वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 80
From जैनकोष
हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्णउ वण्णु ।
हउँ तणु अंगउँ थूलु हउँ एहउँ मूढउ मण्णु ।।80।।
मैं गौरवर्ण हूँ, मैं श्यामवर्ण हूँ, मैं भिन्न नाना प्रकार का हूँ, कृष्ण अंग वाला हूँ, स्थूल हूं; ऐसी जो अपने आप में आत्मबुद्धि करता है वह बहिरात्मा है । गोरा, काला क्या है? पुद्गल का रूप है । यह शरीर पुद्गल परमाणुओं का स्कंध है, यह वर्ण पुद्गल की रूपशक्ति का व्यक्त परिणमन है । ये गौर, श्याम आदि वर्णरूप परिणमन पुद्गल की योग्यता से होते हैं । परपदार्थ उनके होने में निमित्तमात्र होते हैं । जीव शरीरवर्गणा को ग्रहण करता है । ग्रहण तो नहीं करता, पर निमित्तनैमित्तिक संबंध की व्यवस्थानुसार जीव कर्मोदय का निमित्त पाकर नवीन शरीर पर पहुंचने की क्रिया करता है । पहुंच जाता है और चूंकि इस जीव में देह के प्रति आसक्ति बुद्धि लगी है सो उस देह को अपने रूप बना लेता है । बना तो नहीं सकता, मानता है ऐसा । इस शरीर के प्रति नियत वर्णादिक परिणमन में निमित्त तो है वर्णादिक नामक नाम कर्म का उदय । और वर्णादिक नामकर्म का बंध हुआ था, उसमें निमित्त था जीवों का रागद्वेष भाव । इस प्रकार इस रूप की रचना में जीव का रागद्वेष भाव निमित्त था, पर इस रूप का मुझ आत्मा में अत्यंताभाव है ।
पुद्गल के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का मुझ आत्मा में प्रवेश नहीं है । मेरे आत्मा में इस शरीर के चतुष्टय का प्रवेश नहीं है । शरीर अपने रूप से परिणमता है और यह आत्मा अपने रूप से परिणमता है । इस प्रकार अत्यंत भिन्न होकर भी किसी परपदार्थ को अपनेरूप माने तो यह जीव का बहिरात्मपन है । ऐसे ही अपने आपको और भी विभिन्नरूप में यह मूढ़ आत्मा मानता है । मैं अमुक कुल का हूँ, अमुक जाति का हूँ, अमुक नगर का हूँ । कितनी ही कल्पनाएँ यह मोही जीव करता है । 343 घन राजू प्रमाण आकाश क्षेत्र में से किसी भी प्रदेश के साथ इस जीव का संबंध है क्या कुछ कि मैं यहाँ का हूं? किस जगह का हूं? त्रिकाल भी इसका किसी आकाश प्रदेश से संबंध नहीं है । जहां कहीं भी यह आत्मा रहने लगे फिर भी किसी प्रदेश से रंच भी संबंध नहीं
है । फिर यह क्यों मोहबुद्धि हो रही है? मैं अमुक नगर का हूँ, अमुक गांव का हूँ, अमुक जगह का हूँ अरे ! मैं तो अन्य समस्त जीव द्रव्यों से न्यारा, समस्त पुद्गल द्रव्यों से न्यारा; धर्म, अधर्म; आकाश, द्रव्य से न्यारा; काल द्रव्य से जुदा मैं केवल अपने स्वरूप रूप हूँ । मैं किसी परपदार्थ के स्वरूप नहीं हूँ ।
यह मोही जीव अपने को न जाने किस-किस रूप में मानता चला आया है । विकल्पों की स्थितियां, उनके दर्जे कितने प्रकार के हैं? करता रहे यह विकल्प, किंतु इस जीव का किसी के साथ अणुमात्र भी संबंध है क्या? इस प्रकार इस आत्मा को बहिरात्मा जानो । ऐसे पूर्वोक्त मिथ्यात्व परिणाम से परिणत यह जीव इस संसार में यत्र-तत्र जन्म-मरण कर रहा है । दुःख की जड़ क्या है? सीधे-सीधे शब्दों में कह लो―मोह । मोह दुःखों की जड़ है । अब वह मोह किमात्मक है? इसकी व्याख्याएं हैं, पर सीधा अर्थ यह है कि अपना जरा भी संबंध नहीं है किसी पर से और मान रहे हैं कि यह मैं हूँ, यह मेरा है । जिससे मोह है, जिन लोगों से, भैया से या रिश्तेदारों से, किसी से भी मोह है तो बतलाओ सब अनंत जीवों में उनके साथ कुछ अधिक विशेषता लगी हुई है क्या? स्वरूप को देखो, सब जीवों में वह समानस्वरूप पाया जाता है । किसको अपना मान लिया जाय? निश्चय से आत्मा से भिन्न कर्मजनित और स्थूल आदिक भावों को, जो सर्वथा हेयभूत है उनको अपने में लगाता है । उसके सत्व के कारण उसका अपने आप में जो स्वरूप है उसे तो जानो । सर्वप्रकार उपादेयभूत वीतराग नित्यानंद एकस्वभाव शुद्ध यह जीव है और इस अपने को नानारूपों में मानता है ।
यह जीव केवल अपनी कल्पना से दुःखी हो रहा है । दुःख तो इसमें रंच भी कहीं नहीं है, सर्वत्र सुख है । विषयकषायों के अधीन बन रहे हैं । समझ रहे हैं कि अच्छा-अच्छा स्वाद का भोजन मिले तो इस जीव को अनंत आनंद हो । जान रहा है कि इस देह को आराम के साधन मिलें तो इसने अपना बड़प्पन साध लिया । समझ रहा है कि इस जीवलोक में यदि मैं अपना कुछ प्रताप बता सकूं तो मैंने अपने आपको ठीक कर लिया । यों विषयकषायों के अधीन होकर इस शुद्ध आत्मा के अनुभव से च्युत होकर यह जीव मूढ़ आत्मा होता है । यदि दुबला हुआ शरीर, तो यह मानता है कि मैं दुबला हो गया हूं? खेद खिन्न भी होता है, जब इसका वजन घट जाता है । अरे ! आत्मा में वजन कहां था? है किसी आत्मा का वजन? एक तोला होता होगा आत्मा का वजन? 1 या डेढ़ मन का आत्मा होता होगा? अरे ! वहाँ तो कुछ भी वजन नहीं है । यह तो आकाश की तरह निर्लेप है । यह तो चैतन्यतत्त्व मात्र आत्मा है । इसका कोई वजन नहीं है । क्या यह आत्मा दुर्बल है? मोटा शरीर मिले तो क्या आत्मा बड़ा कहलायेगा? यदि ऐसा ही है तो बड़े समुद्र के मच्छ बन जाना चाहिए ताकि हम बड़े हो जाएं तो शरीर की मोटा इसे हम बड़े कहलाते हैं क्या? नहीं । यह शरीर दुर्बल रहे या स्थूल रहे इससे आत्मा की शांति और अशांति का निर्णय नहीं है ।
आत्मा की शांति और अशांति का निर्णय तो आत्मा के ज्ञान से है । शुद्ध ज्ञान हो तो आत्मा आनंदमग्न है और अशुद्ध ज्ञान हो तो आत्मा पर सब संकट हैं ही । क्या संकट हो गया? परिवार में कोई बीमार हो गया, लो संकट मान लिया । अरे ! तेरे अरहंत-सिद्ध की तरह ज्ञानानंदघन इस आत्मतत्त्व में क्या संकट छा गया? यहाँ कुछ वैभव कम हो गया, सो संकट मान रहे हो? अरे ! वह तो पुद्गल है । यहाँ ज्यादा न रहा, दूसरी जगह पहुंच गया तो इससे क्या संकट आत्मा में हो गया? मल बहाने वाले इन असमानजातीय पर्यायों के बीच में कुछ शान वाला नहीं रहा, बड़े संकट छा गये । क्या संकट छा गये? जो अपने आपको शुद्ध ज्ञानस्वरूप मानता है वह सदा प्रसन्न रहता है, निर्मल है, आनंदमग्न है और तो अपने को बहुत विपरीत मानता है वह दुःखी है । बस, जानकारी की कला पर ही सुख और दुःख निर्भर है । न धन का इसके सद्व्यवहार से संबंध है, न किसी पदार्थों के कुछ परिणम जाने से संबंध है । सुख-दुख का संबंध केवल ज्ञान की कला के साथ है । बड़ा कष्ट छा जाता है । केवल कल्पनाजन्य भाव से धन भी कम हो रहा है । किसीने चुरा लिया है, घर के लोग भी बीमार हो गए, इष्ट भी कोई गुजर गया । समझते हैं कि मुझ पर संकटों पर संकट छा रहे हैं । वहाँ कुछ भी संकट नहीं छा रहा है । अपनी कषाय का यह संकट बना रहता है ।
देखो तो भैया ! इसका इतराना यह जब मानता है कि मैं मोटा हो गया हूँ तो बड़े गर्व से अपनी भुजा को तकता है, हाथ उठाता है, मैं बड़ा पुष्ट हो गया हूँ, आइने को देखता है । छोटा दर्पण कोई देखने को लाई तो वह फेंक देता है । अजी ! बड़ा दर्पण क्यों नहीं लाए? बहुत बढ़िया दर्पण मिले जिसमें अपने शरीर की शक्ल पूरी तौर से देखकर मूंछ ऐठकर सिर पर हाथ फेरकर अपने आप गर्व से मौज मान लें कि मैं पुष्ट हो गया हूँ । अरे ! आत्मा की ओर तो विचार कर । तू तो तब पुष्ट कहलायेगा जब शुद्ध ज्ञानप्रकाश का अनुभव हो और आत्मा में ही तेरा निवास हो, शुद्ध आत्मतत्त्व की ओर तेरा झुकाव हो । वहाँ तू पुष्ट अपने को समझ और किसी शरीरादिक बाह्यपदार्थों से अपनी पुष्टि न मानो । यह जीव अपने उस शुद्ध ज्ञानस्वरूप के अनुभव से च्युत होकर चूंकि अपना एकत्वपरिचय में नहीं रहा अत: अपने को नानारूप मानता फिरता है । क्या मानता है कि:―