वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 9
From जैनकोष
गउ संसार वसंताहं समिय कालु अणंतु !
परमईं किं पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पतु महंत्तु ।।9।।
हे स्वामिन् ! संसार में बसते हुए, जन्ममरण के चक्र में घूमते हुए मेरा अनंतकाल व्यतीत हो गया, किंतु मैं सुख रंच भी न पा सका और बड़े दुःख को ही प्राप्त करता रहा । हमारे में और परमात्मा व्यक्त नहीं । व्यक्त में दुःख लग रहे हैं, अज्ञान है, किंतु शक्ति से परमात्मतत्त्व भरा हुआ है । यदि ऐसा न होता तो शुद्ध आत्मा का विकास न होता । इस परमात्मप्रकाश ग्रंथ में शक्ति के परमात्मा का ही वर्णन है । इसमें बताया है कि वह आत्मा घट-घट में विराजमान है प्रत्येक जीव में प्रकाशमान है । श्री प्रभाकर भट्ट अपने गुरु श्रीयोगेंद्रदेव से प्रश्न कर रहे हैं कि हे गुरुदेव, संसार में बसते हुए अनंतकाल व्यतीत हो गया किंतु अब तक सुख प्राप्त न हो सका अपितु, दुःख ही दुःख मिला ।
श्री प्रभाकर भट्ट ने व गुरु श्री योगेंद्र ने प्रथम तो पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया । ऐसा है कि गुरु का कोई न कोई मुख्य शिष्य रहा करता है, मुख्य भक्त रही करता है । वह प्रश्न करता है और उत्तर प्राप्त करता है, उसी प्रकार यहां पर भी गुरु शिष्य ने पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया, तदुपरांत शिष्य अपने गुरु से पूछता है कि हे स्वामी ! इस जीव को संसार में भ्रमण करते अनंतकाल बीत गया, किंतु दुःख के सिवाय सुख प्राप्त न हो सका । प्रथम तो इसी भव में उत्पन्न हुआ तो अकथनीय दुःख मिला, बच्चे की अवस्था में मुँह से न बोल पाने के कारण अपनी इच्छा व्यक्त न कर सका, अत: दुःख उठाया । फिर कुछ बड़ा हुआ तो इच्छा न होते हुए स्कूल भेजा गया, इच्छानुसार कार्य न कर सका उसमें भी दुःख ही उठाया । फिर जवान हुआ तो जवानी के दुःख उठाये, बुढ़ापे का तो कहना ही कुछ नहीं दुःख ही दुःख है । पूर्व जन्मों में भी दुःख ही उठाये । कोई मकोड़े बने, तो बुरी तरह से कुचले गये यहां तक कि अनेक लोग जान बूझकर भी मारते हैं । चूहे को पकड़ते, हैं उसकी पूँछ बाँध लेते हैं और आग के ऊपर लटका देते हैं । वह तड़क-तड़फकर मर जाता है । ये सब दु:ख हमी ने ही पाये हमने ही इन-इन पर्यायों में जन्म लेकर दुःख उठाये । यदि नारकी हुए तो वहां के दु:ख उठाये । यदि देवता हुए वहाँ के दुःख सहे । इस प्रकार अब तक सुख न पाकर दु:ख ही सहा । यह संसार खारे समुद्र की तरह है । जिस प्रकार समुद्र में खारा जल भरा रहता है उसी प्रकार नरक आदि दुःखों से भरा हुआ यह संसार है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति ये सभी तो जीव हैं क्या इनके दु:ख का कुछ ठिकाना है । क्या इनको कोई पूछने वाला ही न रहा । चलते फिरते भी लोग इनको जान से कुचलते हैं, उन पर कोई दया नहीं करता । मनुष्य के यदि पुत्र न हुआ तो दुःख हुआ, कुपूत हुआ तो दुःख और यदि सुपुत्र हुआ तो भी दुःख क्योंकि उसमें उपयोग लगेगा । धन हैं तब दु:ख, नहीं है तब दुःख, तात्पर्य यह कि इस जीव को बाह्यपदार्थों से दुःख ही दु:ख है सुख नहीं । क्योंकि अज्ञान में दुःख ही आता है सुख नहीं और जहां यह जाना कि मेरी आत्मा का स्वरूप चैतन्यस्वरूप है चेतना है वहाँ इन सब दु:खों की इतिश्री ।
भैया ! मेरा देव गुरु मेरे अंदर है इस ज्ञान के होने पर सब संकट स्वयं ही नष्ट हो जावेंगे । किंतु यह जो चेतनअचेतन का परिग्रह लगा रखा है यह सब विपक्षी का कारण है । कहां आत्मा की दृष्टि से प्राप्त होने वाला अलौकिक सुख और कहा ये जगत् के नाना प्रकार के दुःख कितना अंतर है? यह अर्ंतदृष्टि से ही हुआ । बाहर से दृष्टि के ओझल करो सबसे उपेक्षा दृष्टि देखो, ज्ञाता दृष्टा रहो इन्हें छोड़कर फिर कहा आनंद? इतना ही तो मर्म है ! अर्ंतदृष्टि करो तो आनंद और बाह्यदृष्टि करो तो दुःख मिलेगा । जहाँ राग द्वेष मोह नहीं, जहाँ जाननहार ही रहता है वहाँ समता परिणाम रहता है । समता के विपरीत तामस होता है, ये सब संसार इसी के उदाहरण है और समता के उदाहरण भगवान् हैं । जस के कारण इस समता के ही कारण कर्म भी झड़ गये और शरीररहित भी हो गये । परम उत्कृष्ट अलौकिक सुख को प्राप्त हो गये यह सत्त्व समता का ही तो फल है । अपना अपने सिवाय क्या है, किसी को अपना मानना किसी को पराया मानना ? ये ही तो तामस के भेद हैं । उपाधि के कारण ये नाना प्रकार के नाटक हो रहे हैं ! किसी भी जीव के प्रति खराब भावना मत बनाओ । भिखारी को भी देखकर यही सोचो कि कहां तो इसका परमात्म तत्त्व और कहां ये दशा हो रही है । इस प्रकार सोचे और सामर्थ्यानुसार उनका उपकार करे । उसका अपमान करना अन्याय है । उसका अपमान करना अपने आपमें बसे हुए परमात्मतत्त्व का अपमान है । जो दुःख होगा वह अलग । हम परपदार्थों में रागद्वेष का आनंद मान रहे हैं और आनंदनिधान निजपरमात्मतत्त्व का दर्शन नहीं हो पा रहा है उसके प्रति कुछ नहीं करते । मैं रागद्वेषरहित चैतन्यस्वभावमात्र हूँ ऐसी भावना करे तो परमआनंद प्राप्त हो ।
भैया ! भ्रम की जड़ को ज्ञान की फूँक से उड़ा दो तो दुःखों का पहाड़ सब नष्ट हो जावे । सब कोई रोजगार का, धन कमाने का यश का उपाय करते हैं किंतु ज्ञान का उपाय विरले ही करते हैं । समुद्र में जलचर जीव होते और यहाँ इस संसार में जन्म, मरण के चक्कर हैं । जैसे एक बांस की दोनों और नली में आग लगी हुई और बीच में कीड़ा बैठा हुआ हो तो उसकी जो दशा होती है वही दशा इस प्राणी की हो रही है । विकल्प जालों में फंसे रहने के कारण, जन्म-मरण के कारण । कहां तो यह प्राणी चैतन्यस्वभाव वाला और कहां भ्रम के कारण जन्ममरण की व्याधि में फंसा हुआ है । इन सबमें ही हे स्वामी ! मेरा अनंतकाल बीत गया किंतु सुख नहीं पाया । समुद्र में बड़वानल उठती है और संसार में नाना प्रकार के दुःखों की आग जलती है । इन दुःखों का मूल है भ्रम कि मैं अमुक जाति का अमुक शहर का अमुक कुटुंब का हूँ आदि आदि । भ्रम से यह जीव इन दुःखी में ही सुख मान रहा है । आत्मा पर स्वभाव पर नजर डाले तो सब शांत हो जावेगा । एतदर्थ प्रभु की भक्ति भी एक साधन है । यदि अन्य किसी भी अभिप्राय से भगवान् की स्तुति करोगे तो दोनों ओर से ही अनिष्ट होगा । न तो आत्मकल्याण होगा और न वैभव होगा । यदि कुछ न चाहकर भक्ति करे, मुक्ति की कामना करे तो वैभव भी पाता है और मुक्ति भी । अंतर्दृष्टि कर जो हम निर्णय करेंगे वही सत्य है । हे प्रभु ! कहां तो मेरा ऐसा स्वरूप और कहां ये दुनियां के चक्कर? समुद्र में तरंगें उठती हैं और यहाँ संकल्प और विकल्प होते हैं । यहीं जन्म से मरण तक हो रहा है।
हे प्रभो ! इस संसारसागर में मेरा अनंतकाल बीत गया किंतु अब तक सुख नहीं मिला क्योंकि मैंने अपने आपको नहीं पहिचाना पांचों इंद्रियां भी मिलीं, उत्तमकुल, उत्तमदेश, उत्तम आयु, उत्तम बुद्धि ग्रहण करने की शक्ति, श्रद्धान, संयम ये सब पाकर भी आत्मा का ज्ञान नहीं किया । यदि अब भी न चेता तो फिर कल्याण नहीं । विवेक आचार, विचार यदि ये तीनों सम्यक् हैं तो शरण है, अन्यथा इस संसार में कोई शरण नहीं । सबसे दुर्लभ तो यह है कि इस जीव ने मानवजीवन पाया । बहुत कठिनता से प्राप्त हुआ है यह मानवजीवन, फिर उससे दुर्लभ है उत्कृष्ट बुद्धि का प्राप्त करना, फिर इससे भी दुर्लभ है सच्चे धर्म का श्रवण करना, उससे दुर्लभ है ग्रहण करने की, समझने की शक्ति पाना, उससे कठिन स्मरण बनाये रखना उससे दुर्लभ है श्रद्धान् करना, फिर उससे दुर्लभ संयम का पाना, इससे दुर्लभ विषय चिंताओं से अलग रहना, इससे भी दुर्लभ है कषाय न करना, फिर इससे से भी दुर्लभ है बोधिलाभ । क्या सार है कषाय करने व क्षोभ रखने में किसी ने यदि कुछ प्रतिकूल कह दिया तो मेरी आत्मा में क्या हो जावेगा? क्या बिगड़ जावेगा मेरा । भय्या क्रोध करने से बनने वाला काम भी बिगड़ जाता है बनता नहीं । अत: क्रोध से काम बन जाता है ये भ्रम निर्मूल है । तपस्या करने के लिये भावना बनाना यह भी अति कठिन कार्य है । यथार्थ तत्त्व की भावना, शुद्धआत्मतत्त्व की भावना करना यह उससे भी कठिन है । इतना यदि हो जावे तो भी वह मुक्त नहीं हो सकेगा, जब तक वह शुद्धआत्मा की प्रतीति न करने लगे तब तक कल्याण नहीं और यदि इन सबमें कठिन साध्य वस्तु है तो वह है रागद्वेषरहित परिणामों की साधना क्योंकि मिथ्यात्व, कषाय विषय के भाव प्रबल हैं, इन तीनों के अर्थात् मिथ्यात्व (भ्रम) विषय (चाह), कषाय (क्रोध) रहते हुए आत्मोद्धार न हो सकेगा । जब तक मिथ्यात्व है तब तक वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होना अति कठिन है, जब तक भ्रम है तब तक सम्यक् ज्ञान संभव नहीं । जब तक क्रोधादि है तब तक भी कल्याण नहीं और जब तक चाह है, परपदार्थों की इच्छा है तृष्णा है तब तक भी कल्याण नहीं । परपदार्थ की दृष्टि दुःख की ही देने वाली है सुख की देने वाली नहीं । कषाय के तीव्र होनेपर पार नहीं पाया जा सकता । मंदकषाय भी होना एक बड़प्पन की बात है यदि यह भी न रहे तब तो वह अलौकिक दुनियां में पहुंच जावेगा, हमारे बीच में नहीं रह सकता फिर और इन्हीं कषायादि की प्रबलता से ही समतापरिणाम का होना अति कठिन है ।
बोधि और समाधि ये दो बातें दुनियां में अति दुर्लभ हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की प्राप्ति कर लेना सो बोधि है । जो प्राप्त नहीं थे सो प्राप्त कर लेना उसे बोधि कहते हैं । और इस रत्नत्रय को परभव तक साथ ले जाना सो समाधि है । इसीलिये समाधि से ही नाम समाधिमरण पड़ गया । इन तीनों को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र को साथ ले जाने का नाम ही समाधि है, और इस रूप जो मरण होता है उसका नाम समाधिमरण है । यदि कोई इस रत्नत्रय को प्राप्त कर भी प्रसाद करता है तो इस संसाररूपी भयानक वन में चिरकाल तक भ्रमण करेगा । अत: क्षणभर भी प्रमाद न करना चाहिये । प्रमाद में पतन ही है उत्थान नहीं । मोक्ष का प्रमाद करना, कषाय है । जहाँ कषाय हैं वहां मुक्ति कहां? जो आत्मा को कसे सो कषाय जो आत्मा को दुःख पहुंचा, ऐसे कषाय ही दुःख के कारण हैं सुख के नहीं, आनंद के नहीं, मुक्ति के नहीं । जिन्हें हम अपना मान रहे हो और बड़े हितैषी समझते हैं वास्तव में तो मेरे वे ही शत्रु हैं, वे ही मुझे पतन की ओर ले जावेंगे । और जो हैं उनकी ओर से बल्कि कुछ विवाद नहीं । सबसे बड़ा यदि दुश्मन इस आत्मा का कोई है तो वह है जिसे हम अपना मान रहे हैं । उनके लिये आजीविका करते हैं, कमाते हैं, पाप करते हैं, आजीविका में झूठ, माया, अन्याय, अनीति की शरण लेते हैं । किसके लिए, उन्हीं के लिये जिनके साथ बहुत मोह कर रहा है । भय्या तेरा इस संसार में कोई शरण नहीं, क्या मरने पर ये सब तेरे भाई, बहिन, माता, पिता, पुत्र पिता, स्त्री आदि जिन्हें तू अपना समझता है, साथ जावेंगे? क्या थे तेरी शरण हैं? तेरी आत्मा को कुछ सुख पहुंचा सकते हैं? नहीं ।
तेरा शरण यदि कोई है तो वह है चैतन्यदर्शन । यदि तेरे साथ कुछ जावेगा तो वह ज्ञान ही साथ जा सकता है, ये बाह्यपदार्थ नहीं । जो भी आज तेरी इज्जत कर रहे हैं, तेरा बड़प्पन कर रहे हैं वह सब स्वार्थवश ही कर रहे हैं । तेरी आत्मा का आनंद इन सबमें नहीं है । अत: हे हितैषियों सब जीवों पर समताभाव धारणकर यही भावना भाओ कि दुनियां के सभी जीव सुखी होवें, सब पर क्षमाभाव रखो, किसी से मोह, रागद्वेष न करो । यदि कोई प्रतिकूल भी तुझे कुछ बोल जावेगा तो तेरा क्या बिगाड़ हो जावेगा, तू तो चैतन्यस्वरूप है, ज्योतिपुंज है । बाह्य तत्त्वों से तेरा क्या संबंध? अत: इस प्रकार विचार करके अपनी आत्मा के कल्याण में लगो । तन, मन, धन, वचन में सामर्थ्य होते हुए भी कंजूसी करना ये सांसारिक प्रमाद हैं । ये तो मन वचन आदि नष्ट होने वाली चीजें हैं । इनमें नित्यता नहीं । जितने क्षण तक बल है उससमय तक उपकार कर । यदि उपकार न किया सामर्थ्य रहते, यदि इन चारों का सदुपयोग न किया तो बुढ़ापे में क्या करेगा? जब तक हिम्मत है कम से कम, तब तक तो सेवा करे । फिर ये तो रहेगा कि मैंने सामर्थ्य रहते मन, वचन, काय, धन का सदुपयोग किया । और फिर एक बात और भी है कि हमारे द्वारा किये गये उपकार से कृतार्थ होकर लोग बुढ़ापे में हमारी भी सेवा करेंगे । मन का बल पाकर भावना शुद्ध रखो । यदि किसी से कुछ तकलीफ भी पहुंचे तो सह सको ऐसा सामर्थ्य बनाओ । धनबल के रहते धन का सदुपयोग करो, उदारता करो, दान दो । अन्यथा मिट जाने पर पश्चाताप होगा कि मैंने धन बल रहते सदुपयोग न किया । यदि दानादि सत्कार्यों में खर्च किया होता तो आज क्लेश तो न होता । वचन बल रहते हुए किसी को कठोर बात मत कहो, सबसे नम्रता से पेश आओ । सबके प्रति मिष्ट वाक्य बोलो, किसी का अपमान न करो, अवहेलना न करो, सबको अपने समान चैतन्यस्वरूप भगवान के स्वरूपवाला समझो । इन चारों मन, वचन, काय, धन से शुद्ध रूप से किया गया उपकार कभी नहीं जाता बल्कि पुण्य होता ही चला जावेगा। ये चारों हैं तो क्षणिक ही, यदि सदुपयोग कर लिया तो भला है, नहीं तो नष्ट तो ये होवेंगे ही । सदुपयोग न किया तो पीछे पछतावा होगा, क्लेश होगा । सो भैया सावधान रहो अन्यथा रत्नत्रय को प्राप्त कर भी संसाररूपी भयानक वन में चिरकाल तक भ्रमण करना पड़ेगा प्रमाद करने से ।
हे नाथ ! मुझे बोधि, समाधि प्राप्त न हुई अत: अब तक मैं भ्रमण करते रहने के कारण परमानंद के रस का पान न कर सका । वह रस प्राप्त होता है―शुद्धात्मा की भावना से । अपने आपको अनुभव करने से, वह रस उदित होता है । वह मैं आज तक संसार के दुःखों को सुख मानने के कारण न प्राप्त कर सका, अत: सम्यक् अनुभव न प्राप्त कर मैंने अबतक चारों गतियों में उत्पन्न दुःख ही प्राप्त किये । श्री प्रभाकर भट्टजी अपने गुरु से (श्रीयोगेंद्रजी से) कह रहे हैं कि मैंने अब तक दुःख ही पाया सुख नहीं । जिस आनंद के प्राप्त न होने पर यह प्राणी भटकता रहता है चारों गतियों में वही उपादेय है अन्य नहीं । यही इस श्लोक में बताया गया है । आत्मा के ध्यान से उत्पन्न जो आनंद है वही उपादेय है और आत्मा का ध्यान रागद्वेष रूप परिणाम रहने से हो नहीं सकता । जब तक मोह है, जब तक परपदार्थों में रागद्वेष की बुद्धि है तभी तक अपने आपका दर्शन नहीं हो सकता और रागद्वेष की बुद्धि हटी समताभाव प्राप्त हुआ कि फिर कुछ विपदा नहीं । यदि कोई संसार में विपदा है, यदि भ्रमण करने का, चारों गतियों में रुलने का कोई कारण है तो वह है परपदार्थ में मोह, संसार के जीवों में छँटनी और उसका उपाय है अपने ज्ञान व आचरण को शुद्ध रखना । अपना ज्ञान निर्मल रख पदार्थों को जाने तो, किंतु उनमें लीन न होवे, मोह न करे । अपितु उपेक्षा रखे, आत्मा का ध्यान करे, अपने स्वरूप को पहिचाने तो कल्याण हैं ।