेविणु जीव तुहुं भावहि अप्पसहाउ ।।74।।
हे बनावटी दुःखी प्रभो ! अपने आत्मा को छोड़कर अन्य समस्त जो परभाव हैं उन्हें तू भिन्न जान । तू तो एक ज्ञानमय अलौकिक सत् है । और अन्य सब तेरे स्वरूप से अत्यंत पृथक् परभाव हैं परद्रव्य हैं । उनको छोड़ो और आत्मस्वभाव की भावना करो । यह आत्मा केवलज्ञानादिक अनंत गुणों को पिंड है । इस आत्मा को लक्ष्य में लेने के लिए उन समस्त गुणों में से एक ज्ञानमात्र गुणों के रूप में भावना करनी चाहिए । अन्य सब गुण निराकार हैं, उन गुणों को लक्ष्य में नहीं लिया जा सकता । ज्ञानगुण साकार है, उस ज्ञान को केवल शुद्धज्ञान के स्वरूपरूप में लक्ष्य में लिया जाय तो इस, आत्मा की खबर पड़ती है ।
भैया ! इस ज्ञानमय आत्मा को छोड़कर जो तुम्हारे घर में रहने वाले हों, उन्हें तुम भिन्न जानो । तुम्हारे घर में रहने वाले कौन हैं? आपके घर में कौन रह रही हैं? 2-4 के नाम बोलो । आपके घर में ये रागद्वेष मिथ्यात्व आ गये हैं । विषय, इच्छा, शल्य ये सब बस रहे हैं । हम ईटों के घर की बात नहीं पूछ रहे हैं । वह तो तुम्हारा घर ही नहीं है । वे तो भिन्न परद्रव्य हैं । मिट्टी के घर को किसने बनवाया? किसके प्रबंध से तैयार हुआ था? आपके बाबा ने बनवाया होगा तो कुछ खबर है कि उसको बनवाकर बाबा कितने दिन रहे थे? चाहे आधा ही बन पाया हो मर गए हों । और प्राय: ऐसा ही होता है कि बाबा के बाद तुम्हारे पिता ने पूरा किया होगा । पर उस मकान में तुम्हारे पिता कितने दिन तक रहे होंगे? कुछ खबर है? हाँ, होगी खबर; और तुम उस मकान में कितने दिन रहोगे? यह घर तुम्हारा? कैसे है? इस मिट्टी के घर की बात नहीं की जा रही है; किंतु अपने आत्मप्रदेश से पूछा जा रहा है कि ज्ञानमय भावों को छोड़कर अन्य जो भाव हैं, विषयकषाय हैं वे सब तुझसे न्यारे हैं । तू ऐसे ज्ञानमय निजस्वरूप को तो देख । उन सब पर भावों को छोड़कर तू अपने आत्मस्वभाव की भावना कर ।
अंतर में परभाव तो हैं मिथ्यात्व रागद्वेषभाव और बाहर में परभाव हैं शरीरादिक पदार्थ । ये सब तुझसे अत्यंत भिन्न हैं । सो पूर्वोक्त इन सब भावों को जो शुद्धआत्मा से विलक्षण हैं भिन्न हैं, न्यारे है, विपरीत हैं; उनको छोड़कर हे मुमुक्षु पुरुष ! इस शुद्ध आत्मस्वभाव की भावना कर । कैसा है यह शुद्ध आत्मस्वभाव? जो कारणसमयसाररूप है । जैसा मिस्मरेजम में यह देखते हैं कि मुंह में से कागज की धारियां निकालते जाते हैं, उनका अंत नहीं आता । ऐसा देखने वालो को लगता है । यह एक खेल की बात है । इस कारण समयसार में से भी पर्याय की धारियां निकल रही है, निकलती जा रही हैं अंत नहीं आता। यह पुराण पुरुष ज्यों का त्यों ही है और ये परिणतियां इससे निकलती चली जा रही हैं ।
हे आत्मन् ! तू उस ध्रुवस्वभाव को तो समझ कि यह मैं हूँ और उसकी जितनी परिणतियां निकलती हैं, अवस्था होती हैं उन सर्व को तू पर जान, भिन्न जान, अनात्मीय जान, उनमें मोह मत कर । इसको तो यह कहा जा रहा है कि तू अपने आपके रागद्वेष विचार वितर्कादिक परिणामों से भी मोह मत करो । किंतु यह मोह कर रहा हैं ईंट, पत्थर, धन वैभव से । यह तो चतुर है ना? शायद ऐसा अर्थ लगा बैठा हो । जैसे एक कथानक में है कि एक राजा के पास पुरोहित रोज शास्त्र पढ़ता था । दो दिन के लिए वह बाहर चला गया । अपने लड़के से कह गया कि तू राजा को शास्त्र सुना देना । पुत्र शास्त्र पढ़ने बैठा तो प्रकरण आया माँस के त्याग का, तो वह बोलता है कि जो रंच भी मांस खाता है वह सीधा नरक में जाता है । राजा को बहुत बुरा लगा । वह मांस खाने वाला था । और कोई नरक का नाम लगावे तो बहुत बुरा लगता है । चाहे नरक किसी ने देखा हो या नहीं, सुना हो या नहीं, पर कोई कह दे तो सुनने वाले को बहुत बुरा लगता है । सो राजा को बहुत बुरा लगा । दूसरे दिन पुरोहित आया तो राजा ने उससे शिकायत कर दी कि तेरा लड़का तो बहुत ही बुद्धू है । वह तो कहता था कि जो रंच भी मांस खाता है वह सीधा नरक जाता है । पुरोहित ने कहा―महाराज वह ठीक कहता था कि जो रंच मात्र भी मांस खाता है वह सीधा नरक जाता है । जो सेरों मां से खाता है उसकी बात नहीं कही जा रही है । अरे ! कहां तो यह उपदेश हो रहा था कि अपने रागद्वेष की वृत्ति से भी मोह न करो और कहां यह वृत्ति जग उठी है कि ईंट, पत्थर, मल, मूत्र के पिंड भिन्न देह से प्रति की जा रही है । शायद ऐसा ही अर्थ लगाया होगा कि रागों से प्रीति न करें, पर अन्य वस्तुओं से तो करें । इसलिए तो छाती से लगाए ही रहते हैं । पत्थरों को ईंटों को शायद ऐसा अर्थ होता हो ।
अरे भैया ! आंखों के सामने तिलभर भी कागज अड़ जाये तो सारा पहाड़ ढक जाता है । इस उपयोग में परमाणुमात्र भी राग रहता है तो वह आत्मा को नहीं जानता । जिसकी श्रद्धा में परमाणुमात्र भी राग है वह आत्मा को नहीं जानता और उपयोग में जिस समय रंच भी राग बस रहा हो उस समय आत्मा का अनुभव नहीं लगता । इन बाहरी पदार्थों से मोह छोड़ो । इसका आचार्य उपदेश नहीं देते हैं यह तो बेहूदापन है । उपदेश में यह कहा जा रहा है कि हे आत्मन् ! तेरी जो क्षण-क्षण की नवीन-नवीन अवस्था हो रही है उस अवस्थारूप तू नहीं है । वह अवस्था विनाशीक है । उससे तू प्रीति को तज और निज कारणसमयसार की सेवा कर । यह कारणसमयसार कैसा है? अभेदरत्नत्रयस्वरूप है । अभेदरत्नत्रय कैसा है कि कार्य समयसार की साधना करने वाला है । कार्यसमयसार कैसा है? जहाँ केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतआनंद व अनंतशक्ति; इस गुणचतुष्टय का जहाँ विकास है । ऐसे ज्ञानादिक चतुष्टय विकासरूप अरहंतसिद्ध अवस्था का साधक जो चैतन्यस्वभाव है, चैतन्यस्वभाव का अवलंबन है वह कारणसमयसार शुद्धआत्मस्वरूप उपादेय है । उसको ही उपादेय जानो और उससे अन्य जो कुछ भी तत्त्व हैं उनको हेय समझो ।
इस ज्ञानमय परमात्मा की भावना के अनुराग में श्री योगींदुदेव कह रहे हैं कि तुम सर्वसंकल्प-विकल्पजालों को छोड़कर अपने आपमें विश्राम को, परमविश्राम को लेते हुए शुद्धज्ञान के अनुभव का आनंद लूटो । कष्ट से, क्लेश से कर्म नहीं कटते; किंतु अलौकिक ज्ञानमय आनंद के अनुभव से कर्म कटते हैं । भोगों की रुचि को छोड़ो और अपने ज्ञानस्वभाव की रुचि करो । ये समस्त बाह्य भावमात्र धोखा ही हैं । इनसे संकट मुक्त नहीं हो सकते हैं । सदा के लिए संकटों से पार होने के लिए अपने आपमें बसे हुए अनादि अनंत अहेतुक चित्स्वभावमात्र परमपिता की उपासना करो । अब जो निश्चय से 8 प्रकार के कर्मों से रहित है और सर्वदोषों से रहित है, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से सहित है, ऐसे आत्मा को तुम परमात्मा जानो, ऐसी आत्मा की भावना करो ।
भैया ! सम्यग्ज्ञान वह कहलाता है जो किसी वस्तु को 5 उसके शुद्ध निजभावरूप देखे । शुद्ध का अर्थ है किसी वस्तु को केवल उसी वस्तुरूप देखना । किसी से मिले जुले या जो बात उसमें स्वयं स्वभाव से न हो, किसी पर का सन्निधान पाकर विभाव परिणमन हो, उसको न देखे; किंतु सहजस्वभावरूप से वस्तु को देखे तो उस ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं । आत्मा को भी इसी केवलस्वरूपमात्र देखने को हो परमात्मत्व का देखना कहते हैं । वह किस प्रकार है ?