वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 88
From जैनकोष
अप्पा बंदउ खवणु णवि अप्पा गुरउ ण होइ ।
अप्पा लिंगिउ एक्कु णवि णाणिउ जाणइ जोइ ।।88।।
यह आत्मा वंदक नहीं है, अर्थात् बौद्ध नहीं है । क्षपण नहीं है याने दिगंबर नहीं है, गुरव नहीं है यानी श्वेतांबर नहीं है । यह साधुओं का जो भेद है कि जैन साधु, बौद्ध साधु, अमुक साधु; यह भेद आत्मा में नहीं पड़ा । आत्मा तो एक अमूर्त चैतन्यमात्र तत्त्व है । परिणति का भेद तो अवश्य है, किंतु यह आत्मा स्वयं भेद वाला नहीं है । आत्मा न बौद्ध हैं, न क्षपणक हैं, (अर्थात् न दिगंबर है) और-और जितने चाहे ले लो । श्वेतांबर हैं, दंडधारी हैं, दंड लेने वाले हंस हैं, परमहंस हैं, सन्यासी हैं, जटा रखने वाले योगी हैं, हड्डी की माला पहनने वाले हैं, बड़ी-बड़ी जटाओं की माला पहनने वाले हैं, कोई तिलक लगाये हैं, कोई कमर में मोटा रस्सा लपेटे हैं, कोई भभूत लगाये हैं, अनेक प्रकार के साधुजन होते हैं; पर आत्मा का यह विभिन्न स्वरूप नहीं है । जिसने आत्मा के स्वरूप का ज्ञान किया है वह आत्मा की उपलब्धि के लिए बाहरी पदार्थों को हटाने-हटाने का तो काम करेगा, मगर लगाने का काम न करेगा । आत्मा को क्या चाहिए ? समताभाव तथा निर्विकल्प आनंद । वह पर को हटाने से मिलेगा, परंतु पर को लगाने से नहीं मिलेगा । आत्महित के जिये कुछ भी चीजें शरीर पर रखने की आवश्यकता है क्या ? जिसे आत्मसाधना करनी है, भस्म हो, माला हो, जटा हो, कुछ भी हो; ये सब परपदार्थ हैं । इनके संचय और संग्रह से आत्मा में क्या कोई भलाई है? नहीं । वे सब विकल्प हैं ।
जैसे खेल में जिस लड़के का बड़ा चित्त रहता है उसको इतनी भी फुरसत नहीं है कि घर जाकर रोटी तो खा आए, खेलने में ही लगा रहता है । माँ उसको लिवाने आती है, अरे ! रोटी तो खा ले । हाथ पकड़कर ले जाती है, खिलाती है । उसने थोड़ासा खा लिया, मुँह धो लिया और फिर खेलने चल दिया । क्योंकि उसके खेलने की ही धुन सवार है । इसी तरह जिस महापुरुष में ज्ञान की धुन है उस पुरुष में इतनी फुरसत कहाँ है कि वह दूसरी चीजें लगाता फिरे, ढूंढ़ता फिरे । उसे तो खाने-पीने की भी फुरसत नहीं है । ऊनोदर वही रहता है जिसको काम-काज का अधिक महत्व लगा है । जिसको काम-काज अधिक नहीं लगा है, वह आसन मारकर खूब भरपेट खायेगा और जो कामकाज में अधिक लगा है उसको खाने की फुरसत ही नहीं है । उसके लिए खाने तक
का भी अवकाश नहीं है । साधु पुरुष ऐसे ही होते हैं कि वे काम में लगे हुए होते हैं । उनका काम है ज्ञान-ध्यान । उसकी ही धुन में लगे हुए होते हैं कि उनको बाहरी बातों के लिए अवकाश ही नहीं है । तो साधु का डंडा, पट्टी, भस्म आदि यह स्वरूप नहीं है । अगर अपना स्वरूप बनाया जाता है तो उसे ठलुवापन का उद्यम समझना चाहिए । कोई साधु विचित्र ढंग की ऊंची टोपी लगाकर बैठा है, कोई समस्त कपड़े विचित्र रंगों से रंगे हुए बैठा है तो वह ठलुवापन नहीं है तो और है क्या? जिस गृहस्थ का जितना अधिक रोजगार चलता है उसको उस रोजगार में उतना ही चित्त देना पड़ता है । उसको फालतू कार्य करने की फुरसत ही कहाँ है? और जिसके पास कोई कार्य नहीं है और चित्त लगा है इधर-उधर, तो उसे तो फालतू कार्य ही सूझते हैं ।
इस साधु का चित्त लगा है अनाहारस्वभावी शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व में । इस कारण यह ज्ञानी संत अपने आप में मग्न रहता है । वह इन भेषों के बनाने में नहीं फिरता । त्याग करते-करते जो भेष बन गया सो ही भेष साधु का होता है । जो लोग भेष बनाते हैं वह साधुता नहीं है । तुम्हें चीजें चाहिये लगाने को या ज्ञान का अनुभव चाहिये । केवल ज्ञान में ही दृष्टि लगाओ । जहाँ जो होता हो, हो; पर तुम तो एक ज्ञानध्यान की धुन में चलो । आत्मा ऐसे अनेक भेषों का धारी नहीं होता है । फिर कैसा होता है यह आत्मा? यह आत्मा ज्ञानमय होता है । उस ज्ञानमय आत्मा को कौन जानता है? उस ज्ञानमय आत्मा को ज्ञानी-ध्यानी जानता है । जैसे बताया जाता है कि जिस स्त्री के बालक नहीं हुआ, वह स्त्री बालक होने की पीड़ा को क्या जान सकती है? वह दूसरी स्त्री की पीड़ा को क्या समझ सकती है? और भी कहावत कहते हैं कि ‘जिसके पैर न फटी बंवाई । वह क्या जाने पीर पराई ।।’
जिस पर जो बात नहीं गुजरी उस संबंध में बह क्या अनुभव करे? जिसके आज तक सिरदर्द नहीं हुआ उसके सामने तुम सिरदर्द से तड़फ रहे हो तो उसका वह कुछ अर्थ नहीं समझ सकता । उसे क्या मालूम कि सिर का दर्द कैसा होता है? इसी प्रकार जिसको आत्मस्वभाव का अनुभव नहीं हुआ है वह आत्मानुभव के रस को क्या जानता है? आत्मानुभव हम-आप करते हैं, पर उसमें शर्त क्या है कि सत्य का तो आग्रह करो और असत्य का असहयोग करो । दो ही तो चीजें होती हैं । यदि सत्य का आग्रह करें और परपदार्थों का असहयोग करें तो आत्मा की प्राप्ति हो सकती है । आत्मानुभव की प्राप्ति करने के उद्यम में यह सब भेदविज्ञान का वर्णन चल रहा है । अब इसी में थोड़ासा कल होगा ।
जो पुरुष वैराग्य धारण करें और उनकी स्थिति किसी भी प्रकार की हो जाय सो उनकी आत्मा यद्यपि व्यवहारनय से बौद्ध या जैन साधु आदि कहलाती है तो भी शुद्धनिश्चयनय से देखा जाय तो आत्मा के एक भी लिंग नहीं है । कोई भी लिंग नहीं है । ये भेष, ये असमानजातीय पर्याय आत्मा में नहीं हुआ करती हैं । जैसे वास्तविक साधुजन सम्यक् साधुव्रतों का पालन करते हुए अपने को साधु नहीं मानते हैं, किंतु अपने को एक चैतन्यस्वरूप मानते हैं और इसी भीतरी शक्ति श्रद्धा के कारण और आलंबन के कारण उन साधुओं की कर्मनिर्जरा हो जाती है । इसी प्रकार श्रावक ज्ञानी पुरुष भी गृहस्थी के बीच रहता हुआ; दुकान, कारखाना आदि अनेकों आरंभों के बीच बसता हुआ गृहस्थ अपने को गृहस्थ नहीं मानता है । यहाँ ज्ञानी गृहस्थ की बात कही जा रही । सम्यग्दृष्टि गृहस्थ घरके बीच रहता हुआ भी अपने को गृहस्थ नहीं समझता । गृहस्थ क्या समझे अपने को; वहतो अपने की मनुष्य भी नहीं समझता । यह बात व्यवहार में मोटे रूप में सुनकर कोई यह शंका कर सकते हैं कि क्या वे अपने को मनुष्य भी नहीं समझते हैं? हाँ, ज्ञानी पुरुष अपने को मनुष्य भी नहीं समझते हैं । तब फिर क्या समझते हैं? वे चैतन्यलक्षणवान् शुद्ध पदार्थ समझते हैं ।
भैया ! यह मनुष्यपर्याय बन गई, पर मैं मनुष्य नहीं हूँ । उदयवश, उपाधिवश यह मनुष्य ढांचा बन गया पर यह मैं नहीं हूँ । मैं तो आकाशवत् अमूर्त, निर्लेप, ज्ञानघन, आनंदस्वरूप चैतन्यमहाप्रभु हूं―ऐसी श्रद्धा इस श्रमण के रहती है । गृहस्थी के बीच, किल-किल के बीच भी ज्ञानी गृहस्थ अपने को गृहस्थ नहीं मानते । तब फिर मैं अमुक चंद हूँ, मैं अमुक लाल हूँ, मैं अमुक प्रसाद हूँ, मैं अमुक पोजीशन का हूं; यह तो उनकी श्रद्धा में है ही नहीं । इस कारण वह निराकुल रहता है । जिसने समझा कि ‘‘यह मैं हूं;’’ बस, वही पिट गया । जिसने प्रतीति कर ली कि यह मेरा है, वह पिट चुका।
भैया ! कोई किसी से कुछ काम कराने के लिए रूठ जाता है तो यह उसका अविवेक है । यदि किसी से काम लेना है, जुटाना है तो नाराज होने का उपाय मत करो, किंतु प्रशंसा करके, आज्ञा मानकर बढ़ावा देने लगो । बस, वह तो बुरी तरह से दास बनकर आपकी सेवा करेगा । जैसे कहावत में कहते हैं कि गुड़ खाये मरे तो विष क्यों देवें? तो जब यह पुरुष विनय के और प्रेम के वचनों से तुष्ट होकर तुम्हारे काम आ सकता है तो क्रोध का या गाली-गलौज का उसके साथ बर्ताव क्यों करो? यह तो है नीति की बात । अपने को क्या सोचना चाहिए कि कोई आज्ञाकारी भी हो, विनयशील भी हो उसमें रमन जाओ, अपने विवेक का संतुलन ठीक-ठीक रखो । ज्ञानीसंत पुरुष अपने को साधु नहीं समझता है और न गृहस्थ समझता है । फिर तीसरी चीज क्या है? कुछ नहीं है । मत रहने दो । अटकी क्या है? मैं तो एक स्वतंत्र चैतन्यस्वभावमय शुद्ध पदार्थ हूँ―ऐसी जो श्रद्धा रखता है वह ज्ञानी घर के बीच में फंसा हुआ भी कर्मों की निर्जरा करता है ।
एक राजा मंत्री से सभा में बोला कि मंत्री मुझे स्वप्न आया कि अपन दोनों घूमने जा रहे थे । रास्ते में दो गड्ढे मिले । एक में गोबर मल भरा था और एक में शक्कर भरी थी । सो हम तो गिर गए शक्कर वाले गड्ढे में और तुम गिर गए गोबर, मल के गड्ढे में । तो मंत्री बोला, महाराज ! मुझे भी ऐसा ही स्वप्न आया, पर एक बात और अधिक देखी । क्या अधिक देखी? देखा कि आप तो शक्कर के गड्ढे में पड़े हुए हैं और मैं गोबर, मल के गड्ढे में पड़ा हूँ, पर मैं आपको चाट रहा था और आप मुझे चाट रहे थे । सो राजा को क्या चटाया? मल व गोबर । और स्वयं क्या चाटा? शक्कर । सो ज्ञानी विवेकी कदाचित् कीचड़ में पड़ा है, किंतु स्वाद ले रहा है शक्कर का । क्योंकि वह ज्ञानी है । सो किसी भी परिस्थिति में से गुजरो, लेकिन स्वाद आना चाहिए ज्ञानभाव का ही । ज्ञान का ही मधुस्वाद सदा आना चाहिए । गृहस्थ पुरुष के साथ कितनी ही झंझटें लगी हैं, अभी आप अकेले बैठे हैं, हमें तो नहीं दिखता कि आपके ऊपर झंझटें हैं । झंझटें आपकी पीठ पर नहीं धरी हैं, आपके सिर पर नहीं हैं । यदि आप कहेंगे कि हमारे भीतर में तो बड़े-बड़े संकट छा रहे हैं तो वे संकट कल्पना से बना लिये गये हैं । उस कल्पना को छोड़ दो तो उन संकटों के मिटने में क्या देर है? कहोगे कैसे छोड़ दें? अभी घर छूट जाय तो यह जो धन कमाया है वह छोड़ना पड़ेगा । अरे ! यह सब एक दिन तो छोड़ना ही पड़ेगा ।
भैया ! यदि खुशी-खुशी इस अपने जीवन में परसंग छोड़ न सके तो संकट न मिटेंगे और यदि खुशी-खुशी इस जीवन में ही सब कुछ छोड़ दिया तो देखो, संकट टलते हैं कि नहीं? अच्छा जाने दो, न छोड़ो, जिंदगी भर घर में रहो, पर श्रद्धा तो सर्वत्र सही बनाए रहो । सबसे अपने को न्यारा समझो । सबका अस्तित्व जुदा है । किसी से कुछ भी संबंध नहीं है । ऐसे ज्ञानी पुरुष
की पहिचान क्या है? उस ज्ञानी पुरुष का तन, मन, धन और वचन जो कुछ भी है यह अपने घर के लोगों पर ही नहीं खर्च करता है, वह 50-100 जीवों पर खर्च कर डालता है । यह है विरक्त ज्ञानी पुरुष को पहिचान । ये दिखने वाले हजारों आदमी हैं वे तुम्हारे घर के जीवों के बराबर भी नहीं हैं क्या? सारा वैभव, सारा सर्वस्व घर के उन चार जीवों पर ही खर्च हो रहा है और उन हजारों-लाखों जीवों पर कोई दृष्टि ही नहीं है । ज्ञान की यह पहिचान है कि एक दृष्टि ही सब जीवों पर भी डालता है । ये हैं, मेरे समान है जैसे मेरे घर के चार जीव हैं वैसे ही सब हैं । सब मुझसे भिन्न हैं । जैसा स्वरूप हमारे घर के लोगों का है वैसा ही स्वरूप सब जीवों का है । कुछ तो दृष्टि जाय । यह ज्ञानी गृहस्थ की बात है ।
भैया ! जो बन सके सो करो, भीतर में सही विश्वास तो बनाए रहो कि हमारा जीवन कोई पार नहीं कर देगा । भगवान् भी हमारा जीवन पार करने न आयेगा । गुरु भी कोई ऐसा नहीं है कि हाथ पकड़कर जीवन पार कर देगा । पर के द्वारा पर के पार की जाने वाली बात ही नहीं है । कोई किसी के जीवन को पार न कर देगा । यह तो स्वयं के परिणामों पर निर्भर है । बहुत बड़ी जिम्मेदारी है । कितनी बड़ी जिम्मेदारी है? जितनी कि घर के 10 लोगों की पोजीशन बढ़ाने की जिम्मेदारी समझते हैं उससे भी कई गुणी जिम्मेदारी है । इस मनुष्यभव को पाकर हम अपने आपका अनुभव करें, प्रत्येक स्थिति में कि मैं तो सबसे निराला ज्ञानमात्र एक पदार्थ हूँ । इस आत्मावगाहन के होने पर संकट स्वयं टल जावेंगे ।
किसी मनुष्य के ऊपर शहद की मक्खी मंडरा गई । अब इस वेदना से वह तालाब में घुस गया । जब वह तालाब में घुस गया तो मक्खियाँ क्या करें? तालाब के भीतर घुसकर वे कैसे काट सकें? वह पानी में ही नीचे-नीचे 25-30 हाथ तक निकल गया । ऊपर आया कि आध मिनट में ही मक्खियों आ गईं । फिर तकलीफ हो और फिर जरासा डूब जायगा तो फिर सारी तकलीफ मिट जायेगी । हैं 500 मक्खियां, मगर डूबने पर कोई मक्खी काट नहीं सकती । सो बड़ी आपत्ति आ रही है, बड़े संकट आ रहे हैं । अच्छा कुछ क्षण को अपने ज्ञानरस में डूब जावो, शुद्ध जाननस्वरूप की चेतना में मग्न हो जाओ । मैं तो सबसे न्यारी एक चैतन्य पदार्थ हूँ, मेरा कहीं कुछ नहीं है । यदि दो मिनट को भी आराम पा लें तो उससे आत्मा का बल फिर बढ़ जायगा और फिर उन संकटों से मुकाबला कर लोगे ।
भैया । हम अपने आपको जितना विरक्त और अपने ही एकत्वस्वरूप में रत अपने । आपको करेंगे उतना ही मोक्षमार्ग सिद्ध है । इस दोहे में यह भावार्थ कहा गया है कि ये द्रव्यलिंग जो हैं; जैसे मुनि हो गए, साधु हो गए, संन्यासी हो गए; ये सब देह के आश्रित हैं । आत्मा के आश्रित तो आत्मा का परिणाम है । अच्छा करें, बुरा करें, सो परिणाम भी आत्मा के आश्रित हैं । जो ये सब द्रव्यलिंग हैं वे देह के अधीन हैं । यह जीव का स्वरूप नहीं है किंतु इसे ही कोई जीव का स्वरूप कहने लगे तो वह उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कहा जायगा । जैसे कोई ईंट-पत्थर के महल को अपना मकान कहने लगे तो बतलाओ उसकी बात सत्य है क्या? क्या आपका मकान है? नहीं । अरे! आप तो आकाशवत् एक अमूर्त पदार्थ हैं आपके मकान कहाँ?
एक सेठ ने बहुत बड़ी हवेली बनवाई । लोगों को आमंत्रण देकर बुलवाया और सभा में बोला, देखो भाइयों ! यह हवेली बनी है, कोई इसमें गल्ती हो तो बतलाओ । अभी ठीक करवा देंगे । लोगों ने कहा कि इसमें तो गल्ती नहीं है । वहाँ कोई जैन बैठा था बोला कि इसमें दो गल्तियां नजर आती हैं । सेठ ने कहा, सुनो इन्जीनियर ये क्या गली बतला रहे हैं? अच्छा बतलाओ । कहा कि एक गल्ती तो यह नजर आ रही है कि यह हवेली सदा नहीं रहेगी । भला बतलाओ तो सही कि इस गल्ती को कौन ठीक कर सकते हैं? आजकल तो लिफाफा जैसे और दुबले मकान बनते हैं । यह कभी गिर न सके यह कैसे बात बने? अच्छा, भाई यह तो बड़ी कठिन गल्ती निकाली । दूसरी गल्ती बतलाओ । बोला, इसमें दूसरी गल्ती यह नजर आ रही है कि इसको बनवाने वाला भी सदा नहीं रहेगा । इन दोनों गल्तियों को मेटो । कैसे मेटोगे? गल्ती क्या है? कुछ नहीं । परद्रव्य हैं, उनका परिणमन है । गली तो यह कर रहे हैं कि यह मेरी है, ऐसा मानते हैं । इसी प्रकार ये जो शरीर के भेष बन जाते हैं, कौन बन गया? मुनि हो गए, क्षुल्लक हो गए, त्यागी हो गए, कोई हो गए, यह तो समझना ही चाहिए कि परमार्थत: यह मैं नहीं हूँ । मैं तो एक चैतन्यसत् हूँ ।
जब मैं रेल से सफर करता था तो साथ में दो बूढ़े ब्रह्मचारी भी चलते थे । वे दोनों ही करीब एक से ही थे । एक जो गुजर गए उनके पास से कोई निकल जाय, किसी का कोट छू जाय, किसी का जूता छू जाय तो झट नाराज हो जाते थे । तू देखता नहीं है कि यहाँ कौन बैठा है? कोई बिस्तर पर बैठ गया या सीट पर किसी का जूता आ गया तो बहुत नाराज हो जाते थे―‘‘देखता नही कि यहां ब्रह्मचारी बैठे हैं ।’’ हम उन्हें समझाते थे कि भाई ! गुस्सा क्यों करते हो? यह तो मुसाफिरी है । ब्रह्मचारियों को वैसे ही क्रोध न करना चाहिए । वह बोलते कि अरे तो क्या हुआ? देखते नहीं कि यहाँ ब्रह्मचारी बैठे हैं । हमने कहा कि ये नहीं जानते हैं कि ये ब्रह्मचारी बैठे हैं । और जानते भी हों तो भी क्रोध नहीं करना चाहिए ।
इस प्रकार यह जो गुस्सा आता है वह भी पर्याय बुद्धि से आता है । यह चला गया, नमस्कार भी नहीं किया । यों नहीं किया, यों नहीं किया । तो है क्या? सर्वत्र पर्यायवृद्धि का नाच । जो पुरुष श्रद्धा में अपने को यह मानता है कि मैं साधु हूँ, मैं आचार्य हूँ, मैं मुनि हूं―वह सम्यग्दृष्टि भी नहीं है। काम सब हो, साधुपन का, ठीक है । दीक्षा भी हो, नियम भी करे, व्रत भी करे पर वह खुद अपने आपमें यह श्रद्धा करता है कि मैं मुनि हूँ तो उसने अपने ज्ञानानंदस्वभावी निजप्रभु का घात किया । अपने आपका यह श्रद्धान हो कि मैं शरीर तक से भी न्यारा हूँ । जो मैंने क्रोध कर दिया वह अनंतानुबंधी क्रोध है । उस क्रोध को करके मैंने अपने स्वरूप पर आघात कर दिया । पर्याय के गर्व में आकर अपने प्रभुस्वरूप में तुच्छ जो बना दिया वह है अनंतानुबंधी मान और यहां-वहां की बातों में भिड़कर धन-वैभव, लोग, रिश्तेदार, इज्जत; इनमें रमकर जो प्रभु के साथ कपट करता है वह है अनंतानुबंधी माया । प्रभु की रुचि न करके जड़ वैभव में जो प्रीति उत्पन्न होती है तो वह है अनंतानुबंध लोभ । जैसा उत्सुक होकर दुकान के कार्यों में लगता है वैसा ही उत्सुक होकर प्रभुभक्ति करने के लिए, ज्ञान की बातें सुनने के लिए, अध्ययन करने के लिए, सत्संग के लिए, गुरुसेवा के लिए होड़ लगाए, मन में तीव्र अनुराग जगे तो समझो कि हम कुछ अपने लिए कुछ करते जा रहे हैं ।
यह ज्ञानीसंत चाहे श्रावक हो, चाहे साधु हो; अपने में यह श्रद्धा करता है कि मैं चैतन्यस्वरूप सत् हूँ । मैं मनुष्य नहीं, मैं पुरुष नहीं, मैं स्त्री नहीं, मैं किसी नाम का नहीं हूँ, मैं किसी कुल का नहीं हूँ, मैं किसी परिवार संग वाला नहीं हूँ । मैं तो सर्वत्र अकेला हूँ । क्या आपका पुत्र जिंदगीभर आपकी सेवा करेगा? नहीं । अगर आप थोड़ासा भले होंगे उनके लिए तो वे थोड़ा पूछ लेंगे और आप अगर गल्ती करेंगे उनकी विनय में, तो वे लड़के उस पिता की जरा भी पूछ न करेंगे ।
भैया ! एक किंवदंती है कि ब्रह्मा ने चार जीव बनाए―मनुष्य, गधा, कुत्ता और उल्लू । सबको दे दी 40-40 वर्ष की उम्र और उनसे कहा जाओ तुमको मैंने पैदा किया । पहले उल्लू से कहा कि जाओ तुम्हें मैंने पैदा किया । बोला―महाराज ! काम क्या? बोले―अंधे बने बैठे रहना और कुछ मिल जाय तो खा लेना । महाराज उम्र कितनी? 40 वर्ष । महाराज उम्र तो बहुत है; कुछ कम कर दो । अच्छा 20 वर्ष कम कर दिए । 20 वर्ष की उम्र तिजोरी में रख ली । कुत्ते से कहा जाओ, पैदा किया । महाराज ! काम? जो रोटी दे उसकी विनय करना । उमर क्या होगी? 40 वर्ष । महाराज ! बहुत कम कर दीजिये । अच्छा, जाओ 20 वर्ष कम कर दिया । 20 वर्ष रख लिए । गधे से कहा―जाओ पैदा किया, महाराज ! काम क्या? खूब बोझा ढोना और सूखा-रूखा खाना । महाराज उम्र ? कहा, 40 वर्ष । महाराज ! उम्र कम कर दो । अच्छा 20 वर्ष कम कर दिया । अब मनुष्य को ब्रह्मा ने कहा, जाओ पैदा किया । महाराज । काम क्या होगा? खूब खेलना क्रीड़ा करना, लीला करना, शादी करना, खूब भोग करना, राज्य करना । महाराज उम्र क्या होगी? 40 वर्ष । महाराज 40 वर्ष में क्या होगा? उम्र तो कम है । कहा―अच्छा, ठहरो, मैं देखता हूं । अगर स्टाक उमर निकलेगी तो तुम्हें दे दूंगा । तिजोरी में खोलकर देखा तो बोले, हाँ, हाँ, उम्र मिल गई । 60 वर्ष और निकले । अब तो मनुष्य को 100 वर्ष की उम्र मिल गई । आ गया मनुष्य । असलियत की उम्र तो 40 वर्ष की थी । तो स्वत: दिए हुए 40 वर्ष थे उनमें तो मनुष्य को खूब मजा रहा । और 40 वर्ष के बाद में 60 वर्ष का समय आया । उसमें से प्रथम बीस वर्ष की उमर चूंकि गधे की बची हुई थी इस उम्र में गधे की तरह चिंताएँ लादे हुए घूम रहा है । लड़की बड़ी हो गई । उसकी शादी करना है । यह करना है, वह करना है । इस प्रकार की अनेक चिंताएं बनी रहती । अब उमर बीती, 60 वर्ष हो गए । जरा शिथिल हो गए । घर में बच्चे ऐसे होते ही हैं कि कोई बच्चा ज्यादा पूछ करता है और कोई बच्चा कम पूछ करता है । सो जिसने-खिलाया उसकी ही हाँ में हाँ मिलाता रहता है । फिर 60 और 80 के बीच की रहती है । अंधे हो गए । किसी ने सेवा की तो उसे आशीष दे दिया । किसी ने पूछ न की तो उसको गाली सुना दी और करेगा क्या? इससे यह शिक्षा लो कि जब तक शक्ति है, बल है, तब तक ज्ञान में प्रवृत्ति है । इसलिए धर्म में प्रवृत्ति करो ।
भैया ! कहीं कुछ ऐसा नियम नहीं है कि बड़ी उमर हो जाय तो वह कल्याण नहीं कर सकता । यह तो कथा है, परंतु ‘‘बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणी सुख लह्यो । अर्धमृतकसम बूढ़ापनो, कैसे रूप लखे आपनो ।’’ इसका अर्थ यह नहीं है कि बूढ़ा हो जाने पर ज्ञान नहीं रहता है । बड़े-बड़े साधु संत सारी जिंदगी भर व्रत-तप करते रहते हैं । वे बूढ़े बन गए तो क्या आत्मस्वरूप में नहीं लग पाते होंगे? अवश्य लग पाते हैं । तो इसका यह अर्थ लगाओ कि जिस जीव ने बचपन में ज्ञान नहीं पाया, वही जीव तरुण समय में स्त्री में लीन रहा । वही जीव जब बूढ़ा होता है तब उसको आत्मा का भान कैसे होगा? अगर वही बचपन में या जवानी में आत्मज्ञान में रुचि करे तो उसकी ज्ञान बढ़ेगा, घटेगा नहीं । जब तक शक्ति है, बल है, तब तक खूब ज्ञानार्जन करो, सत्संग करो, गुरुसेवा करो, विद्या सीखो, भक्ति करलो, जितना बन सके धर्म का काम करलो । गफलत के कार्यों में न लगो । वहाँ धर्म नहीं है, सिद्धि नहीं है । भीतर में श्रद्धान् ज्ञान चारित्र है तब तो जीवन सफल है और अगर श्रद्धान्, ज्ञान बिगड़ गया तो धन-वैभव से तो पूरा न पड़ेगा । तो ये साधुओं के भेष यह जीव का स्वरूप नहीं है, किंतु वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप जो ‘‘भावलिंग रूप परिणाम है वह जीव का स्वरूप होगा ना? इस आत्मा का निर्विकल्पसमतारूप परिणाम भी सूक्ष्म शुद्धनिश्चयनय से जीव का स्वरूप नहीं है; किंतु शुद्ध आत्मा के स्वरूप का साधक होने से यह निर्मल परिणाम, समता का परिणाम, वीतरागता का भाव जीव का स्वरूप कहा है । स्वरूप तो अनादि अनंत अहेतुक चैतन्यशक्ति है ।’’ उसकी रुचि करो कि यह मैं हूँ । तो इस रुचि के बल से इस संसार से पार हो सकते हो ।
इस जीव के साथ अधिक संबंध है शरीर, मन और वचन का । इन तीनों को यह जीव अपना मानता है और इनका अपने आपको कर्ता मानता है । इस देह, मन और वाणी का यह जीव न करने वाला है और न करवाने वाला है, न करने वाले का अनुमोदन न करने वाला है । यह परद्रव्य है, इस परद्रव्य में आत्मा का कुछ संबंध है, इसलिए करते की बात तो है ही नहीं, पर थोड़ा यह ख्याल हो सकता है कि हम किसी पर के कर्ता तो हीं हैं, पर कराते तो हैं । कराने में तो संबंध नहीं चाहिये । कराना तो इन डाइरेक्ट होता है । कहते हैं कि न तुम देहादिक करने वाले हो और न कराने वाले हो क्योंकि कराने वाला वह कहलाता है जो कार्य का प्रयोजक है । इस कार्य का प्रयोजन जिसे मिले, उसे कराने वाला कहते हैं ।
आप माली से बगीचा सिंचवाते हैं तो आप कराने वाले क्यों कहलाये? यों कि उस सींचने के काम के फल का आपने उपयोग किया, इसलिए आप कराने वाले कहलाये । वस्तुत: आप वहाँ भी कराने वाले नहीं हैं । जगत के किसी भी अन्य पदार्थ का ऐसा कौनसा प्रयोजन है जो प्रयोजन आपको मिले । घड़ी है तो घड़ी के परिणमन का प्रयोजन घड़ी को मिला इस घड़ी के जो परिणमन हुआ उसका फल किसको मिला? घड़ी को । वह फल क्या है? घड़ी का अस्तित्व बना रहा । आप बहुतसी बातें बोला करते हैं, मैंने मुनीम से हिसाब कराया, मैं बच्चे से अमुक काम करवाता हूँ । तो उसे बच्चे ने जो कार्य किया इसका फल किसको मिला? बच्चे को, क्योंकि वह रो रहा है, मचल रहा है तो फल उसको ही मिला । मुनीम ने जो कार्य किया उसका फल किसको मिला? मुनीम को । मुनीम ने श्रम किया, मुनीम के परिणमन चला । जब हमें कोई फल नहीं मिलता तो मैं करवाने वाला कौन हूँ? और कराने वाले की अनुमोदना करवाने वाला भी कैसे हूँ? कोई सांप मर गया तो पड़ौस के आदमी जल्दी जुड़ जाते हैं और कहते हैं कि इस सांप को क्यों मारा? यह तो बहुत लंबा सांप है । किसीने बताया दुर्गासिंह ने मारा, वाह रे ! दुर्गासिंह बड़ा काम किया । उन कहने वालो के परिणाम में हिंसा की रुचि गई नो अपने आपके परिणाम की रुचि हुई, दूसरे की नहीं । निश्चय से खुद-खुद का कर्ता है, कारयिता है व अनुमोदता है । मोह जैसा पाप नहीं है । अपने को महान् मान रहे, सर्वसंपन्न मान रहे । अरे ! दुःखमय संसार में जीव की काहे की संपन्नता । एक पद्य है जो आपको याद है कि ‘‘जो ही छिन कटे, सो ही आयु में अवश्य घटे, बूंद-बूंद बीते जैसे अंजुलि को जल है । देह नित क्षीण होत नैन तेज हीन होत, जीवन मलीन होत, क्षीण होत बल है ।। आवे जरा नेडी तके अंतक अहेडी आवे, परभव नजीक जाय नरभव निफल है । मेल को मिलापी जन पूछत कुशल, मेरी ऐसी अब दशा में मित्र काहे की कुशल है ।।’’
किसी ने पूछा कहो मित्र कुशलता है? तो उत्तर मिलता है कि काहे की कुशलता है? जो क्षण गुजर रहा है वह तो गुजर ही रहा है जैसे कि हाथ की अंगुली में पानी है तो बूंद-बूंद गिर कर व्यतीत हो जाता है । आप बच्चे की निःशल्यता को देख करके सोचें कि हम भी इतने ही छोटे हो जायें । हमने जो ज्ञान पाया सो ज्ञान तो यही रहे और आयु हो जाय 8 वर्ष की; सो अब कुछ नहीं हो सकता । जितनी आयु और रह गई है वह अंजुलि के जल की भाँति टपक-टपक कर समाप्त हो जायगी । यह घड़ी टिक-टिक कर रही है । जो यह आवाज निकल गई वह फिर कभी नहीं आवेगी । यह घड़ी टिक-टिक करती हुई सबको जता रही है कि जो समय निकल गया है वह अब कभी नहीं आयगा । शरीर प्रतिदिन क्षीण हो रहा है । नेत्र तेजहीन हो रहे हैं, इनसे दिखना कम हो गया है । मित्र ! काहे की कुशलता है? जवानी मलीन हो रही है । मलीन का अर्थ है कि विकारभाव से जिंदगी गंदी हो रही है, बल घट रहा है और बुढ़ापा अपने पास आ रहा है । जैसे शिकारी अपने शिकार को तकता है इस तरह यह बुढ़ापा तक रहा है कि मैं कब आऊं? यह सब इतना दुर्लभ मनुष्यजीवन निष्फल जा रहा है । मोह करता है । तू तो एकदम खूब इकट्ठा कर ले, क्यों डरता है खूब कर । मोह कितना करोगे? पूरा मोह करके निष्कर्ष की सोच लेना । यह आयु निष्फल जा रही है । ऐसी तो स्थिति है और कुशलता पूछ रहे हो भैया ! संसार में कुशलता का नाम नहीं । इससे उपयोग दृढ़ कर आनंदघन ज्ञानमय निजतत्त्व की दृष्टि करें; वहाँ सर्व कुशलता है ।
देह, मन और वचन, ये पुद्गलद्रव्यात्मक कहे गए हैं और ये पुद्गलद्रव्यात्मक भी अनंत परमाणु द्रव्यों के पिंड हैं । यह शरीर जड़ पुद्गलों का पिंड है । यह हाड़-चाम सब बिखर जायेगा । देह कोई ठोस चीज नहीं है, और फिर मल का बीज है, अर्थात् मल को पैदा करने वाला है । खूब नहाये साबुन से, तेल डाला गर्मी के दिनों में, फिर पसीना आ गया, फिर ज्यों के त्यों हो गए और एक जगह से क्या, स्थान-स्थान से मल बहता है । आंख से कीचड़ निकली, नाक से नाक निकली, रोम-रोम से पसीना निकल रहा, ऐसा सर्वत्र अपवित्र शरीर है और उससे मूढ़ ने दृढ़ परिचय बना लिया है । यह मोही जीव अपने देह को ऐसा मानता है कि मैं ही तो हूँ और जो मैं चैतन्य स्वरूपसत् हूँ, उसकी और दृष्टि नहीं । उसकी ओर दृष्टि चली जाय तो फिर इतना क्लेश नहीं रहे । अपने इस निराले परिपूर्ण कृतकृत्य निजप्रभु का परिचय नहीं है सो सैकड़ों कल्पनायें उठती हैं । यह मन जो देह के अंदर अष्टदल कमलाकार रचना युक्त है, वह भी पुद्गल पिंड है और ये वचन जो ओठों के तालुओं के संबंध से निकला करते हैं, ये वचन भी पौद्गलिक हैं । वैज्ञानिक लोगों ने संगीतवादन बहुत प्रकार से निकाला, हारमोनियम, रेडियो आदि से और एक बाजा और बना है उसमें कई आवाजें निकाल लो, वह बिजली से चलता है । यदि जैसा कोमल जीव है और उसके कागला है कंठ है होठ हैं और जिस तरह से बोलता है यदि उस तरह से ओंठ आदि वैज्ञानिक लोग यदि बना सकते तो ठीक, जैसे मनुष्य शब्द बोलता है ऐसे शब्द निकाल सकते, यह कठिन है । यह पुद्गल द्रव्यों के मेल मिलाप से होने वाले शब्द हैं । यदि ऐसी ही रचना बन सकती तो ऐसे ही वचन निकल जाते । यह वचन पौद्गलिक है, किंतु पुद्गल का जो स्वरूप है वह रस, गंध, स्पर्श का पिंड है । वह अस्तित्व इसमें पाया जाता है । किसलिए गर्व करता है देह का? यह तो प्रकट असार है । जितना सुंदर शरीर मिला इतना ही विविध कर्म का कारण है । देखो कि और ममता बढ़ायें, बहुत अच्छा । वे अपने मुख, नाक जो कि चिपटी हैं उनको आइने में देखकर फिर संतोष हो सकता है । किस पर गर्व करता है? यह देह तो किसी दिन मरघट में फिर जायेगा । एक दो मित्र थे । तो एक मित्र बोला, देखो मित्र ! हम तुम्हारा सदा सम्मान रखेंगे । सत्कार किया करेंगे और करते थे । मगर यार मरने के वक्त यह होगा, यार ता पैदल चलेगा ।
किससे प्रेम किया जाता है? शरीर से, जो कि मर जायेगा जो कुछ नहीं कर सकता और न रहेगा । कभी-कभी दिखावटी मुहब्बत से यह कहने लगते हैं कि अरे ! नहीं ले जाओ हमारे लला को । तो पंचजन कहने लगे कि अच्छा, नहीं ले जायेंगे तो स्वयं कहेगी कि नहीं, ले जाओ। ये सब दिखावटी बातें है, मुहब्बत है । सारा यह झंझट, परस्पर का व्यवहार, ये सब कुछ झूठा है यहाँ तो यह हालत है ।
एक दफे ऊँटों का विवाह हुआ तो विवाह में गाने बजाने के लिए ऊँटों ने गधों को बुलाया तो गधे उन ऊँटों के शरीर को देखकर कहें कि वाह रे ! ऊँट कितना सुंदर फण है? गधे यही अपने मुंह से गायें । ऊँट कहते हैं कि गधों का कितना सुंदर राग है? तो यही हालत इस दुनियां की है । तो उस प्रकार का जो पुद्गल द्रव्य है वह अनेक परमाणु द्रव्यों का पुद्गल है । यद्यपि यह सब अनेक परमाणुद्रव्यों का निजस्वरूप है । तन्मय अनंत परमाणु द्रव्य ये एक संकल्प है । इसमें अनेक द्रव्य बस रहे हैं, मगर कथंचित् रूप से हम कर रहे हैं । अब जो कुछ देख रहे हैं इसकी यदि सच्ची खबर पड़ जाय तो यह सब बह जायेगा, ढल जायेगा । आप सोचते होंगे कि सच्ची खबर मिले तो यह कैसे बह जायेगा? यह नहीं बिखरा । मगर सच्ची खबर जानने वाले के ज्ञान में यह सब कुछ रहेगा, बिखर जायेगा अथवा क्या है कि अनेक परमाणुओं का समूह है । यह एक-एक परमाणु अपना एक-एक भिन्न-भिन्न स्वरूप रख रहा है, एक का दूसरे से संबंध नहीं है । इसमें एक-एक परमाणु की दृष्टि चली जायेगी । यह इंद्रिय द्वारा नहीं होगा, इसलिए खुलकर इसका सच्चा पता नहीं पड़ेगा । ज्ञाननेत्रों से ये सब बिखर जायेगा कि दृष्टि में यह मायारूप शरीर नहीं रहेगा । ये तुम्हारे वचन, काय चूंकि परद्रव्य हैं तो इनका जो स्वरूप है वह इन्हीं में है । इनका स्वरूप आत्मा में कभी नहीं आ सकता । अभी तेल और पानी को मिला दिया जाय तौ वे तक नहीं मिलते हैं परस्पर में । एक दूसरे का स्वरूप स्वीकार नहीं करता । एक जाति में होते हुए भी ये देह और आत्मा तो भिन्न जाति के हैं । यह कैसे? कैसे एक दूसरे का स्वरूप स्वीकार कर लें? तो परद्रव्यत्व का अभाव है और परद्रव्य के कर्तृत्व का अभाव है इन दोनों को सिद्ध करते हैं ।
मैं पुद्गलमय नहीं हूँ और न मेरे द्वारा वे सब पुद्गल पिंड किए गए हैं । इसलिए न तो मैं देह हूँ और न मैं देह का कर्ता हूँ । इस प्रकरण में निर्धारित पुद्गलात्मक जो यह शरीर है इस शरीर की बात कह रहे हैं । अच्छा भाई ! शरीर मैं नहीं हूँ तो मन और वचन तो मैं हूँ । तो मन और वचन इस शरीर में मिश्रित हैं । ये परद्रव्य हैं, यह मैं नहीं हूँ । मेरा पुद्गलात्मक का तो अत्यंत विरोध है, पुद्गलात्मक का मुझमें अत्यंत अभाव है । यह बात विशेष समझ में आ रही होगी । इन सभी पुरुषों को कुछ भी खबर है तो यह बात समझ में नहीं आयेगी । आपके ही अंतरंग उद्यम से समझ में आयेगी ।
आपने यदि अपनी अच्छी तैयारी की है तो एक बच्चा भो आपसे बोलता तो आप सब समझ जायेंगे और तैयारी नहीं है तो कुछ समझ में नहीं आयेगा । यह आपके स्वरूपा चरण का प्रताप है अन्य कोई तो निमित्तमात्र है । यह मैं ज्ञान धन आदिमय आत्मा का प्रताप शरीरत्व के विरोध का कर्ता नहीं हूँ । शरीर का किसी भी प्रकार कर्ता नहीं, किसी भी ढंग से गुंजाइश नहीं है । अरे ! मैं इस शरीर का कारण हूँ इसलिये कर्ता तो हूँ । मैं नहीं होता तो यह शरीर किसको जानता । यह शरीर किसी का कर्ता नहीं है । निश्चय से देखो, क्या मैं शरीर के परिणमन का कारण हूं? क्या मेरी करतूत, मेरा प्रताप, मेरे निज आत्मप्रदेश को छोड़कर कहीं अन्यत्र भी हो सकता है? देखो तो सही, नहीं हो सकता । यह परिणमन वाला उपादेयभूत द्रव्य पर से निमित्तमात्र पाकर स्वयं अपनी कला से तदनुरूप परिणमता रहता है । यही जैसे पूछ सकता है कि आपकी जो व्याख्या हो रही है इसके तो हम लोग कारण हैं । नहीं मानो तो सोचो ऐसा, कि हम श्रोताओं का प्रताप है जो आप बोल रहे हैं तो हम श्रोता लोग आपके इस वर्णन करने के कारण तो हो गए न । अच्छा आप लोग उपादान कारण तो हैं नहीं, मेरे बोलने के लिए उपादान कारण तो नहीं है ना, इसलिए भिन्न हैं । आपके प्रदेश से मेरे में कुछ, नहीं आ रहा, पर निमित्तकारण तो हम हैं । तो हम अपनी ओर से कुछ बात टाल नहीं रहे, पैदा नहीं कर रहे हैं । जो जैसे भाव को लिए हुए बैठा है तो बैठा रहे । हम ही अपनी कल्पना से ‘‘सब बड़े सज्जन पुरुष हैं धर्म कार्य जानने वाले हैं, इनका बड़ा धर्म वात्सल्य है ।’’ इतनी बात जब मेरे हृदय में बैठी, तब अपनी चेष्टा में, अपने आपमें यह श्रम हो रहा है । इस तरह आप बोलेंगे कि हम तुम्हारे श्रम करने के कारण सही, पर हम लोग जो समझ रहे हैं उसके कारण तो हम वक्ता हैं । सो हम वक्ता लोग आप लोगों की समझ के उपादानकारण हैं कि निमित्तकारण? नहीं, उपादान तो नहीं हैं । तो कहेगा कि निमित्तकारण हैं तो हम निमित्तकारण भले ही हैं, पर मेरे से कुछ उद्यम नहीं हो रहा है । आप स्वयं अपनी सामर्थ्य से (कला से) आप अपने में अपने गुणों का विकास कर जाते हैं । इस प्रकार मैं शरीर का कारण क्या हूँ । मैं अपने द्वारा ठसक से नहीं कह सकता कि मैं कारण हूँ, दुनियां हूँ । तो मैं इस शरीर का कारण नहीं हूँ, जिससे कुछ गुंजाइश निकल सकती कि लो, मैं शरीर का कर्ता तो हूँ, जैसे शरीर का इतना घनिष्ठ संबंध है । यह मैं कुछ कर सकने वाला नहीं हूँ । जैसे किसी समय में राज्य में एक कानून बना था कि कोई भी मनुष्य अपने पेड़ों को काट नहीं सकता । महुआ, आम और कोई भी हो और उन्हें काटे तो इजाजत लेनी होगी और इजाजत लेने पर काट सकता था । वे परस्पर कहने लगे कि हमारी तो चीज है, पर अब हमारी नहीं हो रही है । वह तो बहुत दूर की चीज है आपका एकक्षेत्रावगाह से संबंध है । इतने तक का तो निमित्तनैमित्तिक का संबंध है । आपमें क्रोध का परिणाम जगेगा तो आपका लाल-लाल चेहरा हो जायगा । इतना तो निमित्तनैमित्तिक संबंध है, जिस पर कि इस शरीर पर आपका अधिकार नहीं ।